N. Raghuraman’s column – Mobile is a syringe and the Internet is its fine needle! | एन. रघुरामन का कॉलम: मोबाइल एक सिरिंज है और इंटरनेट उसकी बारीक सुई!

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8 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
इस गुरुवार स्वीडिश नेटवर्क कंपनी एरिक्सन द्वारा तैयार की गई एक मोबिलिटी रिपोर्ट ने बताया कि भारत के लोग दुनिया में सबसे अधिक मोबाइल डेटा की खपत करते हैं- प्रति यूजर प्रतिमाह औसतन 36 जीबी। यह अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और चीन जैसी परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं से भी अधिक है। सस्ता डेटा और किफायती स्मार्टफोन इस मांग को तेजी से बढ़ा रहे हैं।
मजबूत कंटेंट स्ट्रीमिंग इकोसिस्टम के साथ-साथ सोशल मीडिया पर वीडियो देखना डेटा की तेजी से बढ़ती खपत के प्रमुख कारणों में हैं। अनुमान है कि 2031 तक यह खपत बढ़कर 65 जीबी तक पहुंच सकती है। जहां मोबाइल कंपनियां इस वृद्धि का जश्न मना रही हैं, वहीं युवाओं के माता-पिता अपने बच्चों में स्क्रीन की बढ़ती ‘लत’ को लेकर चिंतित हैं। टेक-एडिक्शन दु:स्वप्न बनता जा रहा है।
हर घर में इसकी शुरुआत एक गेमिंग कंसोल से होती है, जिसमें माता-पिता इस पर गर्व करते हैं कि उनका बच्चा कितनी चतुराई से खेल रहा है। जब बच्चे गेम जीतते हैं, तो माता-पिता इसे बच्चे की जीतने की इच्छा समझ बैठते हैं। लेकिन जैसे-जैसे दिन और वर्ष बीतते हैं, तकनीक और डिजिटल उपकरण धीरे-धीरे उनकी किशोरावस्था पर गहरा असर डालने लगते हैं।
अनजाने में ही वे उनसे उन चीजों को छीन लेते हैं, जो एक बढ़ते हुए बच्चे के लिए बेहद जरूरी होती हैं- जैसे दोस्त बनाना, बाहर खेलना आदि। और अंत में हालत यह हो जाती है कि ये ही बच्चे अपने कमरे का दरवाजा बंद कर देते हैं, ताकि माता-पिता भीतर न आ सकें। यहां तक कि मां को दरवाजे के बाहर खड़े होकर विनती करनी पड़ती है कि कुछ खा तो लो और सो जाओ।
अब कुछ बच्चों ने समझ लिया है कि बचपन में उनके दु:खी रहने का मूल कारण क्या था और कैसे उन्होंने इंटरनेट और स्क्रीन की वजह से जीवन की कुछ मूल्यवान चीजें खो दी थीं। यह हुआ है एक नए और अल्पज्ञात 12 चरणों वाले प्रोग्राम की मदद से, जिसका नाम है- इंटरनेट एंड टेक्नोलॉजी एडिक्ट्स एनॉनिमस (आईटीएए)। यह अमेरिका से संचालित होता है।
यह पत्रकारों और अन्य लोगों के लिए भी उपलब्ध है, ताकि वे देख सकें कि कैसे कॉलेज छात्रों से लेकर सेवानिवृत्त लोगों तक को उस संगठन द्वारा बताए गए 12 चरणों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि वे धैर्यवान हो सकें।
क्योंकि अमेरिका में तो पैरेंट्स के बीच टेक-एडिक्शन की खतरे की घंटी दूसरी जगहों की तुलना में और जोर से बज रही है। जबकि वहां प्रति व्यक्ति प्रतिमाह इंटरनेट का औसत उपयोग 25 जीबी है, भारत से 11 जीबी कम है।
बहुत-से बच्चे जो आईटीएए के सदस्य हैं, अब मानते हैं कि वे अनियंत्रित इंटरनेट उपयोग की अपनी लत को सुधार चुके हैं। लेकिन इस स्थिति तक पहुंचना आसान नहीं था, क्योंकि शुरुआत में उन्हें लगा यह एंग्जायटी डिसऑर्डर या अवसाद है।
वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी समस्याएं इंटरनेट के कारण थीं। आईटीएए के एक सदस्य ने माना कि वह इंटरनेट को खंगाल देना चाहता था। वह साइबरस्पेस पर बनाए और अपलोड किए हर पेज को देख लेना चाहता था। इसका असर उसकी नींद, मानसिक स्वास्थ्य और रिश्तों पर पड़ रहा था।
भारत में कई माता-पिता तब सुरक्षित महसूस करते हैं जब बच्चे घर के अंदर रहते हैं और अपने कंप्यूटर पर लगे रहते हैं, बनिस्बत उन्हें बाहर भेजने के जहां बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखनी पड़ती है। लेकिन एआई आधारित इंजनों- जैसे चैटजीपीटी और अन्य- जो अकसर बच्चों द्वारा लिखी गलत बातों से भी सहमत हो जाते हैं, की वजह से किशोरों के मोबाइल और इंटरनेट की लत में फंसने का खतरा बहुत बढ़ गया है।
उन्हें लगता है कि उनके पैरेंट्स बेकार ही उन्हें टोकते रहते हैं, जबकि उनसे अधिक बुद्धिमान एआई उन्हें स्वीकार करता है। यही कारण है कि हमारे फ्रेंड्स-सर्कल में हम ‘चैटजीपीटी’ को ‘चाटुकार-जीपीटी’ कहने लगे हैं।
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