Shekhar Gupta’s column – What is going on between America and Pakistan? | शेखर गुप्ता का कॉलम: अमेरिका और पाक के बीच क्या चल रहा है?

- Hindi News
- Opinion
- Shekhar Gupta’s Column What Is Going On Between America And Pakistan?
7 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

शेखर गुप्ता एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
बीच में ट्रम्प, उनके एक तरफ शाहबाज शरीफ और दूसरी तरफ आसिम मुनीर- यह तस्वीर भारत में हम लोगों के लिए भू-राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण छवि है। इसमें कई बातें हैं। एक तो यह कि भारत-अमेरिका रिश्ते के मुकाबले पाकिस्तान-अमेरिका रिश्ता ज्यादा पुराना और औपचारिक रूप से ज्यादा मजबूत रहा है। एबटाबाद में लादेन को ढूंढ निकालने और उसकी हत्या के बाद पाकिस्तान के प्रति अमेरिका का जज्बा भले ठंडा पड़ गया हो लेकिन दोनों में संबंध बना रहा।
अमेरिका ने पाकिस्तान को कभी अपने गैर-नाटो दोस्त देशों की सूची से हटाया नहीं। और भारत कभी इस सूची में दर्ज नहीं हो सका। चाहे अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भी बने, वह भारत के आकार, हैसियत, आर्थिक वृद्धि की रफ्तार, स्थिरता के कारण उसे अहमियत देता रहेगा। लेकिन फिलहाल जो तस्वीर है, वह इस उपमहादेश के मामले में अमेरिका की सोच की वास्तव में पुरानी सामान्य स्थिति की ओर वापसी दर्शाती है।
2016 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग कर देना चाहिए। आज, इस इरादे को टाल दिया गया है।ज्यादा दिन नहीं हुए जब पाकिस्तान का एक सेनाध्यक्ष अपने प्रधानमंत्री के साथ व्हाइट हाउस पहुंचा था। यह बात जुलाई 2019 की है, जब जनरल कमर जावेद बाजवा इमरान खान के साथ वहां गए थे।
लेकिन उस समय साफ दिख रहा था कि प्रधानमंत्री आगे थे और सेनाध्यक्ष उनके पीछे बैठे थे। आज, ऐसा हो ही नहीं सकता कि पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री किसी सरकारी दौरे पर विदेश गए हों और उनके फील्ड मार्शल उनके बराबर में साथ न बैठे हों। यह हमने तियानजिन में देखा, रियाद और दोहा में भी देखा।
पाकिस्तान को तीतर या बटेर में से एक को चुनना होता है कि वह फौज की हुकूमत चाहता है या चुनी हुई सरकार की। 1993 में, बहुमत में होने के बाद भी सत्ता से हटाए जाने के बाद रावलपिंडी से लाहौर लौटते हुए शरीफ ने कहा था कि थोड़ा यह भी, थोड़ा वह भी नहीं चलेगा। लेकिन आज, व्हाइट हाउस में त्रिमूर्ति की तस्वीर तीन बातें कहती हैं।
पहली : पाकिस्तान में ‘सिस्टम’ यह है कि नियंत्रण फौज का रहेगा और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री होगा जिसे वह ‘निर्वाचित’ करवाएगी। पहले, फौजी तानाशाहों ने ‘तयशुदा नतीजे’ वाले चुनावों में पार्टी-विहीन सरकार बनाने के प्रयोग किए। जिया और जुनेजो, मुशर्रफ और शौकत अजीज को याद कीजिए। अय्यूब और याह्या ने भी भुट्टो को अपने गैर-फौजी मुखौटे की तरह रखा।
दूसरी : नवाज शरीफ साहसी तो थे मगर उनकी यह उम्मीद नेकनीयती भरा मुगालता था कि कई प्रयोगों के बाद एक दिन ऐसा आएगा, जब जम्हूरियत पाकिस्तान में भी उसी तरह कायम हो जाएगी, जैसे भारत में हुई है। वे भारत के साथ सामान्य रिश्ते की बहाली को इसकी कुंजी मानते थे। आज वे अपनी जिंदगी के सबसे दुखद दौर से गुजर रहे हैं और लाहौर के पास रायविंड में महलनुमा घर में अपने नाकाम सपने का गम मना रहे हैं। उनके भाई आज प्रधानमंत्री हैं और बेटी उस पंजाब सूबे की मुख्यमंत्री हैं, जहां पाकिस्तान की 60 फीसदी आबादी रहती है। यह सब उनमें हताशा और अकेलापन का वैसा ही भाव भरता होगा, जैसा तख्ता पलटने के बाद रंगून में पड़े बहादुर शाह जफर के मन में भर रहा था।
तीसरी : पाकिस्तान क्या सोचता है इसे समझने के लिए आप खुद से यह सवाल कीजिए कि वह अपने नेताओं को क्यों चुनाव जिताता रहा है (कभी-कभी बड़े बहुमत के साथ), और फिर फौजी जनरल जब उन्हें गद्दी से उतार देते हैं तब उसे कबूल क्यों कर लेता है, बल्कि इसका स्वागत क्यों करता है? यह मुल्क, इसकी विचारधारा, अपने वजूद के बारे में इसकी समझ, और राष्ट्रीय गौरव की इसकी भावना फौजी तानाशाही को कबूल करने के लिए ही बनी है।
पाकिस्तान के लोग जिन्हें जिताते हैं, उन नेताओं के अधीन खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करते। उनके सबसे चहेते नेता भी जब जेल में बंद किए जाते हैं, तब भी वे घरों में बैठे रहते हैं। हमने देखा है कि वहां फौज किस तरह अलोकप्रिय होती रही है लेकिन फिर नाटकीय रूप से वापसी भी करती रही है। वह एक साधारण-सा नुस्खा अपनाती रही है।
भारत के साथ युद्ध जैसे हालात बना दो, फिर लोग यही कहेंगे कि उनकी रक्षा फौज के सिवाय और कौन कर सकता है। जैसा 26/11, और अब पहलगाम के साथ हुआ है। ऐसे हर मोड़ पर फौज की साख गर्त में रही है। भारत से खतरे की थोड़ी-सी भी आशंका पुरानी स्थिति या ‘न्यू नॉर्मल’ नहीं, बल्कि शाश्वत वास्तविकता को बहाल करती है।
इसके बाद यह भी नोट कीजिए कि पाकिस्तान में चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने वाले लगभग हर नेता ने भारत के साथ सुलह की एक कोशिश जरूर की। और ठीक इसी वजह से ऐसी हर सरकार को बरखास्त किया गया, देशनिकाला दिया गया, या जेल में डाल दिया गया। और एक नेता की तो दोबारा चुनाव जीतने की उम्मीद के कारण हत्या कर दी गई। बात मुनीर, मुशर्रफ, जिया या अय्यूब की नहीं है। एक संस्थान के तौर पर इस फौज को भारत के साथ अमन गवारा नहीं हो सकता। वह युद्ध नहीं जीत सकती, लेकिन जनता में असुरक्षा का स्थायी डर उसे सत्ता में तो रख ही सकता है।
- अमेरिका सभी को जिस ‘निर्भर देश’ वाले रूप में देखना चाहता है, वैसा भारत कभी बन नहीं सकता। लेकिन पाक उसके लिए ऐसा ही देश रहा है। दोनों देश एबटाबाद के बाद सामान्य स्थिति बहाल करने में कामयाब हुए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Source link