Sunday 05/ 10/ 2025 

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N. Raghuraman’s column – Before the rat race, children should learn to control their emotions by hiding like rats | एन. रघुरामन का कॉलम: बच्चे रैट रेस से पहले, चूहों की तरह छिपे इमोशन कंट्रोल करना सीखें

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1 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, ​​​​​​​मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, ​​​​​​​मैनेजमेंट गुरु

जैसे-जैसे शहर फैल रहे हैं और तापमान बढ़ रहा है, चूहे पहले से ज्यादा फल-फूल रहे हैं। घनी आबादियों में नगरपालिकाओं के ‘चूहों के खिलाफ युद्ध’ नाकाम साबित हुए हैं, क्योंकि उन्होंने कभी खाने की बर्बादी पर ध्यान नहीं दिया। उच्च कैलोरी वाले आहार चूहों को जमीन से ऊपर आसानी से और बार-बार खाना ढूंढने में मदद करते हैं।

इस हफ्ते छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक अच्छे होटल में मैंने एक ही रात में तीन बार कमरा बदला, क्योंकि वहां चूहे थे! भिलाई में मुझे लगभग 120 स्नातक (यूजी) और लगभग 45 स्नातकोत्तर (पीजी) छात्रों से मिलने बुलाया गया था, जो इसी महीने कॉलेजों में पहुंचे थे।

रूंगटा इंटरनेशनल स्किल्स यूनिवर्सिटी ने दिल्ली और इंदौर से कुछ प्रशिक्षकों को बुलाया है, जो इन बच्चों के साथ घुल-मिल सकते हैं और भावनाओं पर काबू पाने और अपने लक्ष्य तय करने में उनकी मदद कर सकते हैं। विश्वविद्यालय ने पूर्वानुमान लगाया था कि सहपाठियों से बातचीत से छात्रों में विभिन्न प्रकार की भावनाएं जाग सकती हैं- जैसे अंग्रेजी नहीं बोल पाने की चिंता, दूसरों की तरह ब्रांडेड कपड़े न खरीद पाने की हताशा या सभी आयु वर्ग के छात्रों में कोई साधारण-सा अंदेशा।

भावना पैरेंटिंग का प्रचलित शब्द बन गया है, लेकिन हममें से कई माता-पिता शायद ही जानते हैं इसका असली मतलब क्या है और हम अपने कॉलेज जाने वाले बच्चों में- खासकर स्कूल से स्नातक स्तर की पढ़ाई के दौरान- इसका समर्थन कैसे कर सकते हैं। भावनात्मक विनियमन रचनात्मक तरीकों से अपनी भावनाओं को प्रबंधित करने की क्षमता है। यह भावनाओं को नजरअंदाज नहीं, उन्हें पहचानने और उनसे तंग आए हुए बिना उनसे निपटने के बारे में है। यह जूते के फीते बांधना या साइकिल चलाना सीखने जैसा ही है।

मैंने देखा है कि कुछ बच्चे कोई सवाल सुनते ही रो पड़ते हैं- जैसे कि अपने पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता कैसा है? ज​बकि कुछ अपने हॉस्टल में रूममेट्स के साथ होने वाले झगड़े से बहुत मायूस होते हैं। कुछ लोग अपने दु:खों को दबाने और उन्हें अपने अंदर ही जज्ब करने में माहिर हो जाते हैं, लेकिन यह उनके चेहरे पर दिख जाता है। इन भावनात्मक असंतुलनों को उनके मूड, अनमनेपन और जोखिम भरे व्यवहार से आसानी से पहचाना जा सकता है। हम सभी पैरेंट्स मानते हैं कि ये उतार-चढ़ाव बड़े होने का सामान्य हिस्सा हैं।

लेकिन याद रखें कि हमने इस पर काबू पा लिया था, क्योंकि हम पर अपने गांव से बाहर किसी नए शहर में जाकर न सिर्फ नौकरी करने, बल्कि परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए कोई पार्ट-टाइम नौकरी करने का भी दबाव था। पहले हमने अपनी भावनाओं को दबाया और फिर वे खुद ही काम के बोझ तले दब गईं। दुर्भाग्य से हमने सोचा कि इस तरह से हमने अपनी नकारात्मक भावनाओं पर विजय पा ली है।

मैं मानता हूं कि परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत करके पैसे कमाने के दबाव ने नकारात्मक भावनाओं पर विचार करने का हमें कभी मौका ही नहीं दिया था, पर ऐसा नहीं है।लेकिन आज बड़े विश्वविद्यालयों में जाने वाले और सालों तक हॉस्टल में रहने वाले बच्चों के साथ ऐसा नहीं है। उनके लिए ये भावनाएं हॉस्टल के कमरे से बाहर निकलते समय या दोस्ती निभाते समय लगातार बाधाएं डालती हैं।

यही वह समय है जब उन्हें कुछ अतिरिक्त सहारे की जरूरत होती है। और सहारे का मतलब ये नहीं है कि उन्हें हर बात का जवाब चाहिए। हमें बस उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के दौरान स्थिरता प्रदान करने की जरूरत है। उनके व्यवहार को अवज्ञाकारी न समझें। वे खुद को व्यक्त करना नहीं जानते। बच्चे हमें देखकर भावनाओं को नियंत्रित करना सीखते हैं।

जब आप झल्लाहट में हों, तो गहरी सांस लें और कहें, मुझे शांत होने के लिए थोड़ा समय चाहिए। आपा खोने के लिए माफी मांग लें। तुरंत ही उनकी भावनाओं को नियंत्रित करना शुरू न कर दें। उनकी भावनाओं को महसूस करें। उन्हें गले लगाएं और उनसे कहें कि मैं समझता हूं जो हुआ वह बुरा था। फिर पांच मिनट तक शांत रहें।

फंडा यह है कि याद रखें आज हमारे बच्चे हमें मुश्किल में नहीं डाल रहे हैं, वे खुद एक मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। उन्हें आदर्श माता-पिता की जरूरत नहीं है। वे बस आपमें ऐसे वास्तविक लोगों को देखना चाहते हैं, जो अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर पाते हों। अन्यथा चूहों की तरह उनकी भावनाएं भी हमारे व्यवहार पर पलने लगेंगी।

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