Sunday 14/ 09/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – Gen-Z’s supper-clubs are no different from our Navratris! | एन. रघुरामन का कॉलम: जेन-ज़ी के सपर-क्लब हमारी नवरात्र से अलग नहीं हैं!

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1 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

गोवा और असम से दो-दो, ऑस्ट्रेलिया के पर्थ और दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन से तीन-तीन, सैन फ्रांसिस्को से दो अमेरिकी, उत्तरी लंदन से दो अंग्रेज, एक दुबई निवासी और मैं अकेला मुंबईकर था, जो उस वीकेंड एक खास तौर पर तैयार किए गए होटल के रेस्तरां में गए थे।

उस सुबह तक हम दोस्त नहीं थे। पर बाद में हम सबने अपने-अपने ड्रिंक्स लिए और बोट रेस के बाद टेबल पर बैठ गए, जिसमें हमारी बांहों में जलन होने लगी थी, शरीर के कई हिस्से भीग गए थे, लेकिन हमारा उत्साह बुलंद था। वो क्या चीज थी, जों हमें उस मेज पर साथ ले आई थी? दो घंटे से ज्यादा समय तक एक ही नाव में होना।

जी हां, चीन में इसे ड्रैगन बोट रेस कहते हैं और भारत में, खासकर केरल में, इसे स्नेक बोट रेस कहते हैं। ऐसी प्रतिस्पर्धाओं में किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या काम करते हैं, क्या पद है, और कितनी बार यात्रा करते हैं। उनमें सबका ध्यान इस पर होता है कि पानी में तेजी से आगे बढ़ने के लिए हाथ से चप्पू कैसे चलाया जाए।

अपनी प्राकृतिक सुंदरता के बावजूद, केरल में दोस्त बनाना आसान नहीं होता। यह ऐसा प्रांत है, जिसमें अगर आपको स्थानीय भाषा नहीं आती तो वह आपको अलग-थलग कर सकता है। लेकिन उस दिन हम सब दो घंटे से भी कम समय में दोस्त बन गए, क्योंकि हम जानते थे कि उनमें से किसी एक का नुकसान हम सबका निजी नुकसान होगा, इसलिए हमने एक-दूसरे की दिल से मदद की।

उस दिन हम सबसे उम्रदराज क्रू में शामिल थे। हमारे दल में 24 वर्ष के दुबई निवासी सबसे कम उम्र के प्रतिभागी और 69 वर्ष के अंग्रेज सबसे उम्रदराज थे। बोट डेक पर, जब आयोजक दूसरे प्रतिभागियों की मदद कर रहे थे, तब उम्रदराज अंग्रेज ने कमान संभाली। वे सिर्फ मजबूत बाजुओं वाले रग्बी खिलाड़ी ही नहीं थे, बल्कि नौकायन के सबसे बेहतरीन विशेषज्ञों में से एक थे।

नौकायन शुरू होते ही उन्होंने हमें तुरंत सिखा दिया कि हमें क्या करना है। इसी वजह से हम उस दिन जीत गए। जीत के बाद हम विजय भोज के लिए गए, आपस में दोस्त बने, एक वॉट्सएप ग्रुप बनाया और डिनर के बाद हमने अपनी कहानियां साझा कीं।

हमने एक-दूसरे को बताया कि हम आजीविका के लिए क्या करते हैं। उनमें से कुछ बहुत अमीर थे और कुछ ने अपने जीवन को संवारना शुरू ही किया था। लेकिन वह वॉट्सएप ग्रुप आज भी मेरे मोबाइल फोन में सबसे ज्यादा सक्रिय है।

मुझे यह तीन साल पुराना अनुभव तब याद आ गया, जब मैंने एक कहानी पढ़ी जिसमें बताया गया था कि जेन-ज़ी (1997-2012 के बीच पैदा हुए युवा) को सपर क्लब क्यों पसंद हैं और इनका चलन क्यों बढ़ रहा है? कोविड और उसमें हुए आइसोलेशन के बाद अब लोग व्यक्तिगत रूप से जुड़ने के लिए ज्यादा उत्साहित हैं।

ज्यादातर सपर क्लब महानगरों में बन रहे हैं, जहां पढ़ाई या काम के लिए अलग-अलग शहरों से आए लोग रहते हैं। इनमें ऐसे सपर क्लब मेजबान होते हैं, जिन्हें बेहतर संभावनाओं के लिए बड़े शहरों में अपना घर छोड़ आए लोगों को लाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसलिए सपर क्लब उनके लिए नए शहर में नए लोगों से मिलने का शानदार तरीका बन जाते हैं।

सपर क्लब के अनुभव में कुछ ऐसा होता है, जो रेस्तरां में कभी नहीं हो सकता और वो है- अंतरंगता। इसमें कहानियां सुनाना, कम्युनिटी की भावना, एक मूड और टेबल पर एक साझा अनुभव होता है, जो व्यक्तिगत जुड़ाव को बढ़ावा देता है और उस अनुभव को मूल्यवान बनाता है।

हमारे समाज में आस्था से जुड़े कई सामाजिक उत्सव होते हैं- जैसे त्योहार, कथा-प्रवचन, मेले- जिनमें हम यही चीज किया करते थे- कहानियां सुनाना, सामुदायिक भावना विकसित करना और एक साझा अनुभव को अर्जित करना। नई पीढ़ी को लगता है कि यह मिलने-जुलने का पुराना तरीका है, इसलिए अब हाथ में वाइन या ड्रिंक लेकर सपर क्लबों का जन्म हुआ है।

फंडा यह है कि चाहे सपर क्लब हों या सदियों पुराना नवरात्र उत्सव, नए दोस्त बनाएं जिनके साथ आपका साझा अनुभव जीवन में रंग भर दे।

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