Tuesday 26/ 08/ 2025 

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Minhaj Merchant’s column – Indian-Americans living in the US should show their strength | मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम: यूएस में बसे भारतवंशियों को अपनी ताकत दिखानी चाहिए

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3 घंटे पहले

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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक - Dainik Bhaskar

मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक

अमेरिका में बसे भारतवंशी वहां का सबसे धनी जनसांख्यिकीय समूह हैं। उनकी 1,55,000 डॉलर की औसत वार्षिक घरेलू आय चीनी, कोरियाई और यहूदी जातीय समूहों से भी अधिक है। और इसके बावजूद अमेरिकी नीति पर उनका प्रभाव नगण्य मालूम होता है।

इसकी तुलना में अमेरिकी-इजराइल लोक लेखा समिति (एआईपीएसी) अमेरिका का निर्विवाद रूप से सबसे शक्तिशाली लॉबीइंग-ग्रुप है। अमेरिका में 70 लाख यहूदी हैं, जबकि 50 लाख भारतवंशी हैं। लेकिन मध्य-पूर्व सहित अन्य क्षेत्रों में अमेरिकी नीतियों पर यहूदियों की बेहद मजबूत पकड़ है।

सीनेट और प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक, दोनों के ही सांसदों को एआईपीएसी से जमकर डोनेशन मिलता है। जो बाइडेन भी इसे स्वीकारते थे। वे खुद को ‘ऑनरेरी जायोनिस्ट ज्यू’ तक कहते थे। 1970 के दशक की शुरुआत में राजनीति में आने के बाद से ही बाइडेन को अपने चुनाव अभियानों के लिए एआईपीएसी से डोनेशन मिलता रहा है।

60 प्रतिशत से ज्यादा अमेरिकी सीनेटरों और प्रतिनिधि सभा के सदस्यों को एआईपीएसी के धन से सीधे लाभ हुआ है। यही कारण है कि इजराइल के प्रति अमेरिकी नीति अनेक दशकों से अडिग रही है, चाहे व्हाइट हाउस में किसी भी विचारधारा का नेता बैठा हो।

28 अगस्त की सुबह से अमेरिका में भारतीय आयात पर 50% टैरिफ लागू होने वाले हैं, ऐसे में अमेरिकी नीति पर भारतीय प्रभाव की कमी पहले कभी इतनी तीव्रता से महसूस नहीं की गई थी। यह इस तथ्य के बावजूद है कि अमेरिका की कुछ सबसे प्रतिष्ठित कम्पनियों के प्रमुख भारतवंशी हैं- गूगल और माइक्रोसॉफ्ट से लेकर आईबीएम और एडोबी तक।

वे प्रतिनिधि सभा में भी पैठ बना रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज अपेक्षाकृत दबी हुई है। ट्रम्प द्वारा भारतीय छात्रों के सोशल मीडिया अकाउंट्स की जांच करने की धमकी ने अमेरिका में पढ़ रहे 3,30,000 भारतवंशियों को चुप करा दिया है। कई लोगों को निर्वासन का डर है।

एक तरफ जहां ट्रम्प के ‘मागा’ समर्थक भारतीय तकनीकी कर्मचारियों- खासकर एच-1बी वीसा-धारकों- पर अमेरिकी नौकरियां छीनने का आरोप लगाते हैं, वहीं सच्चाई यह है कि अमेरिका एआई के जटिल कार्यों को संभालने के लिए पर्याप्त सॉफ्टवेयर इंजीनियर तैयार नहीं कर रहा है और इसमें भारतीय निपुण हैं।

बड़ी संख्या में भारतीय छात्र अमेरिका के शैक्षिक इको-सिस्टम में महत्वपूर्ण धनराशि का निवेश करते हैं। अनुमान के अनुसार, भारत के छात्रों का अमेरिकी अर्थव्यवस्था में योगदान 16.50 अरब डॉलर (1,45,000 करोड़ रु.) है।

लेकिन क्या ये आंकड़े कभी अमेरिकी मीडिया में बताए जाते हैं? भारतीय राजनयिक भी इन पर चुप रहते हैं। भारत के तकनीकी सीईओ अपने काम से ही मतलब रखते हैं। भारत के विदेश मंत्रालय को अमेरिका में भारतीय राजनयिकों को भारतवंशियों के ऐसे योगदानों के बारे में जानकारी देनी चाहिए। लेकिन कम्युनिकेशन लंबे समय से भारत की कमजोरी रही है।

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी भारत का नैरेटिव अमेरिका के छोटे लेकिन मुखर पाकिस्तानी-प्रवासियों के दुष्प्रचार की बाढ़ में दब गया था। आने वाले दिनों और हफ्तों में, जब शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) समिट के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के बाद हम अपने भू-राजनीतिक एजेंडे को नए सिरे से तय करेंगे, तो हमें अपनी क्षेत्रीय और वैश्विक प्राथमिकताओं को तेजी और सटीकता से बताना होगा। ध्यान रहे इस समिट में पाकिस्तान और तुर्किये के नेता भी उपस्थित होंगे।

हालांकि चीन में पुतिन की मौजूदगी मोदी को वॉशिंगटन के साथ तनाव के मद्देनजर भारत-रूस संबंधों की समीक्षा करने का अवसर प्रदान करेगी। भारत ने ट्रम्प की बात को चुनौती देते हुए घोषणा की है कि नई दिल्ली रूसी तेल खरीदना जारी रखेगी। जैसा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा, हम रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार नहीं, चीन है।

हम एलएनजी के सबसे बड़े खरीदार नहीं, यूरोपीय संघ है। हमें विश्व ऊर्जा बाजार को स्थिर करने के लिए हरसम्भव प्रयास करने हैं, जिनमें रूस से तेल खरीदना भी शामिल है। लेकिन हम तो अमेरिका से भी तेल खरीदते हैं, और इसकी मात्रा लगातार बढ़ी है।

बहरहाल, मोदी को एससीओ शिखर सम्मेलन में चीन के हस्तक्षेप से सावधान रहना होगा। बीजिंग वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच तनाव पर कड़ी नजर रख रहा है। लेकिन वह कोई ऐसा साझेदार नहीं है, जिस पर भरोसा किया जा सके। ऐसे में मोदी को एससीओ समिट में दृढ़ता और कुशलता के मिश्रण से आगे बढ़ना होगा।

अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को यहूदियों की तरह ताकत दिखानी होगी। अब चुप रहना कोई विकल्प नहीं है। हम यूएस अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान देते हैं, लेकिन कम्युनिकेशन की कमी के चलते अपना दमखम नहीं दिखा पाते। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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