Wednesday 08/ 10/ 2025 

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Priyadarshan’s column – It’s up to us to choose from cricket’s past | प्रियदर्शन का कॉलम: यह हम पर है कि क्रिकेट के अतीत से हमें क्या चुनना है

8 घंटे पहले

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प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार - Dainik Bhaskar

प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार

एशिया कप टूर्नामेंट में भारत और पाकिस्तान के बीच जो तल्ख माहौल दिखा, उसने क्रिकेट की गरिमा तो कम की ही, क्रिकेट की एशियाई अस्मिता को भी क्षतिग्रस्त किया। कम लोगों को याद होगा कि एशियाई क्रिकेट काउंसिल किन हालात में बनी थी।

1983 के क्रिकेट विश्व कप के फाइनल में जब भारतीय टीम पहुंची तो उन दिनों बीसीसीआई के अध्यक्ष रहे एनकेपी साल्वे ने एमसीसी यानी इंग्लैंड के क्रिकेट बोर्ड से दो अतिरिक्त पास देने का अनुरोध किया। लेकिन एमसीसी का अहंकार इतना बड़ा था कि उसने ये पास देने से इनकार कर दिया। तभी साल्वे ने तय किया कि वे विश्व कप को इंग्लैंड से बाहर ले आएंगे। उसके पहले जो भी विश्व कप हुए थे, वे इंग्लैंड में हुए थे।

लेकिन यह काम अकेले बीसीसीआई के बूते का नहीं था। तब साल्वे ने पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के सदर नूर खान और श्रीलंका क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष जेमिनी दिशानायके से सम्पर्क किया और इन तीन देशों ने मिलकर 1984 में एशियाई क्रिकेट काउंसिल की स्थापना की। यह विश्व क्रिकेट में एशियाई अस्मिता के उद्घोष की शुरुआत थी। इसके बाद 1987 का विश्व कप भारत और पाकिस्तान ने साझा तौर पर कराया।

साझेदारी यहीं खत्म नहीं हुई। इंग्लैंड 1996 का विश्व कप कराने का दावेदार था, लेकिन भारत-पाकिस्तान और श्रीलंका ने मिलकर यह दावेदारी छीन ली। इस विश्व कप के दौरान एक घटना घटी, जिससे पता चलता है कि तब तक एशियाई क्रिकेट की एकता कितनी मजबूत थी।

विश्व कप के पांच लीग मैच श्रीलंका में होने थे। लेकिन तभी वहां एक बड़ा आतंकी धमाका हुआ, जिसके बाद ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज ने श्रीलंका का दौरा करने से इनकार कर दिया। इसकी भरपाई के लिए भारत-पाकिस्तान की साझा टीम ने श्रीलंका के खिलाफ एक अनौपचारिक मैच खेला। उस टीम की कप्तानी अजहरुद्दीन ने की थी। उस मैच में वसीम अकरम की गेंद पर रमेश कालूवितर्णा आउट हुए थे, जिनका कैच सचिन तेंदुलकर ने पकड़ा था।

इस प्रसंग को याद दिलाने का मकसद बस यह है कि एक ऐसा भी दौर था, जब विश्व क्रिकेट में एशियाई क्रिकेट का परचम अलग से फहर रहा था। 1983, 1991 और 1996 के विश्व कप भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका ने जीते थे। 1987 के विश्व कप के भी सबसे बड़े दावेदार भारत-पाकिस्तान थे, लेकिन दोनों फाइनल तक नहीं पहुंच सके।

आज निस्संदेह भारत क्रिकेट का पावरहाउस है, लेकिन एशिया कप की समाप्ति के बाद बने माहौल ने इस पावर हाउस की धवलता कुछ कम कर दी है- क्रिकेट का स्वाभाविक रोमांच तो घटाया ही है। दरअसल क्रिकेट के नाम पर बाजार और राजनीति मिलकर जो उफान पैदा करते हैं, वह वास्तविक क्रिकेटरों के बीच वैसा नहीं होता जैसा पेश किया जाता है। इसके दो उदाहरण और हैं।

सचिन तेंदुलकर ने एक बार वकार यूनुस को एक बल्ला दिया और कहा कि ठीक ऐसा बल्ला वे सियालकोट से बनवा दें। वकार ने वह बल्ला शाहिद आफरीदी को दे दिया। आफरीदी ने उसी से 36 गेंदों में शतक जड़ ऐसा विश्व रिकॉर्ड बनाया, जो तब तक अविश्वसनीय लगता था।

एक कहानी गावसकर की भी है। उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि यह इमरान हैं, जिनकी वजह से उनके टेस्ट क्रिकेट में 10,000 रन पूरे हुए। 1986 में इंग्लैंड दौरे के बाद गावसकर संन्यास लेने का मन बना चुके थे। यह बात इमरान को पता चली तो उन्होंने गावसकर से कहा कि अगले साल पाकिस्तान के साथ होने वाली सीरीज तक रुक जाएं।

गावसकर ने बात मानी। उसके पहले दो सीरीज और होनी थी, इसलिए पाकिस्तान का दौरा आते-आते गावसकर ने दस हजार रनों का शिखर छू लिया। तो क्रिकेट का अतीत हर तरह की मिसाल से भरा हुआ है। सवाल यह है कि हम उनके बीच चुनना क्या चाहते हैं। फिलहाल हम सबने टकराव चुन रखा है।

कम ही लोगों को याद होगा कि एशियाई क्रिकेट काउंसिल किन हालात में बनी थी। भारत, पाक, श्रीलंका ने मिलकर 1984 में इस काउंसिल की स्थापना की थी। यह क्रिकेट में एशियाई अस्मिता के उद्घोष की शुरुआत थी। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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