Virag Gupta’s column: A new debate has emerged on the powers of Parliament and the Supreme Court. | विराग गुप्ता का कॉलम: संसद और सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों पर नई बहस उभरी

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6 घंटे पहले
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विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील और ‘डिजिटल कानूनों से समृद्ध भारत’ के लेखक
2005 में संसद ने नेशनल टैक्स ट्रिब्यूनल कानून और 2013 में नया कम्पनी कानून पारित किया था। उसके बाद एनसीएलटी, एनसीएलएटी और दूसरे अन्य ट्रिब्यूनल में न्यायिक और प्रशासनिक सदस्यों की योग्यता, न्यूनतम आयु, कार्यकाल, सेवा शर्तों आदि के बारे में अनेक विवाद शुरू हुए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद सरकार ने 2021 में ट्रिब्यूनल सुधार कानून में पुराने प्रावधानों को फिर से शामिल कर लिया, जिन्हें जस्टिस विनोद चन्द्रन ने नई बोतल में पुरानी शराब बताया है। चीफ जस्टिस गवई ने सदस्यों की नियुक्ति, सेवा शर्तों से जुड़े प्रावधानों को रद्द करने वाले फैसले में डॉ. आम्बेडकर को उद्धृत करते हुए कहा कि व्यक्तियों के बजाय संविधान सर्वोच्च है। कुछ महीने पहले गवई ने कहा था कि अफसरों की पृष्ठभूमि से आए सदस्य सरकार के खिलाफ फैसला देने में हिचकते हैं। इस फैसले से जुड़े तीन पहलुओं को समझना जरूरी है।
1. संसद की सर्वोच्चता : शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के कानून से रद्द कर दिया गया था। पटाखों पर प्रतिबंध के पुराने फैसले को सुप्रीम कोर्ट के नए जजों की पीठ ने बदल दिया। इसलिए संविधान के अनुसार संसद को इस बारे में नया कानून बनाने का अधिकार है। संविधान के बेसिक ढांचे को बचाने की आड़ में दरअसल यह सरकार और जजों के बीच न्यायिक नियुक्तियों में वर्चस्व की लड़ाई है। एक रिपोर्ट के अनुसार ट्रिब्यूनल में 3,56,000 लम्बित मामलों में 25 लाख करोड़ रु. फंसे हैं, जो जीडीपी का 7.5% है। इस विवाद से जुड़े अनेक पहलुओं का न्यायिक सुधारों के साथ आम जनता का सरोकार है। ट्रिब्यूनल के सदस्यों और चेयरमैन को हाईकोर्ट के जज और चीफ जस्टिस का दर्जा मिलता है तो फिर उनके आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका क्यों स्वीकार होनी चाहिए? इससे जुड़े मुद्दों के निराकरण के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन और कॉलेजियम में सुधार के लिए संसद और सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी चाहिए। इससे न्यायिक नियुक्तियों में सरकार और जजों की मनमर्जी और हस्तक्षेप कम होने के साथ संवैधानिक मूल्यों का वर्चस्व बढ़ेगा।
2. तीन दशक से विवाद : इस मामले में मद्रास बार एसोसिएशन (एमबीए) की याचिकाओं पर पिछले 15 सालों में 5 फैसले आ चुके हैं। 2021 में जब नोटिस जारी हुआ था, तब जस्टिस गवई बेंच में जूनियर जज थे। नियमों के अनुसार मामले को सुनवाई के लिए जस्टिस गवई की बेंच के सामने ही आना चाहिए था। लेकिन यह जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस चन्द्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच के सामने सुनवाई के लिए कई बार गया था। संविधान से जुड़े मामलों की सुनवाई न्यूनतम तीन जजों की बेंच करती है। ऐसे मामलों में असहमति होने पर दो जजों के बहुमत का फैसला मान्य होता है। इसलिए संविधान पीठ के गठन की मांग को अस्वीकार करने के बावजूद इस मामले में न्यूनतम तीन जजों की बेंच का गठन होना ही चाहिए था। जस्टिस गवई की अध्यक्षता वाले 5 जजों की बेंच के नए फैसले से तमिलनाडु में राज्यपाल से जुड़े मामले में दो जजों का फैसला अब पुनर्विचार याचिका से निरस्त हो सकता है। उसी तरह से ट्रिब्यूनल मामले के इस फैसले के खिलाफ भी पुनर्विचार याचिका और संविधान पीठ के गठन की मांग के साथ नए सिरे से मुकदमेबाजी आगे बढ़ सकती है।
3. संविधान पीठ : तलाक-ए-हसन मामले में 5 जजों की संविधान पीठ के गठन की बात हो रही है। तो फिर ट्रिब्यूनल सुधारों से जुड़े महत्वपूर्ण मामले में अटॉर्नी जनरल की मांग के बावजूद संविधान पीठ के गठन की मांग को जस्टिस गवई ने स्वीकार क्यों नहीं किया? मामले को व्यक्तिगत मोड़ देकर उन्होंने कहा कि सरकार उनके रिटायरमेंट का इंतजार कर रही है। इस बारे में दो बड़े सवाल हैं। मद्रास बार एसोसिएशन से जुड़े 2010, 2014 और 2015 के तीन फैसले पांच जजों की बेंच ने दिए। उसके बाद 2021 में चौथे और 2022 में पांचवें फैसले को तीन जजों की बेंच ने दिया। तो अनुच्छेद-145 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ के गठन के क्या मापदंड हैं? दूसरे, पुराने मामलों के अनुसार ही फैसला होना था तो अन्य जज इस मामले में फैसले के अंजाम को कैसे बदल सकते थे?
शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के कानून से रद्द कर दिया गया था। पटाखों पर प्रतिबंध के फैसले को नए जजों की पीठ ने बदल दिया। इसलिए संविधान के अनुसार संसद को इस बारे में नया कानून बनाने का अधिकार है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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