Friday 15/ 08/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – Office freedom hidden in vision and the ‘Sholay’ of success | एन. रघुरामन का कॉलम: विजन में छिपी ऑफिस की आजादी और सफलता के ‘शोले’

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48 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

उस 16 वर्षीय अभिनेता का, इतनी बड़ी फिल्म के सेट पर पहला दिन था। उसका पहला सीन यह था कि उसकी लाश घोड़े की पीठ पर लादकर गांव में लाई जाएगी। फिल्म डायरेक्टर ने एक्शन कहा और घोड़े पर कोई दूसरी लाश आई। हां, वह बॉडी डबल था। लड़का उदास हो गया।

उसके बॉस यानी डायरेक्टर ने कहा, ‘ऐसे शॉट बॉडी डबल करते हैं, तुम तो एक्टर हो।’ इन शब्दों से उसका उत्साह बढ़ा। फिर आया असल सीन, जिसमें उसकी जरूरत थी। अब बॉडी डबल की जगह घोड़े पर उसे लिटाया गया। उसे अब खुद अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र उठाने वाले थे।

इससे पहले कि डायरेक्टर रमेश सिप्पी एक्शन कहते, लड़के के कानों में सख्त आवाज आई, ‘सचिन, शरीर जरा ढीला रखना, इससे तुम्हें उठाने में आसानी होगी।’ तब उस लड़के यानी अभिनेता सचिन पिलगांवकर को एहसास हुआ कि वे सांस रोककर, अकड़कर लेटे थे और उनके चारों ओर संजीव कुमार, हेमा मालिनी और जया भादुड़ी जैसे महान कलाकार थे। तब पहली बार उन्हें समझ आया कि कहानी के मुताबिक मरने का भी अभिनय करना पड़ता है। आगे चलकर सचिन ने दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीते।

आप समझ गए होंगे कि मैं फिल्म ‘शोले’ की बात कर रहा हूं, जो 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई थी और इसे आज 50 साल पूरे हुए हैं। अपने नाम की ही तरह इसकी सफलता ‘शोले’ की तरह भारत में फैल गई। बतौर कॉलेज स्टूडेंट मेरी भी इच्छा थी कि मैं बॉम्बे (अब मुंबई) के मशहूर मराठा मंदिर सिनेमा हॉल में, 70 एमएम की स्क्रीन पर शोले देखूं।

मैं वहां 10 रुपए लेकर पहुंचा, जो मैंने फिल्म के लिए ही अलग से रखे थे। तब टिकट 9 रुपए था। फिल्म हाउसफुल थी और मुझे वापस लौटना पड़ा। मैं अंधेरी में रहने वाले अपने अंकल के घर जाने के लिए, बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन की ओर निकल पड़ा। तभी एक आदमी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, ‘मेरे पास ‘शोले’ का टिकट है, 50 रुपए में दूंगा।’

मैं दुविधा में पड़ गया क्योंकि मेरी दूसरी जेब में 50 रुपए थे, जो मुंबई में मेरा अगले 6 दिन का खर्चा था। इसमें उच्च शिक्षा के लिए एक इंटरव्यू में जाना भी शामिल था। ब्लैक में टिकट बेच रहे उस आदमी ने जोर देकर कहा, ‘जल्दी बोलो। इस फिल्म को देखना स्वर्ग जाने जैसा है।

नहीं चाहिए तो मैं किसी और को दे देता हूं।’ मेरा मिडिल क्लास मन कह रहा था, ‘ऐसा मत कर, ये देखकर फिर कुछ नहीं देख पाएगा।’ लेकिन दिल कह रहा था, ‘बॉम्बे आकर ‘शोले’ नहीं देखी, तो क्या देखा?’ मैंने मन की सुनी और वहां से चला गया।

घर पहुंचकर सारी बात अंकल को बताई। उन्होंने सराहना करते हुए कहा, ‘मुझे तुम पर गर्व है। करियर और जीवनशैली के विकल्पों में से चुनना हो तो हमेशा करियर चुनना।’ यह बात अब भी कानों में गूंजती है। मैं युवाओं को भी सही विकल्प चुनने की सलाह देता हूं।

तीन दिन बाद मेरे चाचा ने मुझे ‘शोले’ का टिकट उपहार में दिया, वह भी मराठा मंदिर का। उन्होंने अपने नेटवर्क की मदद से इसे हासिल किया था, किसी टिकट ब्लैक करने वाले से नहीं। सचिन के लिए, रमेश सिप्पी (78) और मेरे लिए मेरे अंकल (86), हमारे गुरु हैं। उन्होंने दो चीजें सिखाईं : अपने काम में अपना सर्वश्रेष्ठ दें और समर्पित रहें। साथ ही, अपने बॉस या सीनियर्स की बात जरूर सुनें।

फंडा यह है कि अगर कार्यस्थल में बेहतरीन प्रदर्शन करना है, तो कंपनी या फिर मालिक के विजन को आगे बढ़ाने की कला सीखें। इसमें महारत हासिल करने के लिए दो गुण जरूरी हैं – अपना 100 प्रतिशत देना और समर्पण का भाव।

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