Sunday 05/ 10/ 2025 

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Priyadarshan’s column: The game of finding and eliminating ideological enemies | प्रियदर्शन का कॉलम: वैचारिक शत्रुओं को खोजकर उन्हें खत्म करने का खेल

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8 घंटे पहले

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प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार - Dainik Bhaskar

प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार

क्रांतियों के बारे में कहते हैं कि वे अपने ही बच्चों को खा जाती हैं। क्या यही बात उन वैचारिक आंदोलनों के लिए भी कही जा सकती है, जिनके लक्ष्य तो बहुत मानवीय होते हैं, लेकिन अंततः जिनके तौर-तरीके- जिन्हें गांधी साध्य और साधन के द्वंद्व की तरह देखते थे- उनके ही विरुद्ध चले जाते हैं?

अनुभव बताता है कि सिर्फ नैतिक रूप से ही नहीं, राजनैतिक और रणनीतिक तौर पर भी ऐसे अतिरेकों को नष्ट करने की प्रविधियां आसान हो जाती हैं। पिछले दिनों अमेरिका में घोर दक्षिणपंथी, ट्रम्प समर्थक, बंदूकें बेचने और रखने के पक्षधर, अश्वेतों, विषमलिंगी प्रवृत्ति वाले लोगों के विरुद्ध लगातार विषवमन करने वाले चार्ली कर्क की हत्या के बाद ट्रम्प को अपने विरोधियों को खत्म करने का ऐसा ही अवसर दिख रहा है।

वे ‘एंटीफा’ नामक आंदोलन को आतंकी संगठन घोषित करवाने की कोशिश में हैं। एंटीफा एंटी-फाासिज्म विचारकों और समूहों का एक मंच है, जिसका कोई सांगठनिक आकार और आधार नहीं है। एंटीफा तीस के दशक में जर्मनी में पैदा हुआ था।

हिटलर के दौर में इसने पाबंदियां भी झेलीं, बाद में वह अमेरिका में सक्रिय रहा और जिन्हें हम प्रगतिशील मूल्यों के तौर पर पहचानते हैं, उनका समर्थक रहा। उसके तौर-तरीके मूलतः अहिंसक हैं- जनांदोलन, सभाएं, भाषण, प्रचार, लेख आदि- लेकिन उसके कुछ समूहों को हिंसा से भी परहेज नहीं रहा है।

दिलचस्प यह है कि यह दूसरी बार है, जब ट्रम्प ने एंटीफा पर पाबंदी की बात की है। इसके पहले जब 2020 में 20 डॉलर के नकली नोट से कुछ खरीदने की कोशिश करने के आरोप में पकड़े गए अश्वेत अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लायड की गर्दन को घुटनों से दबाकर एक पुलिसवाले ने मार डाला था और इसके विरोध में अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन उबल पड़ा था, तब भी ट्रम्प ने इसके लिए एंटीफा को जिम्मेदार ठहराया था।

चार्ली कर्क की हत्या में एंटीफा के हाथ का जिक्र दूरदराज से भी अब तक नहीं आया है, न ही किसी आतंकी वारदात में उसके शामिल होने की कोई बात सामने आई है, लेकिन अपने एक करीबी मित्र की हत्या का प्रतिशोध अगर ट्रम्प को लेना है तो उन्हें सबसे मुफीद यही लगता है कि यह उनसे लिया जाए, जो विचारों के लिहाज से उनके शत्रु हैं।

दरअसल राजनीतिक सत्ताओं का यह जाना-पहचाना खेल है- अपने वैचारिक शत्रु खोजना, उनके अपराध तय करना और फिर उन्हें खत्म करने की युक्तियां निकालना। जॉर्ज फ्लायड के मारे जाने से पहले अमेरिकी लेखक पॉल बीटी के उपन्यास ‘सेल आउट’ में अश्वेतों के साथ हो रही नाइंसाफी का- उनको लगभग सरोकार और चिंता से बाहर करने का, उनकी पहचान मिटा देने का- जो खेल चलता रहा है, उसका बहुत दिलचस्प वर्णन है।

उपन्यास में नायक के पिता की मौत पुलिस वाले के हाथों लगभग उसी तरह होती है, जिस तरह उपन्यास छपने के चार साल बाद फ्लायड को मारा गया था। तो हमें अपने आसपास की बहुत जानी-पहचानी सच्चाइयों को, भेदभाव को, नस्लवाद को, रंगवाद को, साम्प्रदायिकता को- नजरअंदाज करने का आदी बनाया जाता है और इस काम के लिए एक पूरा प्रचार तंत्र खड़ा किया जाता है।

सलमान रूश्दी के उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ की एक किरदार अमीना कभी जामा मस्जिद के इलाके में जाती है और वहां सड़क के दोनों ओर बैठे गरीबों, विकलांगों को देख सिहर जाती है। रूश्दी लिखते हैं- अचानक अमीना ने अपनी ‘शहरी आंखें’ खो दीं।

हम सब तरह-तरह की आंखें लगाकर बैठे हुए हैं और जब कोई हादसा होता है तो छिटककर ये आंखें अलग हो जाती हैं। कुछ पल के लिए हम सच्चाई देख लेते हैं। लेकिन सुविधा कहें या डर, फिर वही आंखें लगा लेते हैं और दुनिया को उसी चश्मे से देखने लगते हैं, जिसे समाज के वर्चस्वशाली तबकों ने विकसित किया होता है।

अपने करीबी मित्र की हत्या का प्रतिशोध अगर ट्रम्प को लेना है तो उन्हें सबसे मुफीद यही लगता है कि यह उनके वैचारिक शत्रुओं से लिया जाए। वैसे शत्रु खोजकर उन्हें खत्म करने की युक्तियां निकालना सत्ता का पुराना खेल है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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