N. Raghuraman’s column – Why are our talents still stuck in cities? | एन. रघुरामन का कॉलम: हमारी प्रतिभाएं अभी भी शहरों में क्यों फंसी रह जाती हैं?

45 मिनट पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
वह 1975 का साल था। नागपुर से आई एक ट्रेन से उतरकर विक्टोरिया टर्मिनस (अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) के बाहर कदम रखते ही मैं कुछ मिनटों तक उसकी भव्य इमारत को निहारता रहा। तभी मेरे अंकल ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कुछ दूरी पर स्थित ‘पंचम पूरीवाला’ पर चलने को कहा।
हम बैठे ही थे कि वहां के मालिक ने खुद आकर हमसे आग्रह किया कि हम बीच वाली मेज पर बैठ जाएं, क्योंकि कोने की मेज पर कोई और नहीं, स्वयं फिल्म अभिनेता मनोज कुमार बैठना चाहते थे। वे वही व्यक्ति थे, जिन्होंने रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़े मेरे सवालों का जवाब दिया था। तब इन चीजों को हासिल करना सबसे मुश्किल था। मेज पर बैठकर उन्होंने अपनी आंखों से अंकल के प्रति आभार जताया और अंकल ने भी मुस्कराकर उनका अभिवादन किया।
उस एक पल ने मुझे खुद से यह वादा करने को विवश कर दिया कि मैं कभी भी इस बम्बई शहर को नहीं छोड़ूंगा, मैं यहां मेहनत करूंगा और अपने परिवार का जीवन-स्तर ऊपर उठाकर रहूंगा। मेरा खुद से किया यह वादा तब और मजबूत हो गया, जब मैं अंकल के घर जाने वाली टैक्सी में बैठा।
उसमें बैठकर मुझे महसूस हुआ कि एक दिन मेरा खुद का एक ड्राइवर हो, जो मुझे पूरे मुम्बई में घुमाए। अगले तीन दिनों तक मैं अंकल के घर की तीसरी मंजिल की बालकनी में बैठकर नीचे इस शहर की चहल-पहल को देखता रहा।
नागपुर की एक चॉल की जिंदगी से सीधे तीसरी मंजिल की उस बालकनी तक पहुंचने का वो अनुभव मेरे लिए आसमान की उड़ान भरने जैसा था। फिर एक फार्मास्युटिकल कंपनी में जॉइन करने के बाद मुझे अपने जीवन में लिफ्ट का पहला अनुभव हुआ और अचानक जीनत अमान से मेरी मुलाकात हो गई।
ऐसे अनुभवों ने तो उस चमचमाते शहर को कभी न छोड़ने के मेरे संकल्प को और पक्का कर दिया। मुम्बई में राशन कार्ड से लेकर कार तक- सबकुछ हासिल करने में मुझे दस साल लग गए। आज- लगभग पचास साल बाद भी मैं उस शहर को चाहते हुए भी नहीं छोड़ पा रहा हूं।
मुझे अपने संघर्ष के ये दशक तब याद आए जब मुझे पता चला कि तमिलनाडु के श्रीरंगम असेंबली सेगमेंट में- जो ग्रामीण व शहरी इलाकों से मिलकर बना है- एसआईआर फॉर्म बांटने और इकट्ठा करने का काम लगभग पूरा हो चुका है। हालांकि एक बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) ने कहा कि शहरी इलाकों में यही काम बहुत चुनौतीपूर्ण है।
जारी प्रक्रिया के तहत बीएलओ ने इस हफ्ते की शुरुआत में देखा कि शहरी इलाकों में घरों के बार-बार शिफ्ट होने, रहवासी बस्तियों के संकुलों और घर के नंबर बदलने से उनका काम मुश्किल हो गया है। गांवों में ये दिक्कतें नहीं थीं क्योंकि वोटर नियमपूर्वक अपनी पहचान के सारे प्रमाण लेकर आते हैं, जबकि शहरी इलाकों में कई लोग कहते हैं कि उनके पास डॉक्यूमेंट नहीं हैं या उन्होंने उन्हें खो दिया है।
इससे सवाल उठता है कि हमारे सबसे बुद्धिमान लोग शहरों में क्यों फंसे रह जाते हैं, जबकि आज ग्रामीण इलाकों में भी सभी जरूरी सुविधाएं हैं? पैसा तो बस आधी कहानी है। इससे आरामदायक और बेहतर जिंदगी पाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन आज काम करने का तरीका ठीक इसका उलटा है।
जब मैं ऐसी पार्टियों में जाता हूं, जहां युवा ज्यादा होते हैं, तो उनके काम के बारे में पूछे जाने पर मैं उन्हें मार्केटिंग या फाइनेंस कहते हुए ज्यादा सुनता हूं। वे कभी नहीं बताते कि वे किसी कंपनी के लिए काम कर रहे हैं, फ्रीलांसिंग कर रहे हैं या गिग वर्किंग कर रहे हैं, जब तक कि उनसे पूछा न जाए। वे भीतर से “नर्ड’ (बेहद बुद्धिमान) हैं और उनके जॉब्स ही उनके शोकेस का टिकट हैं।
मैं देखता हूं कि ये तेज दिमाग वाले लोग अपने काम के क्षेत्र में और भी ज्यादा बुद्धिमान बनना चाहते हैं। कंपनियां भी उन्हें अपग्रेड करने के लिए तैयार हैं। कर्मचारी आखिरकार किसी थिंक टैंक के सदस्य बनना चाहते हैं- फिर चाहे वे कंपनियों के हों या सरकार के। इस कारण वे और ज्यादा जानकारियां जुटाने में व्यस्त रहते हैं।
फंडा यह है कि अगर आप चाहते हैं कि हमारे प्रतिभाशाली दिमाग “इंडिया’ की चमक छोड़ “भारत’ की मिट्टी में लौटें, तो उन्हें सबसे अच्छा ज्ञान उनके दरवाजे पर उपलब्ध कराना होगा। नहीं तो शहरों की चकाचौंध उन्हें हमेशा के लिए वहीं रोक लेगी।
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