Monday 01/ 12/ 2025 

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संघ के 100 साल: हेडगेवार का स्मृति मंदिर, हाकिम भाई का रोल और गुरु गोलवलकर का अंतिम पत्र – rss hedgewar memorial temple sangh 100 years story guru golwalkar ntcppl

1956 में जब गुरु गोलवलकर का 51वां जन्मदिन पूरे देश भर में मनाया गया तो उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्मृति मंदिर के भव्य निर्माण की भी चर्चा चली. स्मृति मंदिर संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार की समाधि पर बना स्मारक है. संघ की केन्द्रीय समिति ने निर्णय लिया कि स्मृति मंदिर के निर्माण के लिए एक विशेष समिति बनाई जाएगी, जिसकी अध्यक्षता खुद सरसंघचालक गुरु गोलवलकर करेंगे. 1957 में इस समिति का पंजीयन (रजिस्ट्रेशन) किया गया.

संघ के पास जो धनराशि उन दिनों गुरु दक्षिणा से आती थी, वो ज्यादातर साल भर संगठन के संचालन खर्च में चली जाती थी अथवा संगठन विस्तार में. ऐसे में तय हुआ कि गुरु गोलवलकर के जन्मदिन की तरह इस कार्यक्रम के लिए भी स्वयंसेवकों से सहयोग लिया जाएगा.  हालांकि जो ढांचा निर्माण बैठकों में तय हुआ, उसमें उतना धन नहीं लगना था कि अकेले विदर्भ या नागपुर क्षेत्र से इकट्ठा नहीं हो पाता लेकिन गुरु गोलवलकर का कहना था, ये एक राष्ट्रीय स्मारक है, हर स्वयंसेवक की भावना इससे जुड़ी हुई है. ऐसे में देश के हर स्वयंसेवक का इसमें योगदान होगा तो ये सम्बंध और भी मजबूत होगा. सो तय हुआ कि ‘एक स्वयंसेवक- एक रुपया’ का फॉर्मूला चलेगा, ना किसी से कम और ना किसी से ज्यादा.

इस अभियान को आप राम मंदिर के लिए चले अभियान का भी अभ्यास मान सकते हैं. जिस तरह से राम मंदिर का एक प्रस्तावित डिजाइन तैयार करके जनता के बीच जाया गया, उसी तरह संघ के हर स्वयंसेवक के पास प्रस्तावित ‘स्मृति मंदिर’ का चित्र पहुंचाया गया. जाहिर है जो लोग संघ से जुड़े हैं, वो ही डॉ हेडगेवार का त्याग समझते हैं और इस चित्र की वजह से वो इस अभियान से और ज्यादा भावों के साथ जुड़ गए. 21 अक्तूबर 1959 को गुरु गोलवलकर ने एक बयान भी जारी किया. उसे भी स्वयंसेवकों तक पहुंचाया गया. 1959 में ही गुरु गोलवलकर ने स्मृति मंदिर की आधारशिला भी रख दी.
 
 पांच बातों का निर्देश

दरअसल हेडगेवार स्मारक समिति के पंजीयन से पहले ही गुरु गोलवलकर ने मुंबई के जाने माने आर्किटेक्ट गोविंद वासुदेव दीक्षित को प्रस्तावित स्मृति मंदिर का डिजाइन तैयार करने के लिए कह दिया था. अक्तूबर 1956 में उन्होंने वो तैयार करके मुंबई में गुरु गोलवलकर को सौंप दिया. इससे पहले संघ के अधिकारियों के बीच ही अगस्त में डिजाइन पर चर्चा हुई थी, तब ये काम दीक्षित को दिया गया था. तैयार डिजाइन से पांच बातें स्पष्ट निकलकर आईं. पहली ये कि मूल समाधि स्थल में कोई बदलाव नहीं होगा. दूसरी ये कि समाधि अब एक कमरे के अंदर होगी, यानी उसके चारों तरफ दीवारें खड़ी कर दी जाएंगी औऱ एक दरवाजा लगा दिया जाएगा और उसके ऊपर डॉ हेडगेवार की एक प्रतिमा लगा दी जाएगी. तीसरा निर्णय था कि पूरा निर्माण पत्थरों से ही किया जाएगा. चौथी बात थी कि सौंदर्यीकरण और सजावट पर तार्किक खर्च ही किया जाएगा. पांचवां और सबसे अहम निर्णय ये था कि आर्किटेक्चर भारतीय होगा औऱ स्वदेशी सामग्री ही निर्माण में प्रयुक्त होगी.

गुरु गोलवलकर ने जब दीक्षित की डिजाइन की ड्राइंग में देखा कि मुगल आर्किटेक्चर जैसा लुक आ रहा है तो कुछ बदलाव भी सुझाए थे. दरअसल रेशम बाग के जिस स्थान पर डॉ हेडगेवार की समाधि थी, वहां एक चबूतरा बनाकर उसके ऊपर तुलसी वृंदावन रख दिया गया था. समाधि के आसपास और किसी भी तरह का निर्माण नहीं था. लेकिन जब गांधीजी की हत्या के बाद संघ के खिलाफ लोगों को भड़काया गया तो एक उन्मादी भीड़ ने समाधि को बुरी तरह तोड़ फोड़ दिया. संघ पर प्रतिबंध होने के नाते उस वक्त कुछ भी नहीं किया जा सका. लेकिन डेढ़ साल बाद जब प्रतिबंध हटा तो उस समाधि की मरम्मत करके साधारण सी सजावट के साथ उसको ढकने वाला एक अस्थाई ढांचा बना दिया.

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इस मरम्मत के दौरान उसमें पत्थर लगा दिए गए थे, जो कांगड़ा औऱ जैसलमेर से तो मंगाए ही गए थे, ग्रीन स्टोन वडोदरा से मंगाया गया था, सफेद संगमरमर मकराना से और लाल ग्रेनाइट मैसूर की चामुंडा हिल्स से. 1200 वर्ग फुट के क्षेत्रफल की इस समाधि के ढांचे की ऊंचाई 45 फुट थी. समाधि के दर्शन चारों तरफ से किए जा सकते थे, और परिक्रमा के लिए भी जगह थी, लेकिन नए डिजाइन में इसे ग्राउंड फ्लोर पर होना था.  
आधारशिला, भूमि पूजन और डिजाइन तैयार करने के बाद खोज शुरू हुई पत्थर की. पहले तो लगा था नागपुर नहीं तो महाराष्ट्र में कहीं ना कहीं तो उपयुक्त पत्थर मिल ही जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. ये खोज जाकर खत्म हुई जोधपुर के बलुआ पत्थर पर और महाराष्ट्र में पाए जाने वाले बेसाल्ट पत्थर पर जिसे आग्नेय चट्टान भी कहा जाता है. इधर डॉ हेडगेवार की प्रतिमा बनाने का जिम्मा गुरु गोलवलकर ने सौंपा नानाभाई गोरेगांवकर को. 1958 में ही उनके द्वारा बनाई गई रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा का उदघाटन पहले राष्ट्रपति ड़ॉ राजेन्द्र प्रसाद ने किया था.

प्रस्तावित स्मृति मंदिर का चित्र पुणे के आर्किटेक्ट आप्टे ने तैयार किया. गुरु गोलवलकर के निर्देश पर उसे धनुषाकर आकृति में बनाया गया. इस पूरे प्रोजेक्ट के निरीक्षण और समय पर पूरा होने की जिम्मेदारी दी गई थी, केन्द्रीय कार्यालय प्रमुख पांडुरंग पंत क्षीरसागर, मोरोपंत पिंगले, इंजीनियर कनविंदे, बाबा साहेब तालातुले, वसंतराव जोशी आदि को. काम भले ही पूरी तैयारी के साथ मई 1959 में शुरू हुआ था, लेकिन नींव भरने का काम अगस्त तक पूरा कर दिया गया. जनवरी 1960 तक पहली मंजिल का काम लगभग पूरा हो चुका था.
 
जब हाकिम भाई ने संभाला मोर्चा

उसी वक्त एक समस्या उठ खड़ी हुई. जो कारीगर या मजदूर काम कर रहे थे, उनको काले पत्थर (ब्लैक स्टोन) पर काम करने की आदत थी. बलुआ पत्थर पर काम करना उनके लिए आसान नहीं हो रहा था. ऐसे में बलुआ पत्थर के जानकार कारीगर की खोज शुरू हई, जो मिला राजस्थान में, नाम था हाकिम भाई.  

हेडगेवार स्मारक में स्वयंसेवकों ने 1-1 रुपये का योगदान दिया था. (Photo: AI generated)

शुरूआत में छाती तक की प्रतिमा लगाने की बात थी, लेकिन जैसे-जैसे स्मृति मंदिर की भव्यता की बात होती गई, लगा कि आदमकद प्रतिमा होनी चाहिए और उसे बनाकर 23 दिसम्बर 1961 को लगा भी दिया गया. उसे पहली मंजिल पर लगाया गया था. दोनों तरफ सीढ़ियों से प्रतिमा तक जाया जा सकता था.
 
दंगे …और मुस्लिम मजदूर हो गए प्रोजेक्ट छोड़ने को तैयार

पत्थरों का काम हाकिम भाई की अगुवाई में बड़ी तेजी से चल रहा था. उनके अपने 22 मुस्लिम मजदूर प्रोजेक्ट पर दिन रात काम कर रहे थे कि अचानक मध्यप्रदेश के जबलपुर में दंगे भड़क गए. ये वहां से मुश्किल से 272 किमी दूर था. ऐसे में मुस्लिम मजदूरों के तो हाथ पांव फूल गए कि वो तो खुद हिंदुओं के सबसे बड़े संगठन के मुख्यालय में काम कर रहे हैं. कल को कुछ हो गया तो कौन बचाएगा? कुछ तो समझाने के बावजूद भाग गए. उनकी ये बेचैनी देखकर पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने उन्हें काफी समझाया बुझाया. उनकी सुऱक्षा का आश्वासन भी दिया. लेकिन बात नहीं बनी तो गुरु गोलवलकर ने खुद उन्हें मिलने बुलाया और इस तरह समझाया कि वो रुक गए. बाद में ऑर्गनाइजर को दिए एक इंटरव्यू में हाकिम भाई ने बताया कि काम खत्म होने के बाद गुरु गोलवलकर ने उन्हें सम्मानित  भी किया, शॉल उढ़ाई, एक श्रीफल, एक सोने की अंगूठी और प्रमाण पत्र भी दिया था. सालों तक हाकिम भाई का परिवार ये सब चीजें लोगों को दिखाता रहा. उनके घर में आज भी ये शोकेस में रखी हैं.
 
कांची शंकराचार्य ने भेजा विशेष आशीर्वाद

रंगा हरि अपनी किताब ‘The Incomparable Guru Golwalkar’ में लिखते हैं कि गुरु गोलवलकर चाहते थे कि स्मृति मंदिर जैसे पवित्र स्थान के उदघाटन के लिए कोई पवित्र आत्मा ही आनी चाहिए. उन्होंने कांची कामकोटि पीठम के शंकराचार्य को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने पैदल ही चलने की शपथ ले रखी थी. नागपुर तक आते आते उन्हें महीनों लग जाते और ये तय हो चुका था कि 5 अप्रैल 1962 को नववर्ष प्रतिपदा के दिन, जिस दिन डॉ हेडगेवार की जयंती है, उसी दिन इसका अनावरण किया जाए. लेकिन शंकराचार्य ने गुरु गोलवलकर के आग्रह पर अपना संदेश भेजा और साथ में विभूति, कुमकुम और अभिमंत्रित अक्षत भेजे. उनका संदेश इस अवसर पर पढ़ा गया, जिसकी आखिरी लाइनें थीं, ‘’कामना है कि ये स्मृति मंदिर सभी भारतीयों को डॉ हेडगेवार की स्वधर्म के प्रति निष्ठा और इस देश के विकास के लिए उनके द्वारा अपने जीवन के बलिदान को याद करने के लिए प्रेरित करे औऱ वो भी इस रास्ते को अपनाएं”.

इस आय़ोजन के लिए देश भर से जिला स्तर के प्रचारक और स्वयंसेवकों को बुलाया गया था. उस वक्त संघ के पास इतने लोगों को ठहराने की व्यवस्था नहीं थी, सो 2000 परिवारों से सम्पर्क किया गया और उनके घरों में इन लोगों को अतिथि बनाया गया. ये एक अलग तरह का अनुभव था. अगले दिन सभी को गुरु गोलवलकर ने ‘हम और स्मृति मंदिर’ विषय पर सम्बोधित किया. समझाया कि स्मृति मंदिर कोई आम मंदिर नहीं है बल्कि प्रेरणा का एक स्रोत है. इस समारोह में आने की इच्छा काफी दिनों से बीमार गुरु गोलवलकर की मां ताईजी को भी थी, उन्हें भी लाया गया. डॉ आबाजी थट्टे ने उनके लिए सुबह में ही दर्शन की व्यवस्था कर दी थी, ताकि भीड़ से वो परेशान ना हो जाएं.
 
लेकिन अपने स्मारक के लिए क्या लिख गए गुरु गोलवलकर

संघ के संस्थापक औऱ अपने श्रद्धेय डॉ हेडगेवार के लिए भव्य स्मृति मंदिर जैसा स्मारक बनाने वाले गुरु गोलवलकर ने अपने आखिरी दिनों में तीन पत्र लिखकर रख दिए थे. उनकी अंतिम यात्रा के बाद उन्हें खोला गया था, जिसमें एक पत्र में तो सरसंघचालक के अपने उत्तराधिकारी के तौर पर बालासाहब देवरस का नाम था. दूसरे पत्र में 33 सालों के अंदर किसी का दिल उनकी वजह से उनके व्यवहार से दुखा तो उसके लिए उन्होंने क्षमा मांगी थी, और तीसरे पत्र में लिखा था कि हमारे काम का उद्देश्य था कि राष्ट्र की पूजा करो, यहां नायक पूजा के लिए, व्यक्ति पूजा के लिए जगह नहीं…सो संघ के संस्थापक के अतिरिक्त किसी का स्मारक बनाने की आवश्यकता नहीं है. मैंने खुद का ब्रह्मकपाला में आत्म-श्राद्ध संस्कार पहले ही कर दिया है, सो कोई भी अन्य अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं है. संघ ने उनके विचारों का सम्मान तो किया, लेकिन उनका दाह संस्कार भी स्मृति मंदिर के पास में ही हुआ था, सो उस जगह पर स्मारक तो नहीं लेकिन स्मृति चिन्ह के तौर पर एक समाधि यज्ञ ज्वाला के स्वरूप में जरूर बना दी गई है.

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