Shekhar Gupta’s column – If the vote bank remains intact then where has the change happened? | शेखर गुप्ता का कॉलम: वोटबैंक कायम हैं तो बदलाव कहां हुआ?

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47 मिनट पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
बिहार में एनडीए की जीत कितनी भी बड़ी क्यों न लग रही हो, पर पुराने जमे हुए वोट बैंक वहीं हैं। जैसे-जैसे मुकाबले आमने-सामने के होने लगते हैं- या तो दो पार्टियों के बीच या दो गठबंधनों के बीच- हार और जीत का फासला बस कुछ प्रतिशत वोटों का ही होता है।
जेडीयू को 2020 में 15.39% वोट मिले थे और इस बार यह बढ़कर लगभग 19.26% हो गए हैं। बीजेपी को भी बढ़त मिली है, लेकिन सिर्फ 1% के साथ यह लगभग 20.11% ही हुई है। दोनों ने इस बार कम सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन इसे मामूली बदलाव मान सकते हैं क्योंकि बाकी सीटें उनके सहयोगियों को दी गईं।
सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी, पासवान परिवार की एलजेपी ने इस बार सिर्फ 29 सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि 2020 में उसने 135 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उसका वोट प्रतिशत लगभग 5% के आसपास ही है। यह साफ है कि जिन सीटों पर एलजेपी ने उम्मीदवार नहीं उतारे, वहां उसका छोटा वोट बीजेपी या जेडीयू की तरफ गया होगा।
अब सिक्के का दूसरा पक्ष देखें। यादव परिवार की आरजेडी का वोट शेयर लगभग 23% पर स्थिर है और कांग्रेस का करीब 9% पर। साफ है कि इन दोनों गठबंधन पार्टियों का वोट शेयर कम नहीं हुआ। फर्क यह पड़ा कि एनडीए ने पासवान की एलजेपी और जीतन राम मांझी की एचएएम के साथ मजबूत गठबंधन बनाया, जिससे बीजेपी/जेडीयू के स्थिर वोट के ऊपर अतिरिक्त 5-8% की बढ़त मिली। यही बढ़त तय करती है कि परिणाम हार होगी या लैंडस्लाइड जीत। यही इस चुनाव का मुख्य संदेश है- विपक्ष आपका वोट बैंक नहीं छीन सकता। दूसरों को जोड़ने के लिए आपको गठबंधन बनाना होगा।
दूसरा, लेन-देन वाले वादे तब काम करते हैं, जब काफी संख्या में मतदाता उन्हें सच मानते हों। चुनाव से ठीक पहले और दौरान 1.4 करोड़ महिलाओं को दिए गए 10,000 रु. और आगे 2 लाख रु. देने का वादा- यह सब एक ऐसे राज्य में बहुत मायने रखता है, जहां प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 69,000 रु. है। ऊपर से, मतदाताओं को सबूत मिला कि यह सच में दिया भी गया है। लेन-देन वाले चुनाव में, जिसके पास सत्ता और चेकबुक हो, उसी के पास बढ़त होती है।
तीसरा, इसके बाद आता है मार्केटिंग का सबसे पुराना सच- सबसे बुरी तरह वही चीज फेल होती है, जो साफ झूठ या असंभव हो। यही था तेजस्वी यादव का वादा कि राज्य के 2.76 करोड़ परिवारों में से हर एक को सरकारी नौकरी दी जाएगी। यह एक ऐसे राज्य में- जहां मुश्किल से 20 लाख सरकारी कर्मचारी हैं- लोगों को हंसी और तिरस्कार दोनों का कारण लगा।
चौथा, मुस्लिम वोट का बाहर हो जाना चौंकाने वाली बात है। ओवैसी की थोड़ी सफलता दिखाती है कि मुसलमान भी अपने लंबे समय से चले आ रहे ‘सेक्युलर’ पार्टियों के समर्थन पर पछता रहे हैं। यह कि अगर सेक्युलर पार्टियां हमारे बीच से नेता नहीं खड़ी करेंगी, न हमें जिताएंगी, तो हम अपनी पार्टी को क्यों न वोट दें?
सेक्युलर पार्टियों, खासकर कांग्रेस की दुविधा हमेशा यही रही है कि हम चाहते हैं मुसलमान हमें वोट दें क्योंकि वो बीजेपी से डरते हैं, पर क्या हम खुले तौर पर मुसलमान नेताओं को आगे ला सकते हैं? ओवैसी या बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन कर सकते हैं? क्या इससे हिंदू नाराज नहीं होंगे? अब इस कपट का समय खत्म हो चुका है। मुस्लिम बहुल सीमांचल के नतीजे बताते हैं कि मुसलमान अब थक चुके हैं।
लोगों की याददाश्त लंबी होती है, जो पीढ़ियों तक चलती है। मध्य प्रदेश में लोग आज भी दिग्विजय सिंह के ‘गैर-विकास’ के खिलाफ वोट कर रहे हैं; ओडिशा में पटनायक के भ्रष्टाचार और अहंकार के खिलाफ और बिहार में लालू के ‘जंगल राज’ के खिलाफ। यह भी दिखाता है कि यादव और मुस्लिम मिलकर बाकी सभी- ऊंची जाति और दलित- को दबाते थे। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चोट दलित वोट का खोना है।
नीतीश की बिगड़ती सेहत के बावजूद उनका दौर जारी है। लोग उनके आभारी भी हैं, क्योंकि वे आज की बढ़ती अपराध की घटनाओं को भी जंगल राज नहीं मानते। साथ ही, 2011 से राज्य को 13% औसत सालाना वृद्धि दर देना कम उपलब्धि नहीं।
बिहार आज भी बहुत गरीब है, लेकिन नीतीश से पहले के दौर से कहीं बेहतर है। लालू के दौर में लोगों को स्थानीय सशक्तीकरण मिला था, जिसका असर है कि उनका गठबंधन अब भी करीब 40% वोट रखता है। पर कोई भी यह नहीं मानता था कि लालू के बेटे के नेतृत्व में विकास हो सकता है। नीतीश+मोदी का संयोजन एक शक्तिशाली विकास+भरोसे वाला पैकेज बन गया। तेजस्वी और राहुल इसकी बराबरी नहीं कर पाए। इसी ने उन 3-5% अनिर्णय वाले वोटर्स को खींच लिया।
‘घुसपैठियों’ जैसी शुरुआती बातों को छोड़ दें, तो यह अभियान काफी हद तक गैर-साम्प्रदायिक भी रहा। आप चाहें तो इसका श्रेय नीतीश की नैतिक छवि को दे सकते हैं। अच्छी बात यह है कि यह दिखाता है बिना ध्रुवीकरण के भी एक बड़ा हिंदी राज्य जीता जा सकता है। यह 2014 और 2015 के चुनावों से अलग रहा।
लेकिन अब कमजोर पक्ष के लिए नई चुनौती है- बिना नई कल्पना के कुछ नहीं होगा। वही पुराने मुद्दे- जाति न्याय, अल्पसंख्यक कल्याण, वोट चोरी के आरोप, अम्बानी-अदाणी अब असरदार नहीं। पीछे लौटकर देखें तो तेजस्वी, विपक्ष के नेता इन अभियानों से खुद दूर रहे। आरजेडी और कांग्रेस के बीच यही असली दूरी थी। बिहार में नेतृत्व की सीटें अब खाली हो रही हैं। इस पर सबसे ज्यादा नजर बीजेपी की होगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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