Barkha Dutt’s column – For how long will marriage be the primary goal for girls? | बरखा दत्त का कॉलम: लड़कियों के लिए शादी ही प्राथमिक लक्ष्य कब तक?

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7 घंटे पहले
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बरखा दत्त फाउंडिंग एडिटर, मोजो स्टोरी
क्यों माता-पिता अपनी बेटियों को अपमानजनक, एब्यूसिव और दु:खभरे वैवाहिक जीवन में लौट जाने के लिए मजबूर करते हैं? क्यों यह जिद है कि लड़कियां शादी करें और फिर हर कीमत पर उसे बनाए भी रखें? कम से कम जो माता-पिता सम्पन्न हैं, वो भी क्यों बेटियों की खुशी खरीदने के लिए कार, नकदी और सोना देने को तैयार हो जाते हैं?
हम महिलाओं के लिए शादी को प्राथमिक लक्ष्य बनाना कब छोड़ेंगे? ऐसी संस्कृति में पली-बढ़ी लड़कियों के साथ हमेशा हिंसा और दुर्व्यवहार की आशंका अधिक होती हैं, जिसमें बेहतर नौकरी के बजाय अच्छा लड़का मिलने को अधिक प्राथमिकता दी जाती है।
ग्रेटर नोएडा में रहने वाली 28 साल की मेकअप आर्टिस्ट और कंटेंट क्रिएटर निक्की भाटी की दु:खद मृत्यु के मामले में भी हम सभी ने यह सब देखा है। लेकिन इस और इस जैसे हादसों के बावजूद क्या हम वो सवाल कर रहे हैं, जो हमें करने चाहिए?
कोई महिला यदि अपमानजनक रिश्ते को तोड़ना चाहे तो उसके समर्थन में परिवार की कोई भूमिका होनी चाहिए या नहीं? क्या हम तलाक को सामाजिक तौर पर कलंक जैसा मानते रहेंगे, भले ही हमारी बेटियों की जान जाती रहे? या अगर वे मरें नहीं तो पूरा जीवन दु:ख में काटें।
क्या आपको पता है कि निक्की भाटी छह माह पहले अपने पति विपिन भाटी द्वारा मारपीट किए जाने के बाद मायके लौट गई थीं। लेकिन उन्हें फिर से पति के साथ रहने का फरमान सुना दिया गया। आज उनकी मां कहती हैं कि उन्होंने बड़ी गलती कर दी।
उनकी बहन कंचन कहती हैं कि यदि निक्की को शादी तोड़ने दी गई होती तो आज वे जिंदा होतीं। लेकिन एक महिला के माता-पिता का दोष तो लेन-देन की संस्कृति से ही शुरू हो जाता है। अकसर तो धूमधाम से होने वाले भारतीय विवाहों का विचार ही वधू पक्ष से की जाने वाली मांगों के लिए सम्मानजनक सामाजिक आवरण बन जाता है।
बामुश्किल गुजारा करने वाले लोग भी बेटियों की शादी के लिए कर्ज लेते हैं। दहेज के लिए बिचौलिए लेन-देन का जरिया बनते हैं। निक्की भाटी के माता-पिता ने भी एक स्कॉर्पियो, सोना और नकदी दी थी। फिर भी कथित रूप से उनसे और अधिक मांगा जा रहा था।
भारतीय कानून के तहत दहेज लेना और देना, दोनों ही अपराध हैं। दुर्व्यवहार के चलते अपने बच्चों को खोने वाले माता-पिता का दर्द मैं समझती हूं। लेकिन परिवारों को भी सोचना होगा कि ऐसा क्या है, जो उन्हें अपनी बेटियों को वैवाहिक हिंसा से बचाने से रोकता है।
अगर उनके लिए समाज में स्वीकार्यता की जरूरत बच्चे की बेहतरी से अधिक बड़ी है, तो वे भी अपराधी हैं। समाज और उसका नजरिया कब और कैसे बदलेगा, इस पर चर्चा जारी रह सकती है। लेकिन कानून इसका इंतजार नहीं कर सकता। कानून को अब अपना काम करना पड़ेगा।
दहेज हिंसा को लेकर महज निक्की भाटी का मामला ही इधर सुर्खियों में नहीं रहा। मैंने अभी अपनी पढ़ाई ही पूरी कर रहे छात्र मयंक से बात की। वे रोजाना अपनी बहन सोनाली के लिए खून जुटाने की ऑनलाइन कोशिश कर रहे हैं। बहन दिल्ली के गंगा राम अस्पताल में अपनी जिंदगी की जंग लड़ रही हैं।
उनके हाथों पर जलाए जाने के निशान हैं। परिवार का कहना है कि उसके पति और ससुराल वालों ने कोल्ड ड्रिंक में जहर मिलाकर उसे मारने की कोशिश की। गर्म चिमटे से उसकी खाल जलाई गई। फिर से वही कहानी, दहेज दिया गया था, लेकिन और मांगा गया। सोनाली आईपीएस अधिकारी बनना चाहती थी। लेकिन माता-पिता ने उनके सपनों पर पैसा खर्च नहीं किया। यदि आज सोनाली पुलिस अधिकारी होतीं तो जिंदगी और मौत की लड़ाई नहीं लड़ रही होतीं।
बेशक, आर्थिक तौर पर सक्षम महिलाओं के साथ भी घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार होता है। पढ़ी-लिखी महिलाएं भी इन रिश्तों को तोड़ने में हिचकती हैं, क्योंकि हम सभी एक संस्था के तौर पर विवाह की प्रधानता में भरोसा करते हैं। यदि विवाह सम्मानजनक, बराबरी का दर्जे वाला और खुशहाल है, तो यह बहुत अच्छा है। लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो क्या हम अपनी बेटियों को मौत की सजा देने जा रहे हैं? या जीवन भर का दु:ख?
क्या तलाक और घरेलू हिंसा के बारे में बात करना इतना कलंकित करने वाला है कि हाल के एक सर्वे में 31% महिलाओं ने कहा कि उन्होंने घरेलू हिंसा झेली है। यदि हम सिर्फ दर्ज शिकायतों पर भी जाएं तो हर दिन 18 महिलाओं की मौत दहेज हिंसा से होती है। इनमें से ज्यादातर की खबरें भी सामने नहीं आतीं। ऐसे में क्या हमारा खून नहीं खौलना चाहिए?
अगर विवाह सम्मानजनक और खुशहाल है, तो अच्छा। लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो क्या हम बेटियों को मौत की सजा देने जा रहे हैं? या जीवन भर का दु:ख? क्या तलाक के बारे में बात करना इतना कलंकित करने वाला है? (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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