संघ के 100 साल: RSS के पहले चार प्रचारकों की कहानी, हेडगेवार के ‘अक्षर शत्रु’ ने की थी अगुवाई – rss 100 years stories first four pracharak Dr hedgewar sarsanghchalak ntcppl

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा कोई दूसरा संगठन आज तक क्यों नहीं बन पाया? जितनी मजबूती से विस्तार इस संगठन ने किया है, कोशिश तो कइयों ने की, लेकिन वैसा क्यों नहीं हो पाया? इस सवाल का तीन शब्दों में जवाब है, ‘पूर्णकालिक प्रचारक व्यवस्था’. यानी घर छोड़ दो, समाज-परिवार छोड़ दो, संगठन जो काम कहे वो करने और जहां भेजे वहां जाने को आतुर रहो तथा सादगी भरा जीवन बिताओ. मन में राष्ट्रभक्ति का भाव हो और लक्ष्य पर नजर बनी रहे, ऐसे युवा तैयार करने के लिए ये व्यवस्था शुरू की गई थी. आज जानिए उन चार लोगों की कहानी, जो संघ के सबसे पहले प्रचारक थे.
ये चार प्रचारक थे बाबा साहब आप्टे, दादा राव परमार्थ, रामभाऊ जमगडे और गोपाल राव येरकुंटवार. 2 साल तक प्रशिक्षण के बाद 1929 में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने प्रचारक व्यवस्था को औपचारिक रूप देने की शुरूआत की. 1930 में जब डॉ हेडगेवार सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए जंगल सत्याग्रह में भाग लेने पहुंचे तो सरसंघचालक के पद से इस्तीफा दिया. डॉ परांजपे को नया सरसंघचालक बनाया गया. तब बाबा साहब आप्टे को डॉ हेडगेवार ने नागपुर और आसपास के क्षेत्रों में चल रही सभी शाखाओं का ध्यान रखने को कहा. हेडगेवार को पता था कि उन्हें जेल भी जाना पड़ सकता है. उन्हें बाबा साहब आप्टे की क्षमताओं पर पूरा भरोसा था और बाबा साहब ने उनके भरोसे को बरकरार भी रखा.
प्रथम प्रचारक माने जाते हैं बाबा साहब आप्टे
1931 में बाबा साहब आप्टे को डॉ हेडगेवार ने जेल से बाहर आने के बाद पूर्ण कालिक प्रचारक बनाने के लिए चुना. अब तक आप्टे कई जगह छोटी-मोटी नौकरियां कर रहे थे. साथ में संघ का काम भी कर रहे थे. उन्हें प्रिंटिंग प्रेस से लेकर इंश्योरेंस कंपनी तक में काम करने से गुरेज नहीं था. इसी दौरान उनसे उम्र में कुछ छोटे तीन और स्वयंसेवकों को ड़ॉ हेडगेवार ने पूणकालिक प्रचारक बनाने के लिए चुना. इस तरह इन चारों को संघ के पहली प्रचारक टोली के तौर पर जाना जाता है. ये सभी तीन वर्ष ओटीसी शिक्षित हो चुके थे. इनमें बाबा साहब आप्टे को प्रथम प्रचारक माना जाता है.
उमाकांत केशव आप्टे का जन्म यवतमाल के एक निर्धन परिवार में हुआ था. शुरू से ही वे पढ़ाई को लेकर काफी सजग रहते थे. इतिहास की वीर गाथाओं में उनकी विशेष रुचि थी. कोई भी किताब हाथ लग जाती तो उसे पूरा पढ़े बिना छोड़ते नहीं थे. तिलक को बहुत मानते थे. एक बार स्कूल में पता चला कि आज तिलक यवतमाल होकर ट्रेन से गुजरने वाले हैं. प्रधानाचार्य ने बच्चों को रोकने के लिए मुख्य द्वार को बंद करवा दिया, यहां तक कि उनकी पिटाई भी कर दी लेकिन छुट्टी होते ही आप्टे मित्रों के साथ निकल भागे. तब तक तिलक निकल चुके थे. उन्होंने अपने प्रधानाचार्य से कहा, मैं मन में ही तिलक जी के दर्शन कर चुका हूं. उनकी तिलक के प्रति श्रद्धा अध्यापक बनने के बाद भी जारी रही.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
वर्धा के धामणगांव के उस स्कूल में वह बच्चों को लगातार भारतीय समाज के नायकों की वीरगाथाएं सुनाते रहते थे. प्रबंधकों को ये अच्छा नहीं लगता था. एक दिन उन्होंने लोकमान्य तिलक की जयंती के मौके पर उनकी स्मृति में स्कूल में एक कार्यक्रम किया. प्रबंधकों को ये पसंद नहीं आया तो उनके ऐतराज के बाद गुस्से में उमाकांत ने नौकरी को लात मार दी. 1924 में वो नागपुर आ गए, फिर संघ के संपर्क में आए और अपनी ही तरह तिलक के पुराने समर्थक डॉ हेडगेवार से मिलकर संघ के स्वयंसेवक बन गए. डॉ हेडगेवार उनके पढ़ने की लगन देखकर उन्हें ‘अक्षर शत्रु’ बोलते थे.
संघ के पहले पूर्णकालिक प्रचारकों की दीक्षा के लिए एक छोटा सा कार्यक्रम नागपुर में रखा गया, जहां गिनती के प्रमुख स्वयंसेवक उपस्थित थे. उसी कार्यक्रम में डॉ हेडगेवार का छोटा सा सम्बोधन हुआ, जिसमें संगठन का संकल्प और प्रचारकों का जीवन साधुओं की तरह होना चाहिए, इसी पर उनका जोर था. उसके बाद उनके केन्द्र बताए गए कि उनको प्रचार के लिए किस शहर या प्रांत में जाना है. आप्टे को खानदेश भेजा गया, धुले और नंदूरबार की जिम्मेदारी उनको दी गई. दादा परमार्थ को पुणे की जिम्मेदारी दी गई, येरकुंटवार को सांगली भेजा गया तो जमगडे को यवतमाल भेजा गया.
उत्तरपूर्व में संघ के बीज बोने वाले पहले प्रचारक
दादाराव परमार्थ यानी गोविंद सीताराम परमार्थ नागपुर के रहने वाले थे. 10वीं की परीक्षा की उत्तरपुस्तिका में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. अध्यापकों ने उन्हें फेल कर दिया, सो वे पढ़ाई छोड़कर डॉ हेडगेवार के साथ जुड़ गए और स्वयंसेवक बन गए. 1930 के जंगल सत्याग्रह में डॉ हेडगेवार के साथ गए और जेल भी गए. बीमार पड़े तो जेल में डॉ हेडगेवार ने ही उनकी देखभाल की थी. उनके नाम एक और बड़ी उपलब्धि है. उत्तर पूर्व में संघ का कार्य विस्तार करने वाले वो पहले प्रचारक थे. 1946 में ही उनको असम भेज दिया गया था. जब 48 में संघ पर प्रतिबंध लगा तो दादाराव अरविंदो आश्रम पांडिचेरी में और ऋषिकेश में आध्यात्म साधना में लीन रहे. आध्यात्म की गोद में जाने के बाद उनके लौटने का ही मन नहीं था, बड़ी मुश्किल से अप्पाजी जोशी उन्हें समझाकर वापस लाए थे. उन्हें जो पूर्वी महाराष्ट्र का क्षेत्र मिला, उसमें यवतमाल को केन्द्र बनाकर लम्बे समय तक लक्ष्य में जुट रहे और संघ का पूरा जाल उस क्षेत्र में बिछा दिया.
भविष्य के बड़े प्रचारकों को जोड़ने वाले प्रचारक गोपाल राव येरकुंटवार
गोपाल राव येरकुंटवार ने उस दौर में जितने समर्पित प्रचारकों को तैयार किया, शायद ही किसी ने किया होगा. उनमें से एक थे भास्कर राव कलाम्बी, जिन्हें वनवासी कल्याण आश्रम के पीछे का ब्रेन माना जाता है. उन्हें संघ में गोपाल राव ही लेकर आए थे. पंजाब में शुरुआत में संघ पताका फहराने वाल मोरेश्वर राघव या मोरूभाई मुंजे को भी गोपाल राव लेकर आए थे. जब डॉ हेडगेवार ने इन चारों को प्रचारक कार्य के लिए नागपुर से विदाई दी, तो इसने गोपाल राव को आदर्श मानने वाले मोरेश्वर को भी प्रभावित किया था.
इन सभी प्रचारकों के नाम संघ के इतिहास में कई तरह की उपलब्धियां दर्ज हैं. केशव आप्टे ने तो 33 श्लोक का एक ‘भारतभक्ति श्रोत’ रच डाला था. उनका दशकों तक भारत के इतिहास के पुनर्लेखन पर काम चलता रहा. तभी संघ में एक और नए संगठन इतिहास संकलन समिति के बीज पड़े थे. आप्टे ने कभी अपने हाथ से लिखकर ‘दासबोध’ और टाइप करके वीर सावरकर की किताब ‘1857 स्वातंत्र्य समर’ अनेक नवयुवकों को उपलब्ध करवाई थी. कभी उनकी अध्ययनशीलता को देखकर डॉ हेडगेवार ने उन्हें नया नाम ‘बाबा साहब’ दिया था, बाद में वह गुरु गोलवलकर के भी करीबी हो गए थे, विभाजन के समय संघ का रुख तय करने में उनकी सलाह की भी काफी भूमिका रही.
पिछली कहानी: गुरु गोलवलकर की अगुवाई में संघ के ‘मिशन कश्मीर’ की मुकम्मल कहानी
—- समाप्त —-
Source link