N. Raghuraman’s column – When fatigue turns into happiness, we will feel that sacrifice is the fragrance of success | एन. रघुरामन का कॉलम: थकान जब खुशी बन जाए तो हमें लगेगा कि बलिदान सफलता में महक रहा है

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8 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
27 जुलाई की रात को बारिश हो रही थी। आठ लोगों का परिवार उसी सुबह उस घर में आया था और उनके दिमाग में बड़ा डर चल रहा था। छत टपकने लगी। बुजुर्गों ने कीड़े-मकोड़ों और सांपों को दूर रखने के लिए भूसा जलाया।
एक सदस्य तेजी से उस कोने की ओर दौड़ा, जहां बर्तन रखे थे- ताकि एक बर्तन को टपकती छत के नीचे रखा जा सके। पक्के मकान से इस झोपड़ी में आने की एकाएक असुविधा से अनजान एक शिशु दादी की फटी-पुरानी साड़ी से बने झूले में सो रहा था।
समीप के नगर पालिका स्कूल का निर्माण पूरा होने तक वह बच्चा अब अगले दो साल तक उसी झोपड़ी में बड़ा होगा। यदि स्थानीय निकाय ने निर्माण में देरी की तो उस परिवार को तीसरे साल की बारिश भी झेलनी पड़ेगी। अचरज में हैं कि स्कूल निर्माण का इस झोपड़ी से क्या लेना-देना? तो यह कहानी सुनें।
दो दिन पहले, 25 जुलाई को ही इस परिवार को जीवन का बड़ा सदमा लगा। तब बारिश हो रही थी और बादलों की गड़गड़ाहट डरा रही थी। अचानक राजस्थान में झालावाड़ जिले के पिलोदी स्थित एकमात्र प्राथमिक स्कूल की कंक्रीट से बनी छत ढह गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना तब हुई जब बच्चे सोच रहे थे कि वे अच्छी तरह सुरक्षित हैं।
सात बच्चों की मौत हो गई और 21 घायल हुए। हमने अखबारों में इसके बारे में पढ़ा था। इलाके में रहने वाले 60 वर्षीय खेतिहर मजदूर मोर सिंह, जो कभी भी स्कूल नहीं गए- इस घटना से गहरे प्रभावित हुए। अपनी पांच दशक की छोटी-मोटी मजदूरी से उन्होंने जो एकमात्र सम्पत्ति बनाई, वह दो छोटे कमरों वाला एक पक्का मकान था।
उनके दिमाग में बस एक ही बात चल रही थी कि बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहना चाहिए। इसीलिए उन्होंने बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपना घर शिक्षा विभाग को दे दिया। जैसे ही मोर सिंह और उनका परिवार झोपड़ी में आया, कुछ बेंच उनके घर पहुंचाई गईं। और धीरे-धीरे विद्यार्थी भी आने लग गए।
हाल ही यह खबर मुझे गुरुवार को तब याद आई, जब कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग कर रही 21 वर्षीय सेजल पाटिल और उसके माता-पिता मुझसे मिलने आए। माता-पिता महाराष्ट्र के औरंगाबाद से थे। वहां वे एक मराठी माध्यम स्कूल चलाते हैं, जिसे मौजूदा प्राचार्य शालिंद्र पाटिल के पिता स्वर्गीय प्रो. राजेंद्र सिंह सुभान सिंह पाटिल ने 1996 में शुरू किया था।
चूंकि इस परिवार का संबंध पूर्व राष्ट्रपति से है, इसलिए स्कूल का नाम प्रतिभा ताई पाटिल प्राथमिक स्कूल रखा गया था। वास्तव में तो कोविड से ठीक पहले मुझे औरंगाबाद में हमारे मराठी भाषा के अखबार दिव्य भास्कर की ओर से उन्हें सम्मानित करने का अवसर मिला था।
सेजल पुणे के कमिंस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में अकेले रहकर स्नातक की पढ़ाई कर रही थीं। कोविड के दौरान सेजल ने 10वीं कक्षा पास की थी और उसने इस भयानक बीमारी को अपने दादाजी की जान लेते देखा था।
इसने सेजल को गहरा सदमा पहुंचाया, क्योंकि वह अपने दादा की पहली पोती थी, इस कारण उनकी लाड़ली थी। बाद में उसे उच्च शिक्षा के लिए पुणे भेजा गया। अकेलापन उसे खाए जा रहा था और एक मेधावी बच्ची होने के बावजूद वह अपने प्रतिशत को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही थी। इसलिए उसके माता-पिता चाहते थे कि मैं उसकी काउंसलिंग करूं।
मैंने झालावाड़ की कहानी सेजल को बताई और कहा कि जब आप सफल लोगों को देखते हो तो पाते हो कि उन्होंने अपने जीवन में कुछ गंभीर बलिदान दिए हैं। चाहे खाली समय, सामाजिक जीवन या फिर आराम हो, उन्हें सफलता के लिए किसी ना किसी चीज का त्याग करना पड़ा।
घर के आराम में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी सोशल मीडिया टाइम, मौज-मस्ती वाली आउटिंग और लेट नाइट मूवी छोड़ते हैं। ऊंचाई पर पहुंचने की मंशा रखने वाले एथलीट गरिष्ठ भोजन त्यागते हैं। यहां तक कि तुम्हारी तरह हॉस्टल में रहने वाले विद्यार्थियों को बहादुरी के साथ अकेलेपन का सामना करना पड़ता है। मेरे दिए गए 210 मिनट ने उसे मजबूत बनाया।
फंडा यह है कि बलिदान का स्तर अकसर यह तय करता है कि सफलता का स्तर क्या होगा।
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