Dr. Anil Joshi’s column – To avoid disasters, we have to change the infrastructure | डॉ. अनिल जोशी का कॉलम: आपदाओं से बचने के लिए हमें बुनियादी ढांचे को बदलना होगा

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6 घंटे पहले
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डॉ. अनिल जोशी पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद्
हमने “बिन पानी सब सून’ जैसी कहावतें तो गढ़ीं, लेकिन जल-प्रबंधन को कभी प्राथमिकता नहीं दी। हमने हवा, मिट्टी, जंगल और पानी- यानी प्रकृति के हर संसाधन को नजरअंदाज किया और आज ये सारे तत्व हमारे ही विरुद्ध खड़े हो गए हैं। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं।
धराली की त्रासदी ने एक बार फिर पूरे देश को झकझोर दिया है और यह केदारनाथ जैसी घटनाओं की याद दिला गई। अभी हताहतों की संख्या स्पष्ट नहीं है, क्योंकि पीड़ितों में स्थानीय निवासी भी थे और यात्री भी। एक क्षण में सब कुछ समाप्त हो गया- धराली उजड़ गया, जीवन शून्य हो गया। इस घटना के कारणों की पड़ताल जारी है, लेकिन कुछ बातें अब बहुत स्पष्ट और महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें समझना हम सबके लिए आवश्यक है।
सबसे पहली और मूल बात यह है कि हम आज भी प्रकृति के नियमों को न तो समझ पाए हैं और न ही उसके व्यवहार को लेकर कोई वैज्ञानिक समझ विकसित कर सके हैं। इसी कारण हम आज ऐसे मोड़ पर आ चुके हैं, जहां से लौटना लगभग असंभव प्रतीत होता है।
अगर कुछ संभावनाएं बची हैं, तो वे केवल इस रूप में हैं कि हम प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व का रास्ता खोजें। धराली, केरल, सिक्किम- देश के विभिन्न हिस्सों में बार-बार आ रही आपदाएं यही संकेत देती हैं कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग अब नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं।
आईपीसीसी ने एक दशक पहले ही चेताया था कि सबसे पहले इसका प्रभाव हिमालय और अंटार्कटिका जैसे संवेदनशील क्षेत्रों पर पड़ेगा। और अब यही हो रहा है। पारिस्थितिक दृष्टिकोण से देखें तो जहां-जहां प्रकृति के साथ अत्यधिक हस्तक्षेप हुआ है- जैसे हिमालय, केरल, चेन्नई- वहां विनाशकारी घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। प्रकृति का दोहन करने वाले, चाहे वे आम लोग हों या नीति-निर्माता, कोई भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाएगा।
अगर धराली की घटना को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो स्पष्ट होता है कि यह घटना न तो अतिवृष्टि की थी, न ही सामान्य फ्लैश-फ्लड जैसी। इस क्षेत्र से बहने वाली खीरगंगा नदी सदियों से हिमखंडों से पोषित होती रही है।
जब इतना अधिक जल आया, तो यह केवल ऊपर स्थित हिमखंडों के झीलों में परिवर्तित होकर फूटने के कारण ही संभव हो सका। ऊंचाई वाले इलाकों में वर्षा की माप सटीक नहीं हो पाती, पर यह स्पष्ट है कि हिमखंड और वर्षा दोनों ने मिलकर यह तबाही मचाई।
अब सवाल यह है कि हम इससे क्या सीखते हैं? पहली बात यह है कि अब हिमालय की ऊंचाइयों पर स्थित हिमखंड झीलों में बदल रहे हैं। वैज्ञानिक कई वर्षों से इस बारे में चेतावनी दे रहे हैं। इसलिए जिन क्षेत्रों में तलहटी में बसाहट है, हमें ऊपरी इलाकों में स्थित हिमखंडों का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करना होगा कि वे झील में तो नहीं बदल रहे और भविष्य में खतरा तो नहीं बन सकते।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने नदियों, गाड़-गधेरों के प्राकृतिक प्रवाह को रोक दिया है और विज्ञान की समझ का उपयोग किए बिना उनके चारों ओर अनियंत्रित बसाहटें खड़ी कर दी हैं। इसका परिणाम अब सामने आ रहा है- पानी ने हमें लील लिया।
तीसरी बात यह है कि अब समय आ गया है जब उत्तराखंड ही नहीं, पूरे देश को अपने ढांचागत विकास की नीतियों पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। हम भूकम्प संभावित क्षेत्रों में रहते हैं और फ्लैश-फ्लड जैसी आपदाएं भी बढ़ती जा रही हैं। इन सबसे हमारा बुनियादी ढांचा ही सबसे पहले प्रभावित होता है, इसलिए हमें अपनी इंफ्रास्ट्रक्चर नीति पर गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा।
साथ ही हमें सेटलमेंट मैपिंग यानी बसाहट के नक्शों का अध्ययन भी करना होगा। पिछले 200 वर्षों में हमारे रहन-सहन, स्थान और आबादी में बहुत बदलाव आया है। जब ये बस्तियां हिमाचल, उत्तराखंड या अन्य हिमालयी क्षेत्रों में बसी थीं, तब इन आपदाओं की कोई कल्पना नहीं की गई थी।
लेकिन अब जब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं, तो हमें भी अपनी नीतियों को बदलती जलवायु और पारिस्थितिकी के अनुरूप ढालना होगा। अगर हमने अभी भी चेतना नहीं ली, तो जान-माल की हानि को रोकना लगभग असंभव होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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