Wednesday 08/ 10/ 2025 

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Ruchir Sharma’s column – America does not have a monopoly on the world market | रुचिर शर्मा का कॉलम: दुनिया के बाजार पर अमेरिका का ही एकाधिकार नहीं है

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4 घंटे पहले

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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar

रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर

पिछले एक दशक में अमेरिकी शेयर बाजार ने तमाम प्रतिस्पर्धाओं को ध्वस्त करते हुए दुनिया के बाकी हिस्सों के औसत से तीन गुना ज्यादा रिटर्न दिया है। इससे यह धारणा बनी कि सम्पदा-निर्माण (वेल्थ-क्रिएशन) पर अमेरिका का एकाधिकार है। आज जब कई विदेशी बाजार बेहतर प्रदर्शन करने लगे हैं, तब भी यह धारणा कायम है। लेकिन यह सच नहीं है।

अमेरिका के बाहर सम्पदा-निर्माण के अनेक रूप हैं और उनके प्रभाव भी भिन्न-​भिन्न हैं। भारत में हो रही मैन्युफैक्चरिंग से लेकर कनाडा में धातुओं के खनन और यूरोप में रक्षा अनुबंधों से लेकर चीन में कुछ सरकार-समर्थित उद्योगों तक। ये सभी इस धारणा को झुठलाते हैं कि अमेरिका के अलावा किसी भी देश में उद्यमशीलता की ऐसी फलती-फूलती संस्कृति नहीं है, जो बड़े पैमाने पर धन के सृजन में सक्षम हो।

यह भ्रम इसलिए बना हुआ है क्योंकि एआई-आधारित तकनीकी उन्माद आश्चर्यजनक रूप से अमेरिका में धन को केंद्रित कर रहा है। दुनिया के दस सबसे अमीर उद्योगपतियों में से आठ और मार्केट-कैप के हिसाब से दस सबसे मूल्यवान कंपनियों में से आठ आज अमेरिका में हैं।

400 अरब डॉलर से अधिक मूल्य वाले पहले व्यक्ति (इलॉन मस्क, अलबत्ता कुछ ही समय के लिए) और 4 ट्रिलियन डॉलर से अधिक मूल्य वाली पहली कंपनी (एनवीडिया)- दोनों ही अमेरिकी हैं। बहरहाल, मेरी नई रिसर्च बताती है कि दुनिया की शीर्ष 10 कंपनियों और अमीर व्यक्तियों के अलावा भी कई देश महत्वपूर्ण सम्पत्ति अर्जित कर रहे हैं।

पिछले दशक में भी- जब अमेरिका के शेयर बाजार का रिटर्न वाकई असाधारण था- उसके प्रतिद्वंद्वियों ने अपना मुकाम बनाए रखा। 2015 से, दुनिया में कुल 444 ऐसी कंपनियां उभरी हैं- जिनका औसत वार्षिक रिटर्न डॉलर के संदर्भ में 15% से अधिक है, और जिनका मार्केट-कैप आज 10 अरब डॉलर से अधिक है। इनमें से 248 कंपनियां अमेरिका के बाहर उभरी हैं।

ये तेजी से धन अर्जित करने वाली कंपनियां दुनिया भर में फैली हुई हैं और ‘कंपाउंडर्स’ कहलाती हैं। जापान, कनाडा, ताइवान, स्विट्जरलैंड और जर्मनी जैसे देशों में भी इनकी अच्छी संख्या है, लेकिन ये सबसे बड़ी तादाद में चीन में है, जहां 30 से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं।

भारत में भी वे उल्लेखनीय संख्या हैं, जबकि उसकी प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है। पिछले दशक में अमेरिका के बाहर शेयरों में भारत ही सबसे प्रमुख बुल-मार्केट रहा है और उसने इस अवधि में 40 कंपाउंडर कंपनियां पैदा की हैं।

ऐसी अधिकांश कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग, तकनीकी या वित्त क्षेत्र में उभरी हैं। टेक कंपाउंडर्स में अमेरिका को बढ़त हासिल है, लेकिन दूसरे देशों ने भी इस श्रेणी में बड़ी कंपनियों को जन्म दिया है, जैसे कि ताइवान की टीएसएमसी और जर्मनी की एसएपी। मैन्युफैक्चरिंग और वित्तीय उद्योग के कंपाउंडर्स में तो दुनिया अमेरिका से स्पष्टतया आगे है।

इनमें रेलवे हार्डवेयर बनाने वाली एक कोरियाई कंपनी से लेकर सऊदी बैंकिंग सेवा तक के उदाहरण शामिल हैं। ये ऐसे व्यवसाय हैं, जिन पर टेक जितना ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन फिर भी उन्होंने अच्छी कमाई की है।

आज यूरोप से ज्यादा किसी और क्षेत्र को अमेरिका से पिछड़ने की चिंता नहीं है। पिछले साल ड्रैगी रिपोर्ट ने तकनीकी क्षेत्र में खामियों के निराशाजनक आंकड़ों से इस महाद्वीप को झकझोर दिया था, जिसमें यह तथ्य भी शामिल था कि दुनिया की 50 सबसे बड़ी तकनीकी कंपनियों में से पांच से भी कम यूरोपीय हैं। लेकिन टेक उद्योग से परे तस्वीर उतनी भयावह नहीं है। आज 50 से ज्यादा कंपाउंडर्स यूरोपीय हैं।

एक लंबी नींद के बाद अब यूरोप में उद्यमशीलता में जागृति के संकेत उभर रहे हैं। पिछले दशक में वहां टेक-स्टार्टअप्स की संख्या पांच गुना बढ़कर 35,000 हो गई है। 2015 के बाद से वैश्विक अरबपतियों की संख्या 1200 बढ़कर 3000 से ज्यादा हो गई है, और दस में से सात नए अरबपति अमेरिका के बाहर से उभरे हैं। फोर्ब्स सूची में नामों की संख्या अमेरिका में 70 प्रतिशत बढ़ी, जबकि भारत और चीन से लेकर कनाडा, इजराइल और यहां तक कि इटली में भी यह संख्या 90 प्रतिशत या उससे अधिक बढ़ गई है।

आश्चर्य नहीं कि फोर्ब्स की सूची में शामिल कई अरबपति या तो कम्पाउंडर कंपनी चलाते हैं या उनके मालिक हैं। इनमें भारत के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के दस नाम, फ्रांसीसी एयरोस्पेस क्षेत्र के प्रसिद्ध डसॉल्ट परिवार के पांच सदस्य, ऑस्ट्रेलियाई खनन दिग्गज एंड्रयू फॉरेस्ट और इंडोनेशियाई रसायन उद्योगपति प्राजोगो पंगेस्तू शामिल हैं।

संतुलन की स्थिति बहाल हो रही है। इस साल अब तक विदेशी बाजारों ने अमेरिका से काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। आने वाला दशक और भी स्पष्ट रूप से यह बताएगा कि धन के सृजन पर किसी देश का एकाधिकार नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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