Ashutosh Varshney’s column: American society does not accept dictatorship | आशुतोष वार्ष्णेय का कॉलम: अमेरिकी समाज तानाशाही को स्वीकार नहीं करता है

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2 घंटे पहले
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आशुतोष वार्ष्णेय ब्राउन यूनिवर्सिटी, अमेरिका में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर
लोकतंत्र पर शोध करने वाले विद्वानों में एक आम सहमति यह बनी है कि ट्रम्प के राज में अमेरिका में ‘लोकतंत्र का क्षरण’ हो रहा है। लेकिन क्या यह प्रक्रिया कुछ अलग है? क्या ऐसा तो नहीं कि अमेरिका एक दक्षिणपंथी क्रांति के प्रारंभिक चरण से गुजर रहा है? तब पीछे फिसलने की प्रक्रिया और संभावित क्रांति की बनावट में भेद कैसे किया जा सकता है?
किताब ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाइ’ में स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल जिब्लाट्ट ने लिखा है : लोकतंत्र का क्षरण धीरे-धीरे, छोटे-छोटे कदमों में होता है। हर कदम छोटा लगता है, कोई भी ऐसा नहीं दिखता कि इससे लोकतंत्र को बड़ा खतरा होगा।
दरअसल, सरकार जो कदम लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने के लिए उठाती है, उन पर कानून का मुलम्मा चढ़ा होता है- संसद से मंजूरी होती है, सुप्रीम कोर्ट उसे संवैधानिक ठहराता है। ऐसे कई कदम किसी वैध या सराहनीय सार्वजनिक मकसद के नाम पर उठाए जाते हैं- जैसे भ्रष्टाचार से लड़ना, चुनावों को ‘स्वच्छ’ बनाना, लोकतंत्र को बेहतर करना या राष्ट्रीय सुरक्षा को कायम रखना।
दूसरे शब्दों में, यह फिसलन एक धीमी प्रक्रिया होती है, जो कई कारणों से जन्म लेती है। छोटी-छोटी कटौतियों के मिले-जुले असर से लोकतंत्र को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचता है और आखिर में ये इतना बड़ा हो जाता है कि लोकतंत्र खत्म होने की कगार पर पहुंच जाता है।
इसके अलावा, लोकतंत्र में कटौती करने वाले कुछ कदम कार्यपालिका के आदेश के रूप में होते हैं, कई को विधायिका या न्यायपालिका भी मंजूरी दे देती है। इस तरह उन्हें वैधता और प्रक्रिया का मुलम्मा मिल जाता है।
जिन संस्थाओं से उम्मीद होती है कि वे निष्पक्ष होकर कार्यपालिका पर अंकुश लगाएंगी- जैसे न्यायपालिका, खुफिया तंत्र, केंद्रीय बैंक या चुनाव आयोग- वे उल्टे कार्यपालिका की ताकत बढ़ाने लगती हैं। इन कदमों को अक्सर राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार या चुनाव प्रणाली की खामियों को दूर करने के नाम पर जायज ठहराया जाता है।
ट्रम्प के मामले में ये सब सिर्फ नौ महीने में हो गया है। अमेरिका की न्यायपालिका, डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस (डीओजे) और एफबीआई दशकों तक स्वतंत्र रूप से काम करते रहे, लेकिन अब उन्होंने खुलकर कह दिया है कि वे कार्यपालिका के एकपक्षीय अंग हैं और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ आंदोलन के लक्ष्यों को लागू करेंगे।
‘प्रोजेक्ट 25’ नामक दस्तावेज ने ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल के लिए दक्षिणपंथी घोषणापत्र की रूपरेखा दे दी है। विकास, विदेशी सहायता, आपदा राहत और जनकल्याण से जुड़े विभागों को छोटा या बंद कर दिया गया है, जबकि कानून लागू करने वाली एजेंसियों को बहुत ताकतवर बना दिया गया है। प्रवासियों से जुड़े कई मुद्दों को सुरक्षा के लिए खतरा बताया गया है और आईसीई एजेंसी के बजट को तीन गुना बढ़ा दिया है।
ट्रम्प ने डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन वाले शहरों में सेना तैनात कर दी, ये कहकर कि यह ‘आंतरिक दुश्मनों’ से लड़ने के लिए हैं। उन्होंने डीओजे और एफबीआई को निर्देश दिया कि वे इन ‘आंतरिक दुश्मनों’ को सजा दें। कुछ पूर्व अधिकारियों पर मुकदमे दायर हो चुके हैं, अगली बारी डेमोक्रेटिक नेताओं की बताई जा रही है।
सरकार की भूमिका, कानूनबद्ध शासन और सेना के कामकाज में जिस तेजी से बदलाव हो रहा है, वह किसी बड़ी राजनीतिक तोड़फोड़ या ‘क्रांति’ की ओर इशारा करता है। लोकतंत्र में विरोधी को प्रतिद्वंद्वी माना जाता है, दुश्मन नहीं- लेकिन ट्रम्प की राजनीति में विरोधियों को ‘आंतरिक शत्रु’ बताया जा रहा है।
ऐसा बदलाव सिर्फ सरकार के ढांचे तक सीमित नहीं होता है। वह संस्कृति, शिक्षा, मीडिया और परिवार तक समाज के हर हिस्से पर नियंत्रण चाहता है। ट्रम्प ने विश्वविद्यालयों, टीवी चैनलों, अखबारों, कानूनी फर्मों, एनजीओ और परोपकारी संस्थाओं को डराकर अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश की है।
यह एक वर्चस्ववादी एजेंडा है। इस तरह की कोशिशों के सामने अमेरिका में तीन बड़ी रुकावटें हैं। अमेरिका की करीब 36.5% आबादी ऐसे राज्यों में रहती है, जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है और डेमोक्रेट्स का बहुमत विधान मंडल में भी है।
शिक्षा, कानून-व्यवस्था और सिविल सोसायटी पर इन राज्यों का अच्छा नियंत्रण है। भले ही सुप्रीम कोर्ट को ट्रम्प समर्थक माना जाता हो, पर पूरी न्यायपालिका उनके आगे झुकेगी, इसकी गारंटी नहीं। कई जज कार्यपालिका के अतिवादी कदमों के खिलाफ खड़े हैं। साथ ही, अमेरिका में इतनी विविधता है और बोलने की आजादी, ‘फ्री स्पीच’ का विचार अमेरिकी मानस में इतने गहरे पैठा है कि वह किसी राजनीतिक एकरूपता को मंजूर नहीं करेगा।
लोकतंत्र का क्षरण छोटे-छोटे कदमों में होता है। ऐसा नहीं लगता कि इनसे लोकतंत्र को बड़ा खतरा होगा। दरअसल, सरकार जो कदम लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने के लिए उठाती है, उन पर कानून का मुलम्मा चढ़ा होता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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