Monday 01/ 12/ 2025 

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Kaushik Basu’s column: The biggest threat to democracy is inequality, not war. | कौशिक बसु का कॉलम: लोकतंत्र को बड़ा खतरा युद्ध नहीं विषमताओं से होता है

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3 घंटे पहले

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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट - Dainik Bhaskar

कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट

जनवरी, 1934 में न्यूयॉर्क टाइम्स में हेरोल्ड कैलेंडर का एक लेख प्रकाशित हुआ, जो नाजी जर्मनी में तेजी से दिखाई दे रही एक नई परिघटना ‘ग्लाइख्शालटुंग’ को लेकर था। इसका शाब्दिक अनुवाद है- ‘समन्वय’। लेकिन इस शब्द के वास्तविक मायने कहीं ज्यादा स्याह थे- जर्मन समाज का नाजीकरण। कैलेंडर का यह लेख लोकतंत्र के पतन और तानाशाही के उदय को लेकर सबसे दूरदर्शी चेतावनियों में से एक साबित हुआ था।

ईसा पूर्व पांचवी सदी में एथेंस में जन्मा लोकतंत्र का विचार मानवता के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। 18वीं और 19वीं सदी में इसने अमेरिका और 20वीं सदी में भारत में जड़ें जमाईं। लेकिन अपनी व्यापकता और मजबूती के बावजूद लोकतंत्र हमेशा से ही निष्कवच रहा है।

हम अकसर सोचते हैं कि युद्ध, तख्तापलट आदि लोकतंत्र के लिए बड़े खतरे हैं। लेकिन कैलेंडर का लेख हमें बताता है कि लोकतांत्रिक पतन के लिए अचानक से कोई बड़ा झटका जरूरी नहीं। चुनावी लोकतंत्र भी धीरे-धीरे, कदम-दर-कदम अधिनायकवाद के उस स्तर तक चला जाता है, जहां से वापसी संभव नहीं होती। कैलेंडर के लेख ने हिटलर के जर्मनी में चल रही घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य दिया था।

वास्तव में, 1934 तक जर्मनी के नाजीकरण की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी थी। पहले जर्मनी के संघीय राज्य अपनी सम्प्रभुता खोकर नाजी नियंत्रण में आए और फिर विपक्षियों और असहमतों को चुप करा दिया गया। यह व्याधि जर्मनी के बौद्धिक जगत, विश्वविद्यालयों और शोध केंद्रों तक फैल गई।

कैलेंडर बताते हैं कि कितनी सरलता से नाजियों ने सभी सांस्कृतिक संस्थानों पर अपनी वैचारिक एकरूपता थोप दी। आधुनिक कला को विकृत बताकर खारिज कर दिया गया था। हालांकि विज्ञान को ऐसी किसी एकरूपता में ढालने पर वे हिचकते थे।

आखिरकार पृथक से कोई जर्मन या आर्य गणित कैसे हो सकता था? लेकिन बर्लिन विश्वविद्यालय के कुछ चापलूस गणितज्ञों ने खुद को इसके लिए भी राजी कर लिया था। इस प्रकार जर्मन त्रासदी की पृष्ठभूमि तैयार हो गई।

आज जब दुनियाभर के लोकतंत्र अधिनायकवाद की ओर खिसक रहे हैं तो कैलेंडर की चेतावनियां हमारे लिए पहले से भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। मसलन, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्तोर ओरबन और तुर्किये के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगन निष्पक्ष चुनावों के जरिए सत्ता में आए और फिर अपनी ताकत को सीमित करने वाली संवैधानिक बाध्यताओं को ही कमजोर कर दिया।

अमेरिका सहित कुछ अन्य बड़े देश भी इससे अछूते नहीं हैं। हालिया अनुभव बताते हैं कि राजनेता और उनके सहयोगी सत्ता में रहने के लिए राष्ट्रवाद का फायदा उठाते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिनायकवाद की ओर झुकाव हिंसा से ही शुरू नहीं होता।

2018 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द रिपब्लिक ऑफ बिलीफ्स’ में मैंने कहा था कि दमन उन व्यक्तिगत कृत्यों से शुरू होता है, जो दिखने में मामूली लगते हैं, लेकिन जब लोगों पर किसी विचारधारा के अनुरूप होने का सामाजिक दबाव पड़ने लगता है तो इसके परिणाम व्यापक हो जाते हैं। इससे सत्ताधारियों को स्वच्छंदता से काम करने की छूट मिलती है।

2022 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘स्पिन डिक्टेटर्स’ में सेर्गेइ गुरियेव और डैनियल ट्रीजमैन भी बताते हैं कि एक बार रोमानिया के तानाशाह निकोलाइ चाउशेस्कु ने अपने सुरक्षा प्रमुख से कहा था कि ‘हम राजनीतिक अपराधियों से छुटकारा पाने के कई तरीके खोज सकते हैं। हम उन्हें गबनकर्ता, अफवाह फैलाने वाला, ड्यूटी में लापरवाही बरतने वाला या कोई भी दूसरा आरोप लगाकर गिरफ्तार कर सकते हैं।’

बढ़ती विषमता से लोकतांत्रिक संस्थाएं तेजी से कमजोर होती हैं। जी-20 एक्स्ट्राऑर्डिनरी कमेटी ऑफ इंडिपेंडेंट एक्सपर्ट्स ऑन ग्लोबल इनइक्वेलिटी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे असमानता वाले देशों में लोकतंत्र खत्म होने का जोखिम सात गुना अधिक होता है।

सोशल मीडिया के दबदबे वाली दुनिया में आय की असमानता अकसर आवाजों की असमानता में बदल जाती है। अति-धनाढ्य लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों और टीवी नेटवर्क पर कब्जा कर जनमत पर जकड़ मजबूत कर लेते हैं।

अधिनायकवाद की ओर इस गिरावट को रोकने के लिए हमें लोकतंत्र के पिछले पतनों की पड़ताल करनी चाहिए। खासकर, दोनों विश्वयुद्धों के बीच के वर्षों और वाइमर गणराज्य की। एडम स्मिथ ने बताया था कि कैसे व्यक्तिगत पसंद से पूरी अर्थव्यवस्था आकार लेती है, उसी तरह से हमें समझना होगा कि कैसे रोजमर्रा के फैसले बड़े राजनीतिक बदलावों में तेजी लाते हैं।

असमानता वाले देशों में लोकतंत्र खत्म होने का जोखिम सात गुना अधिक होता है। आय की विषमता अकसर आवाजों की विषमता में बदल जाती है। धनाढ्य लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों और टीवी नेटवर्क पर कब्जा कर लेते हैं। (@प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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