Ruchir Sharma’s column: The world is changing rulers, but the trend is the opposite in India. | रुचिर शर्मा का कॉलम: दुनिया सत्ताधीशों को बदल रही है, पर भारत में ट्रेंड उलटा

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3 घंटे पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर
विकसित लोकतंत्रों में दो दशक पहले तक सत्ताधारी ही अधिकतर जीतते थे, लेकिन अब 75% अवसरों पर सरकारें बदल जाती हैं। भारत में इसका उलटा हो रहा है : यहां सत्ताधारी 2000 के दशक से पहले ज्यादातर राज्यों में चुनाव हारते थे। लेकिन इस दशक में वे 55% बार जीते हैं और अगर कांग्रेस को छोड़ दें तो 73% बार।
यह तब ठीक होता, जब मतदाता अच्छे शासन के लिए नेताओं को पुरस्कृत करते। लेकिन हाल के नतीजे तो कुछ और ही इशारा करते हैं। कर्नाटक और तेलंगाना जैसे समृद्ध दक्षिणी राज्यों में सत्ताधारी दलों के हारने की संभावना अधिक है और बंगाल व बिहार जैसे पिछड़े इलाकों में जीतने की संभावना ज्यादा।
बिहार में एनडीए की जीत इसका ताजा उदाहरण है। यह कोई अच्छा संकेत नहीं है, खासकर एक ऐसे राज्य में जहां प्रगति की रफ्तार थमी हुई है और मुख्यमंत्री के पास आर्थिक विकास को गति देने के कोई नए विचार नहीं हैं। पिछले 30 वर्षों से मैं हर साल भारत के राष्ट्रीय और राज्य चुनावों को कवर करता रहा हूं।
यह बिहार की मेरी छठी यात्रा थी। मुझे लग रहा था कि लोग एक ऐसे मुख्यमंत्री के प्रति गहरी निराशा जताएंगे, जिन तक लोगों की सीधी पहुंच लगातार घटती जा रही है और राज्य में गरीबी का स्तर अफ्रीकी देशों के बराबर होता जा रहा है। लेकिन मैंने पाया कि आम मतदाता नीतीश द्वारा अतीत में किए कार्यों के लिए आभारी हैं। कई लोगों ने मुझसे कहा कि उनके बिगड़ते स्वास्थ्य के मद्देनजर उन्हें सत्ता से बेदखल कर देना अशिष्टता होगी।
2005 में नीतीश के सत्ता में आने से पहले, 13.5 करोड़ की आबादी वाला यह राज्य “सभ्यता के द्वारा भुला दिया गया स्थान’ और एक अराजकतापूर्ण “जंगल राज’ के रूप में जाना जाता था। अपने पहले कार्यकाल में नीतीश ने सड़कें और पुल बनवाईं। दूसरे में ग्रामीण इलाकों में बिजली पहुंचाई। लेकिन अपने पिछले दो कार्यकालों में वे राज्य को विकास की अगली सीढ़ी चढ़ाने और वहां नए उद्योग लगवाने में नाकाम रहे।
बिहार में लगभग 1,000 मील की अपनी यात्रा के दौरान हम इस राज्य में व्याप्त गरीबी की गहराई से स्तब्ध रह गए। राज्य का प्रमुख निर्यात “उद्योग’ मखाना प्रोसेसिंग है। पूर्णिया के आसपास हमने मजदूरों को मखाना निकालने के लिए गंदे पानी में गोता लगाते, उन्हें हथौड़ों से तोड़ते और आग पर भूनते देखा।
मेरे साथी यात्रियों को आश्चर्य हुआ कि सरकार मखाना प्रोसेसर्स को मशीनों और भट्टियों में निवेश करने में मदद क्यों नहीं करती। मनेर में जब हमने बिचौलियों को बच्चों को गर्दन तक कूड़े से भरे तालाब में उतरने के लिए पैसे देते और अपनी मांओं के सामने मछलियां ढूंढते देखा, तो मेरे एक वरिष्ठ साथी का गला रूंध गया। वास्तव में अगर बिहार एक देश होता, तो लाइबेरिया के बाद यह दुनिया का 12वां सबसे गरीब देश होता।
लेकिन नीतीश ने इसका सामना सरकारी खर्च को और बढ़ाकर किया। बिहार का कुल सरकारी खर्च राज्य के जीडीपी का 34% है, जो औसत से लगभग दोगुना है। इसका आधा हिस्सा समाज-कल्याण के व्यय में जाता है।
नीतीश को मिली जीत में इस खर्च को बढ़ाने के वादे का भी योगदान है।उनकी चुनाव-पूर्व खर्च योजनाओं का कुल योग राज्य के जीडीपी का 3% था। पूरे भारत में ही यह तेजी से आम बात होती जा रही है। उम्मीदवार यह देखने के लिए होड़ लगाते हैं कि कौन सबसे ज्यादा सौगातें दे सकता है, लेकिन बिहार इस शाहखर्ची को बर्दाश्त नहीं कर सकता।
सबसे ज्यादा घाटे वाले राज्यों में से एक होने के कारण यह सड़कों और कारखानों सहित अन्य जगहों पर कटौती किए बिना नए व्यय का वित्तपोषण नहीं कर सकता। और आज के इन खर्चों को प्राथमिकता देने का मतलब कल के विकास को धीमा कर देना है।
आधुनिकता ने इस “वेलफेयर-ट्रैप’ को और जटिल बना दिया है। भारत ने सरकारी सेवाओं की डिलीवरी को डिजिटल बना दिया है, जिससे वे बिचौलिये हट गए हैं, जो भुगतान का बड़ा हिस्सा हड़प लेते थे। लेकिन अब राजनेता इसी नेटवर्क का इस्तेमाल चुनाव के समय मतदाताओं को तेजी से नकद राशि पहुंचाने के लिए करते हैं, जो एक तरह से उनका वोट खरीदना है।
भारत में सत्ताधारी दल या गठबंधन 2000 के दशक से पहले ज्यादातर राज्यों में चुनाव हारते थे। लेकिन इस दशक में वे 55% बार जीते हैं और कांग्रेस को छोड़ दें तो 73% बार। यह तब ठीक होता, जब मतदाता सुशासन के लिए अपना वोट देते। पर ऐसा है नहीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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