Thursday 09/ 10/ 2025 

देश के कई राज्यों में ठंड ने दी दस्तक! 12 राज्यों में भारी बारिश की चेतावनी, इन जगहों पर बर्फबारीJean Dreze’s column – How will India develop if we do not pay attention to children? | ज्यां द्रेज का कॉलम: बच्चों पर ध्यान नहीं देंगे तो विकसित भारत कैसे बनेगा?बिहार के ‘सिंघम’ पूर्व IPS शिवदीप लांडे ने भी ठोकी ताल, इन दो सीटों से लड़ेंगे चुनाव – Former IPS officer Shivdeep Land contest bihar assembly election lclkजहरीली दवा Coldrif कफ सिरप मामले में बड़ा एक्शन, 20 बच्चों की मौत का जिम्मेदार कंपनी मालिक रंगराजन गिरफ्तारN. Raghuraman’s column – Never compromise principles for fame and profit in business | एन. रघुरामन का कॉलम: व्यवसाय में प्रसिद्धि और लाभ के लिए सिद्धांतों से समझौता कभी ना करें‘गाजा शांति योजना के पहले चरण और बंधकों की रिहाई पर इजरायल-हमास हुए सहमत’, बोले डोनाल्ड ट्रंप – Israel Hamas agree first phase Gaza peace plan hostage release Trump ntcबिहार के बाद अब इस राज्य में हो सकता है SIR, चुनाव आयोग की टीम करेगी दौराएक क्लिक में पढ़ें 09 अक्टूबर, गुरुवार की अहम खबरेंकांग्रेस सरकार ने कब्रिस्तान के लिए दी सेना की जमीन? जुबली हिल्स उपचुनाव से पहले गरमाया मामलाकानपुर ब्लास्ट: पुलिस कमिश्नर बोले- अवैध पटाखों की स्टॉकिंग से हुआ धमाका, हिरासत में 6 लोग – Kanpur blast illegal crackers caused many detained action against protection ntc
देश

Aarti Jerath’s column – Populist politics is draining government coffers | आरती जेरथ का कॉलम: सरकारी खजानों में सेंध लगा रही है लोकलुभावन राजनीति

  • Hindi News
  • Opinion
  • Aarti Jerath’s Column Populist Politics Is Draining Government Coffers

3 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक
आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार - Dainik Bhaskar

आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार

नीतीश कुमार ने हर महीने 125 यूनिट मुफ्त बिजली देने की एक और चुनाव-पूर्व लुभावनी घोषणा करके बिहार के राजनीतिक गलियारों में सुगबुगाहटें पैदा कर दी हैं। जो नीतीश 2015 के दिल्ली चुनाव में खुले तौर पर ठीक ऐसी ही घोषणा के लिए अरविंद केजरीवाल की आलोचना कर चुके हैं, अब उन्हीं के द्वारा ऐसा ऐलान बताता है कि चुनाव के वक्त पॉपुलिस्ट घोषणाओं के प्रति नेताओं का आकर्षण कितना बढ़ता जा रहा है।

देखें तो चुनाव जीतने की अंधी दौड़ में सभी दल इसके आगे झुकते जा रहे हैं। चाहे महिलाओं को लुभाने के लिए उनके खातों में हर माह पैसा देने की बात हो या सरकारी नौकरियों का वादा, नेताओं को लग रहा है राज्यसत्ता उनकी निजी कंपनी है!

समग्र विकास और वित्तीय अनुशासन को ताक पर रखकर मुफ्त रेवड़ियां बांटने की सीमाएं तोड़ दी गई हैं। यह प्रवृत्ति चुनावी तंत्र को तार-तार कर रही है और देश भर के राज्यों के खर्च पर भारी-भरकम बोझ डाल रही है।

गौर करें कि बिहार में चुनाव से कुछ ही माह पहले नीतीश ने जल्दबाजी में कितनी घोषणाएं कर डाली हैं : बिहार की मूल निवासी महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 33% आरक्षण, वरिष्ठ नागरिकों और दिव्यांगों की सामाजिक सुरक्षा पेंशन में तीन गुना बढ़ोतरी, एक करोड़ रोजगारों का सृजन, विद्यार्थियों को हर माह 4 से 6 हजार रुपए तक का स्टाइपेंड, महिलाओं को फ्री बस यात्रा और गरीबों को मुफ्त में आवास। इनमें से कई योजनाएं लागू हो चुकी हैं, इसलिए वोटरों को इनका फायदा और इसका बोझ तत्काल दिखने लगेंगे।

मसलन, चुनाव आने तक परिवारों को बिजली उपभोग के ‘शून्य’ भुगतान वाले तीन बिल मिल चुके होंगे। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में बढ़ोतरी से राज्य के खजाने पर इस साल 9000 करोड़ रु. का अतिरिक्त बोझ आने का अनुमान है।

बसों में मुफ्त यात्रा से राजस्व नुकसान का अहसास धीरे-धीरे होगा। कर्नाटक में सत्ता में दो साल पूरा करने के बाद कांग्रेस सरकार को इसकी चुभन महसूस होने लगी है। विद्यार्थियों को स्टाइपेंड का हिसाब तो अभी किया ही नहीं।

बीते 20 वर्षों से बिहार की राजनीति में हावी नीतीश ने ‘सुशासन’ के लिए प्रतिष्ठा अर्जित की थी। हालांकि उन्होंने गरीबों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की थीं, पर उनका रवैया एहतियात भरा रहा। उन्होंने अपनी योजनाओं को जरूरतमंदों तक सीमित रखा ​है, उद्देश्यहीन तरीके से सौगातें नहीं बांटीं।

लेकिन वे मध्यप्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और झारखंड तक सत्तारूढ़ सरकारों की हालिया चुनावों में हुई शानदार जीतों से बेखबर नहीं रह पाए। इन राज्यों में सत्तासीन दलों को निम्न आय वर्ग की महिलाओं के लिए सफल योजनाएं लागू करने के कारण खासे वोट मिले थे।

कल्याणकारी राजनीति और लोकलुभावनी सियासत में बहुत अंतर है। कल्याणकारी राजनीति का मकसद गरीबों को सहारा देना होता है। भारत जैसे देश में- जहां अनुमानों के मुताबिक 20% आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करती है- वहां सरकारों को लोगों की मदद के लिए आगे आना होगा।

वे लोगों को बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ सकतीं। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा लगता है कि जमीनी हकीकत से राजनीतिक दलों का नाता टूट चुका है। उनके पास ऐसे कार्यकर्ता और संगठन नहीं बचे, जो उन्हें वास्तविक फीडबैक दे सकें।

दिसंबर, 2024 में आरबीआई ने राज्यों के बजट पर जारी अपनी रिपोर्ट में ‘फ्रीबीज’ और रियायतों पर होने वाले खर्च में तेजी से बढ़ोतरी पर चिंता जताई थी। इसमें राज्य सरकारों को उनके सब्सिडी खर्च को नियंत्रित करने और तर्कसंगत बनाने की सलाह दी गई थी, ताकि व्यापक महत्व की अधिक महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए पैसा कम ना पड़ जाए।

यही कारण है कि आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखंड या बिहार- सभी जगहों पर सरकारें खर्चों में नियंत्रण के लिए लाभार्थियों की सूची में छंटनी करने में लगी हैं, ताकि राज्य की देनदारियों का बोझ बहुत ना बढ़ जाए। महाराष्ट्र सरकार भी चुनाव जिताने वाली ‘लाडकी बहिण’ योजना से 26.34 लाख लाभार्थियों के नाम हटा चुकी है, क्योंकि वे अपात्र पाई गई थीं।

झारखंड की ‘मईयां सम्मान योजना’ भी लड़खड़ा रही है और महिलाओं के खाते में पैसों का हस्तांतरण रुक-रुककर हो रहा है। कर्नाटक सरकार महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की योजना पर बढ़ते खर्च के कारण इस पर विचार कर रही है।

दिल्ली सरकार अधिक राजस्व पाने के लिए जमीनों के दाम बढ़ाने के बारे में सोच रही है, ताकि चुनाव के समय पर किए गए वादे पूरे किए जा सकें। वेतनभोगी वर्ग भी नाराज है कि प्रतिस्पर्धी राजनीति में उन्हें कोई बिना लाभ दिए बिना पीछे धकेला जा रहा है।

नेताओं को समझना चाहिए कि चुनावी वादों से वोट जरूर बटोरे जा सकते हैं, लेकिन लंबे समय में वे लोकतांत्रिक राजनीति की विश्वसनीयता को कमजोर करते हैं। चुनावी खुमार उतरने पर कठोर सच्चाई से सामना होता है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…

Source link

Check Also
Close



DEWATOGEL