Sunday 05/ 10/ 2025 

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Navneet Gurjar’s column – From free sweets to Hamid’s tongs | नवनीत गुर्जर का कॉलम: मुफ्त की रेवड़ियों से हामिद के चिमटे तक

5 घंटे पहले

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नवनीत गुर्जर - Dainik Bhaskar

नवनीत गुर्जर

चुनाव कोई भी हो, आज-कल मुफ्त की रेवड़ियों, बेतहाशा चुनाव खर्च, अभद्र भाषा और भद्दे भाषणों पर आकर टिक गया है। निश्चित तौर पर इन मुफ्त की रेवड़ियों से चुनाव जीते भी जा रहे हैं। हो सकता है आगे भी जीते जाते रहें, लेकिन राज्यों के बजट पर इसका क्या असर होगा, कोई नेता चिंता नहीं करता।

प्रत्याशी चुनाव लड़ने के नाम पर जो करोड़ों रुपए का काला धन पानी की तरह बहाते हैं, आखिर उसका नुकसान तो आम आदमी को ही होता है। जब एक ही इलाके में अचानक करोड़ों रुपया बहाया जाएगा तो हर चीज महंगी होनी तय है!

जिस दिन आम आदमी को इन मुफ्त की रेवड़ियों, इस चुनाव खर्च का असल स्रोत पता लग गया और इसे उसने अच्छी तरह समझ लिया तो फिर नेताओं के ये फंडे धरे रह जाएंगे। जिस दिन जनता को गुस्सा आ गया, उस दिन किसी से कुछ नहीं सम्भलने वाला!

क्योंकि सामूहिक गुस्सा जंगल की आग की तरह होता है और जंगल में जब आग लगती है तो न तो वे बरगद बच पाते हैं, जो हवा को आंधी में बदलते हैं और न ही वे बांस बच पाते हैं, जो आपसी रगड़ से चिनगारी पैदा करते हैं। हालांकि भारत में वैसा नहीं हो सकता जैसा हाल ही में नेपाल में हुआ, लेकिन हारे हुए को जिताने और जीते हुए समूहों को हराने का करतब तो यहां भी हो ही सकता है।

चुनावी तरकीबों की बात की जाए तो प्रचार से लेकर जीत तक में हल्कापन आ चुका है। चुनावी सभाओं में गालियां दी जा रही हैं। चुनाव आयोग को न प्रत्याशी के असल खर्च का पता पड़ पाता और न ही उसके व्यवहार का। जीत इतनी छितरी हुई और हल्की हो चुकी है कि उसमें नैतिकता या वजन जैसा कुछ नहीं रह गया है।

साफ-सुथरे और ईमानदार चुनाव की दिशा में एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ा अच्छा सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि चुनाव में जीत प्रतिद्वंद्विता के आधार पर नहीं होनी चाहिए। जीते हुए प्रत्याशी के लिए कुल डाले गए वोटों के कम से कम 50 प्रतिशत वोट लाना अनिवार्य कर देने चाहिए।

यानी किसी विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में अगर 1 लाख वोट पड़े हों तो जीतने वाले प्रत्याशी को कम से कम 50 हजार या उससे ज्यादा वोट मिलने चाहिए। ऐसा करने से किसी एक क्षेत्र में प्रत्याशियों की संख्या भी बहुत कम हो जाएगी और कुछ हद तक ही सही, चुनाव खर्च पर भी अंकुश लग पाएगा। इस सुझाव के पीछे अटल जी का तर्क ये था कि अभी जो हो रहा है, अभी जो लोग जीत रहे हैं, सही मायने में तो वे हारे हुए हैं।

इसे ऐसे समझिए- मान लीजिए किसी विधानसभा क्षेत्र में तीन प्रत्याशी खड़े हुए हैं और वोट पड़े 1 लाख। दो प्रत्याशियों को 30-30 हजार वोट मिले और एक को चालीस हजार। निश्चित तौर पर 40 हजार वोट पाने वाला विजयी घोषित होगा। होना भी चाहिए क्योंकि नियम भी यही है। लेकिन सही मायने में इस जीते हुए प्रत्याशी के विरोध में 40 की तुलना में 60 हजार वोट पड़े हैं।

जिसके पक्ष से ज्यादा विपक्ष में वोट पड़े हों, वह विजयी कैसे हो सकता है? खैर, जीत-हार की इस राजनीति के चलते यह सुझाव कभी नहीं माना गया। नतीजा यह है कि विरोध के वोट को बांटने के लिए नोटों के दम पर बड़ी संख्या में प्रत्याशी मैदान में उतारे जाते हैं। वोटों का बंटवारा किया जाता है और चुनाव जीत लिए जाते हैं।

जहां तक चुनाव आयोग के प्रयासों का सवाल है, इस ओर किसी चुनाव सुधार या स्वच्छ, ईमानदार चुनाव की दिशा में आगे बढ़ने की उम्मीद करना लगभग बेमानी है। क्योंकि उसकी ऊर्जा हमेशा से कभी विपक्ष के सवालों के जवाब देने में तो कभी सत्ता पक्ष को सही ठहराने मे ही खर्च होती रही है। सरकार चाहे जिस भी दल की रही हो, एक टीएन शेषन का कार्यकाल छोड़ दिया जाए तो चुनाव आयोग हमेशा सुस्त ही रहा है।

वैसे चुनाव आयोग या राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को इस सब के लिए जिम्मेदार ठहराने से पहले हम आम लोगों को जागना होगा। पार्टियों, नेताओं के इरादों, मंतव्यों को समझने की हमारे शक्ति को जागृत करना होगा। चुनाव और चुनावी राजनीति को पटरी पर लाने के लिए इसके सिवाय न तो कोई रास्ता है और न ही आगे कोई रास्ता हो सकता।

आम आदमी नहीं जागा तो बाजारीकरण के इस दौर में हमारे हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा। बाजारीकरण से याद आया कि यह किस हद तक हावी हो चुका है, हमें खबर ही नहीं पड़ती। कवि और लेखक सम्पत सरल का कहना है कि मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ इसलिए पाठ्यक्रम से हटा दी जाती है कि कल को गांवों में मेले भरेंगे और हामिद अपनी दादी के लिए चिमटा मेले से खरीदेगा तो फिर मल्टीनेशनल कंपनियों के ब्रांडेड चिमटे ऑनलाइन कैसे बिक पाएंगे?

करोड़ों रुपया एक जगह बहेगा तो चीजें महंगी होंगी ही प्रत्याशी चुनाव लड़ने के नाम पर जो करोड़ों रुपए का काला धन पानी की तरह बहाते हैं, आखिर उसका नुकसान तो आम आदमी को ही होता है। जब एक ही इलाके में अचानक करोड़ों रुपया बहाया जाएगा तो हर चीज महंगी होनी तय है!

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