Palki Sharma’s column – What does Trump want to achieve from India? | पलकी शर्मा का कॉलम: आखिर ट्रम्प भारत से क्या हासिल करना चाहते हैं?

7 घंटे पहले
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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost
लाख टके का सवाल है कि ट्रम्प भारत से चाहते क्या हैं? व्यापारिक सौदा? नोबेल की सिफारिश? राजकीय यात्रा? या महज अटेंशन? कोई नहीं जानता, शायद ट्रम्प भी नहीं। हाल में उनके दक्षिण कोरिया में दिए भाषण से यह साफ भी हो गया।
यह कूटनीति के छलावे में मिले-जुले संकेतों, विरोधाभासों और कोरी कल्पनाओं से भरी अदायगी थी। एक सीईओ समिट में बोलते हुए ट्रम्प हमेशा की तरह पटरी से उतर गए। कारोबार की बात करते-करते भू-राजनीति में भटक गए। उन्होंने भारत और पाकिस्तान को दो ऐसी एटमी ताकतें करार दिया, जो ‘एक-दूसरे पर टूट पड़ी’ थीं।
उन्होंने फिर दावा किया कि निजी तौर पर उन्होंने ही दखल देकर दोनों नेताओं को लड़ाई रोकने के लिए मनाया था, और वो भी मात्र दो दिनों में। आत्ममुग्धता से दमकते हुए ट्रम्प बोल उठे- क्या यह गजब नहीं? गड़बड़ इतनी ही है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था!
भारत ने साफ किया कि ट्रम्प और मोदी के बीच ऐसी कोई बात ही नहीं हुई। उस दौरान एकमात्र आधिकारिक सम्पर्क जेडी वेंस से हुआ, जिन्होंने चेताया था कि पाकिस्तान लड़ाई को तूल दे सकता है। मोदी का जवाब दृढ़ था- भारत इसके लिए तैयार है। यानी, ट्रम्प की कहानी कोरी कल्पना थी।
वे स्वयं को हीरो साबित करने के लिए ऐसे झूठ गढ़ते रहते हैं। असल सवाल यह नहीं है कि ट्रम्प अपने तथ्य लाते कहां से हैं। अब तक हम सब जान चुके हैं कि ट्रम्प की दुनिया में तथ्यों की कोई खास अहमियत नहीं है।
इससे बड़ा सवाल यह है कि वे अपनी कहानियों में बार-बार भारत को क्यों घसीट लाते हैं। क्यों वे भारत के फैसलों का श्रेय लेने की कोशिश करते हैं या ऐसे नेताओं से दोस्ती का ढोंग करते हैं, जिन्हें वे समझते तक नहीं? इसका जवाब भी ट्रम्प के नजरिए में छिपा है।
यह एक विभाजित, सौदेबाजी पर आधारित और बेहद असुरक्षित विश्व-दृष्टि है। उनके लिए हर रिश्ता एक सौदा, हर नेता एक ग्राहक और हर देश या तो उनका साझेदार या फिर समस्या है। ट्रम्प का फलस्फा बहुत सिम्पल है- या तो मेरी चापलूसी करो, मेरे पिछलग्गू बनो या मेरा सामना करने को तैयार हो जाओ।
कुछ जगहों पर उनकी यह नीति कारगर भी रही। जापान अमेरिकी चावल खरीदने को राजी हो गया। ईयू ने सैकड़ों अरब डॉलर के ऊर्जा आयात का वादा किया। कतर ने 240 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की। वियतनाम ने टैरिफ शून्य कर दिया।
इन सबने यह ट्रम्प-फॉर्मूला सीख लिया है कि खुशामद करो और डील पाओ। लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया। और यही कारण है कि अभी तक ट्रेड डील नहीं हो सकी है। ट्रम्प की महत्वाकांक्षाएं अब व्यापार से परे जा चुकी हैं। उन्हें अब शांतिदूत बनने का शौक चर्राया है- एक ऐसा नेता, जिसके एक कॉल पर युद्ध समाप्त हो जाएं।
भारत-पाक के बीच तनाव घटाने में उनकी कथित भूमिका के लिए पाकिस्तान ने तो उन्हें नोबेल तक के लिए नामित कर दिया। लेकिन भारत ने इस नौटंकी को नजरअंदाज किया। कारण, भारत शांति को आउटसोर्स नहीं करता। और न ही फरेब में दिलचस्पी लेता है।
और यही बात ट्रम्प को बेचैन करती है। वे समझ नहीं पाते कि भारत उनकी ‘हां या ना’ वाली दुनिया को क्यों नहीं स्वीकारता। ट्रम्प को आज्ञाकारी साझेदार चाहिए, बराबरी से बातें करने वाले नहीं। लेकिन भारत की विदेश नीति स्वायत्तता पर आधारित है।
भारत इसे ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ कहता है- बिना किसी के जाल में फंसे, सभी से अच्छे संबध रखना। इस नीति की जड़ें गहरी हैं। तकनीक और रक्षा में भारत अमेरिका से रिश्ते रखता है। रूस से तेल खरीदता है। यूरोप से व्यापारिक चर्चा और जापान से साझेदारी रखते हुए भी चीन और इराक से संवाद करता है।
यह तटस्थता नहीं, संतुलन है। इसे अनिर्णय नहीं, रणनीति कहते हैं। वास्तव में, भारत कभी भी खेमों में नहीं रहा है- न शीत युद्ध में और ना अब। उसकी रणनीतिक स्वायत्तता कोई नारा नहीं है, बल्कि एक सबक है- जो उसने औपनिवेशिकता के अनुभवों, पर-निर्भरता के इतिहास और अपनी किस्मत को दूसरों के हवाले कर देने के खतरों से सीखा है।
ट्रम्प को समझना होगा कि भारत धमकियों या नाटकीयता पर नहीं, बल्कि तर्क, सम्मान और निरंतरता पर प्रतिक्रिया देता है। लोकतांत्रिक देश इसी तरह से आपस में संवाद करते हैं। ट्रम्प के लिए हर रिश्ता एक सौदा, हर नेता एक ग्राहक और हर देश या तो उनका साझेदार या विरोधी है। ट्रम्प का फलस्फा है- या तो मेरी चापलूसी करो या मेरा सामना करने को तैयार हो जाओ। और भारत इससे दृढ़ता से इनकार करता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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