Column by Lieutenant General Syed Ata Hasnain – Relations with America are not possible at the cost of self-respect | लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कॉलम: आत्मसम्मान की कीमत पर अमेरिका से रिश्ते सम्भव नहीं

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4 घंटे पहले
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लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर
वॉशिंगटन में हवाओं के बदलते रुख से निपटना कभी आसान नहीं होता, खासतौर पर जब नेतृत्व की बागडोर ट्रम्प के हाथों में हो। भारत को लेकर ट्रम्प की भावनाओं में इधर एक नाटकीय बदलाव देखा जा रहा है, हालांकि यह न तो अप्रत्याशित है और न ही अभूतपूर्व। भारत-अमेरिका संबंधों का इतिहास ऐसे अनेक अवसरों से भरा रहा है। और इन सभी को जोड़ने वाला साझा सूत्र अपने राष्ट्रीय हितों और रणनीतिक गरिमा पर भारत का सदैव ही अडिग रहने वाला ध्यान है।
1990 के दशक की शुरुआत से ही भारत और अमेरिका की साझेदारी निरंतरता के साथ, लेकिन सावधानी से बढ़ी है। शीत युद्ध के बाद एकध्रुवीय विश्व की महाशक्ति के रूप में उभरे अमेरिका ने अपनी नजरें एशिया की ओर मोड़ ली थीं। लेकिन मैन्युफैक्चरिंग और आर्थिक क्षेत्र में एक दिग्गज के रूप में चीन के उदय ने वॉशिंगटन में खतरे की घंटी बजानी शुरू कर दी।
इसकी तुलना में भारत में अमेरिका ने न केवल अपना एक लोकतांत्रिक समकक्ष देखा, बल्कि रणनीतिक भूगोल वाला एक विशाल राष्ट्र भी पाया, जिसकी सीमाएं चीन से लगी हुई थीं। वह हिंद महासागर क्षेत्र में भी प्रभाव रखता था। ये वही जलक्षेत्र है, जहां से चीन की ऊर्जा और व्यापार जीवन-रेखाएं गुजरती हैं।
लेकिन यह कभी भी बराबरी का रिश्ता नहीं रहा था। वर्षों तक अमेरिका भारत को लेन-देन के नजरिए से देखता रहा। सैन्य संबंध बढ़े, मालाबार जैसे संयुक्त अभ्यास नियमित हुए, तकनीक व खुफिया जानकारी के क्षेत्र में सहयोग का विस्तार हुआ। पर अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान को एक ही नजरिए से देखने की अपनी आदत नहीं छोड़ी। यह झूठी तुलना- खासकर कश्मीर में आतंकवाद के मुद्दे पर- विवाद का विषय बनी रही है।
इसके बावजूद 2005 के परमाणु समझौते ने विश्वास के बढ़े हुए स्तर का संकेत दिया। ऐसा लगा कि अमेरिका भारत को चीन के विरुद्ध संतुलन बनाने वाले देश से कहीं बढ़कर एशिया में नियम-आधारित व्यवस्था को आकार देने वाले एक साझेदार के रूप में भी देखने लगा था। लेकिन ट्रम्प के उदय के साथ ही चीजें बदलीं।
सौदेबाजी के लिए अधीर और कूटनीतिक तकाजों से अनभिज्ञ ट्रम्प को उम्मीद थी कि भारत सहित दुनिया के तमाम देश दबाव में उनके सामने झुक जाएंगे। उन्हें लगा कि भारत व्यापार, टैरिफ और कूटनीति के क्षेत्रों में वॉशिंगटन की इच्छाओं का पालन सिर्फ इसलिए करेगा क्योंकि एक व्यापक हिंद-प्रशांत गठबंधन मौजूद था।
यह उनकी एक बड़ी गलतफहमी थी, क्योंकि भारत अमेरिका के साथ साझेदारी केवल तभी करेगा, जब उसकी शर्तें उसके अपने राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध न हों। और ट्रम्प को इसके प्रति अपेक्षित सम्मान दिखाना होगा।
क्वाड में भारत की स्पष्ट भूमिका और हिंद महासागर में उसके सहयोगी रुख के बावजूद ट्रम्प ने भारत पर आक्रामक दबाव बनाना शुरू कर दिया- व्यापार की शर्तों पर, बाजारों तक पहुंच पर और तकनीकी-नीति पर। हाल ही में ट्रम्प खेमे ने ऑपरेशन सिंदूर के इर्द-गिर्द एक कहानी गढ़ी कि उसमें अमेरिका द्वारा हस्तक्षेप किया गया था।
भारत द्वारा तुरंत और दृढ़ता से खारिज किए गए इस दावे ने ट्रम्प को व्यक्तिगत रूप से आहत किया है। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तान के साथ युद्धविराम का फैसला किसी बाहरी ताकत के दबाव पर नहीं लिया गया था। पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व के प्रति ट्रम्प की बढ़ती गर्मजोशी ने भारत-अमेरिका सम्बंधों में असहजता को बढ़ा दिया है। असीम मुनीर के साथ हाल ही में हुए हाई-प्रोफाइल लंच ने दिल्ली में सबको चौंकाया।
भारत के लिए यह निराशाजनक भले हो, लेकिन अस्थिर करने वाला नहीं है। वह जानता है कि अमेरिकी विदेश नीति- खासकर ट्रम्प के शासनकाल में- तात्कालिकता से प्रेरित है, दीर्घकालिक दृष्टिकोण से नहीं। वह यह भी जानता है कि भारत की ताकत किसी एक शक्ति के साथ जुड़ने में नहीं, बल्कि निर्णय लेने की अपनी स्वायत्तता बनाए रखने में है।
यह क्षण इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह इस पुरानी सच्चाई की पुष्टि करता है कि भारत पर दबाव नहीं डाला जाएगा। रणनीतिक साझेदारियां दबाव पर नहीं बनतीं; वे आपसी सम्मान पर टिकी होती हैं। भारत अमेरिका के साथ अपने संबंधों को महत्व देता रहेगा।
वह रक्षा सहयोग, तकनीकी तालमेल और एक स्वतंत्र एवं खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए साझा दृष्टिकोण के महत्व को समझता है। लेकिन ये प्राथमिकताएं सम्प्रभु निर्णयों से समझौता करने या अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव में गलतबयानी को स्वीकारने की कीमत पर नहीं हो सकतीं।
भारत अमेरिका से अपने संबंधों को महत्व देता है। लेकिन आपसी रिश्तों के प्रति हमारी प्राथमिकताएं अपने सम्प्रभु निर्णयों से समझौता करने या अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव में गलतबयानी को स्वीकारने की कीमत पर नहीं कायम रह सकतीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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