Sunday 05/ 10/ 2025 

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Prof. Chetan Singh Solanki’s column – The real test of education is in our everyday lives | प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम: शिक्षा की असली परीक्षा हमारे रोजमर्रा के जीवन में ही होती है

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10 घंटे पहले

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प्रो. चेतन सिंह सोलंकी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

प्रो. चेतन सिंह सोलंकी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर

हमारी धरती के संसाधनों को घटाकर, नष्ट या प्रदूषित किए बिना जीना ही सस्टेनेबल जीवन है। और हमारी आधुनिक जीवनशैली इसके बिलकुल विपरीत है। हमारा जीवन जलवायु को निगेटिव रूप में प्रभावित कर रहा है। पंजाब में बाढ़, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटनाएं हमें याद हैं। जलवायु परिवर्तन में तेजी के संकेत चारों ओर हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग इसके प्रभाव को महसूस भी कर रहे हैं, फिर भी बहुत कम लोग वास्तव में कोई कदम उठा रहे हैं- यहां तक कि वे भी नहीं जिन्हें हम शिक्षित कहते हैं।

क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें इस सीमित ग्रह पर जीवनयापन करने की कला सिखा रही है? क्या वास्तव में हमारी शिक्षा पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों को बेहतर बनाने में हमारी मदद कर रही है? मैं पिछले पांच वर्षों से जलवायु परिवर्तन और इससे निपटने के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए ऊर्जा स्वराज यात्रा के साथ पूरे देश में जा रहा हूं।

हाल के कुछ महीनों में, मैं आईआईटी बॉम्बे में रहा हूं। मैंने परिसर में जो देखा, उससे चिंतित हुअा। प्रोफेसर और छात्र, दोनों ही बिजली की बर्बादी करते हैं, जरूरत न होने पर भी लाइट और एसी चलाते हैं, डिस्पोजेबल कप हर आयोजन का हिस्सा होते हैं और सिंगल-यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हैं।

आप कह सकते हैं, यह तो हर जगह होता है। लेकिन यहां विडंबना गहरी है। आईआईटी बॉम्बे में पर्यावरण विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग, ऊर्जा विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग, हरित ऊर्जा और सस्टेनेबिलिटी केंद्र और एक जलवायु प्रकोष्ठ भी है। अगर सस्टेनेबिलिटी के लिए समर्पित इतने विभागों और संसाधनों वाला संस्थान दैनिक जीवन में बुनियादी जिम्मेदारी का पालन नहीं कर सकता, तो ऐसी शिक्षा का मूल्य क्या है?

उदाहरण के लिए बिजली को ही लें। बिजली का उत्पादन और खपत, पर्यावरण की दृष्टि से बहुत नुकसानदायक काम है, क्योंकि भारत की 70% से ज्यादा बिजली अभी भी कोयले से बनती है। यह बिजली बहुत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करती है।

आईआईटी बॉम्बे का सालाना बिजली का बिल करोड़ों रुपए का है, और इसका बड़ा हिस्सा बर्बाद होता है। छात्रावासों, विभागों और गेस्टहाउसों में जरूरत न होने पर भी लाइटें जलती रहती हैं। एसी आम हैं, और नई इमारतों को इस तरह डिजाइन किया जा रहा है कि वे अनिवार्य हो गए हैं।

यह सिर्फ आईआईटी बॉम्बे की बात नहीं है। जब मैं देश भर में घूमता हूं तो सभी आईआईटी से लेकर आईआईएम, एनआईटी और अन्य विश्वविद्यालयों तक मुझे यही सब दिखाई देता है। मुझे लगता है कि आज की शिक्षा स्मार्ट इंजीनियर, कुशल प्रबंधक और प्रतिभाशाली शोधकर्ता तो पैदा कर रही है, लेकिन जिम्मेदार इंसान नही।

हम अपने जीवन में छोटे-से, सरल-से सत्य का पालन नहीं कर रहे हैं। हमारा विज्ञान, तकनीक और अर्थव्यवस्था चाहे जितनी तरक्की कर ले, परंतु हमारे ग्रह और उसके संसाधनों का आकार नहीं बढ़ सकता है; वे सीमित हैं। एक सीमित ग्रह पर, आज की शिक्षा का मॉडल न केवल अधूरा है- बल्कि हानिकारक भी है। हम लोगों को ज्यादा कमाने और उपभोग के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं, पर उन्हें यह नहीं सिखा पा रहे हैं कि हमें कब रुकना है।

शिक्षा सिर्फ जानकारी, डिग्री या प्लेसमेंट के बारे में नहीं होनी चाहिए। इसे चरित्र को भी आकार देना चाहिए। अगर भारत के प्रमुख संस्थान अपने परिसरों में पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी से जीना नहीं सिखा सकते, तो हम आम आदमी से ऐसे व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

सार्थक शिक्षा पर हमारा चिंतन जारी रहना चाहिए। सस्टेनेबिलिटी को सिर्फ पाठ्यपुस्तकों, शोध पत्रिकाओं या नीतिगत दस्तावेजों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। इसे कक्षाओं, गलियारों, कैंटीनों और छात्रावासों में भी जगह बनानी होगी।

हमे इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के साथ-साथ रोजमर्रा की जिंदगी जीना भी सिखाना होगा और उसे जीना भी होगा। जब सस्टेनेबिलिटी सिखाई तो जाती है, लेकिन उसे जीया नहीं जाता, तो संदेश और शिक्षा दोनों खोखली लगती है। शिक्षा की असली परीक्षा किताबों या शोध पत्रों में नहीं, इसमें है कि हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी कैसे जीते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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