Monday 01/ 12/ 2025 

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संघ के 100 साल: कुष्ठ रोगी स्वयंसेवक ने ‘गुरु मंत्र’ से खड़ा कर दिया 100 एकड़ का कुष्ठ आश्रम – sangh 100 years leprosy patient sadashiv katre chhattisgarh janjgeer chapa ntcppl

छत्तीसगढ़ के जांजगीर चम्पा जिला मुख्यालय की दूरी राजधानी रायपुर से करीब 154 किमी है. उसका भी एक कस्बा है चम्पा नगर, उससे भी 8 किमी दूर है भारतीय कुष्ठ निवारक संघ का मुख्यालय, जिसे कात्रे नगर के नाम से भी जाना जाता है. वहां एक आदमकद प्रतिमा लगी हुई है संस्थापक स्वर्गीय सदाशिव गोविंद कात्रे की. जिसके नीचे कुछ लाइनें बाबा आमटे की तरफ से लिखी हुई हैं, “मैंने अपना कार्य कुछ ना कुछ सामाजिक सम्मान के बीच में प्रारंभ किया, मैं वकील था, पालिकाध्यक्ष था, परंतु कात्रे जी ने अपना कार्य सामाजिक उपेक्षा, अपमान, उपहास एवं मानसिक प्रताड़ना से संघर्ष करते हुए प्रारम्भ किया”.

जिन बाबा आमटे को न सिर्फ पदम भूषण, पदमश्री जैसे सम्मान मिले बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रमन मैगसेसे, और 8 लाख 84 हजार ड़ॉलर का धर्म के क्षेत्र का नोबेल कहा जाने वाला टेम्पलटन पुरस्कार मिला, जिन्हें 2 बार तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने सम्मानित किया, जिन्होंने भारत में कुष्ठ रोगियों के लिए कई आश्रम बनवाए वो अगर खुद से बेहतर किसी को बता रहे हैं, तो इससे कात्रे जी के योगदान को समझा जा सकता है.

सदाशिव गोविंद कात्रे गुना में पैदा हुए थे, रेलवे कर्मचारी थे और झांसी डिवीजन में तैनात थे. उनके ऊपर जिम्मेदारी थी कि वो पहले अपनी तीन बहनों का अच्छे परिवारों में विवाह करें, उन्होंने बखूबी इस जिम्मेदारी का निर्वाह भी किया. उनके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की, लेकिन बेटे की बचपन में ही मौत हो गई. उसके बाद मानो उनके घर में दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा. घर में कुष्ठ रोग (कोढ़) घुस आया और पत्नी उसकी चपेट में आ गई. पत्नी की गंभीर कुष्ठ रोग से मौत हो गई, रंगा हरि गुरु गोलवलकर की जीवनी में लिखते हैं कि ‘’पड़ोसियों ने उन पर हत्या का आरोप लगा दिया. कहा ये प्राकृतिक मौत नहीं, तो उनको जेल जाना पड़ गया’’. हालांकि कई जगह उल्लेख मिलता है कि पत्नी की मृत्यु सर्पदंश से हुई थी और सदाशिव को गांधी हत्या में संघ स्वयंसेवक होने के चलते गिरफ्तार किया गया था.

लेकिन तब तक सदाशिव को नहीं पता था कि कुष्ठ रोग उन्हें भी अपनी चपेट में ले चुका है. जेल से बाहर आए तो पहले 10वीं पास कर चुकी बेटी की शादी ग्वालियर के अच्छे परिवार में की और खुद बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के एक क्रिश्चियन लेप्रोसी सेंटर में इलाज के लिए भर्ती हो गए. वहां उनको कई तरह के अनुभव हुए, एक तो ये कि वहां सही से इलाज तभी होगा, जब आप ईसाई बन जाओगे. दूसरे वहां के मरीजों को ये भी लगता था कि अगर मर गए तो हमारा अंतिम संस्कार कौन करेगा. तीसरे कुष्ठ के मरीजों को समाज ऐसी हेय दृष्टि से देखता था कि उनके पास भीख मांगकर गुजारा करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था.
 
कुष्ठ रोग और ईसाई मिशनरियों का जाल

एक दिन उन्होंने वहां के अंग्रेज ड़ॉक्टर एसिक से पूछा कि, “ड़ॉक्टर साहब आप बहुत अच्छी तरह से इलाज करते हो, इसके लिए आपको मेरा धन्यवाद. लेकिन आप इसको धर्मांतरण के लिए इस्तेमाल करते हो, ये अच्छा नहीं है”.  ड़ॉक्टर को भी शायद ये सब पसंद नहीं था, उसने खुलकर कहा, “मिस्टर कात्रे, मैं भी धर्मान्तरण के पक्ष में नहीं हूं, लेकिन मैं मिशनरीज के पादरियों को कैसे रोक सकता हूं?” .  फिर कात्रे ने बात किसी भी तरह राज्यपाल हरिभाऊ पाटसकर तक पहुंचाई. राज्यपाल ने उन्हें सलाह दी कि, “तुम जो कह रहे हो, वह सही है, लेकिन क्या तुम देख सकते हो कि वो यहां इतने समंदर पार करके ये काम करने आ रहे हैं”.  पांचजन्य लिखता है कि राज्यपाल ने उनसे कहा कि अपने आश्रम खोलो और वहां भेदभाव रोको. जाहिर है वह पहले केन्द्र सरकार में मंत्री रहे थे और जानते थे कि सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रही है और ऐसे में ईसाई मिशनरियों को कुछ कहा तो वो ये भी नहीं करेंगी.
 
तब ‘गुरु मंत्र’ ने बदल दी जीवन की दिशा

लेकिन कात्रे ने हार नहीं मानी, बिलासपुर में वो इस धर्मान्तरण का विरोध करते रहे. लेकिन लोग कुष्ठ रोगियों के साथ आने से कतराते ही रहे. कात्रे स्वयंसेवक थे, उनको जब ये सूचना मिली कि खुद संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर ही बिलासपुर दौरे पर आ रहे हैं, तो उनसे मिलने की योजना बनाई और उनसे मिलकर उन्हें पूरी समस्या विस्तार से बताई. गुरु गोलवलकर ने उन्हें कहा कि, “उनके विरोध से कुछ नहीं मिलेगा, बल्कि इससे वैमनस्य उत्पन्न होगा. एक व्यक्ति जो ये सब दर्द झेल रहा है, उसको ही बीड़ा उठाकर इस तरह के कार्य के लिए आगे आना पड़ेगा. आप भी एक स्वयंसेवक हैं और खुद इस बीमारी से पीड़ित हैं, तो क्यों नहीं सोचते कि भगवान ने उपेक्षा के शिकार इस क्षेत्र में काम करने के लिए आपको चुना है?”    

गुरु गोलवलकर की बातों से सदाशिव कात्रे को मानो दिशा ही मिल गई. वो समझ गए कि उनको क्या करना है. गोलवलकर ने उन्हें अमरावती में ‘तपोवन’ संस्था चलाने वाले एक व्यक्ति शिवाजीराव पटवर्धन के पास एक पत्र देकर भेजा. 9 महीने तक सदाशिव कात्रे ने वहां अस्पताल और आश्रम संचालन को समझा. बाद में इस काम के लिए उन्हें स्थानीय स्वयंसेवकों बलिहार सिंह, छोटेलाल स्वर्णकार, जीवनलाल साह, वैद्य गोदावरिश आदि का भी साथ मिला. प्रचारक यादवराव केलकर ने भी अहम भूमिका निभाई. इस तरह 5 अप्रैल 1962 को इस छोटे से इलाके में भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना हुई. उद्देश्य बस एक ही था हर कुष्ठ रोगी को सम्मान से जीने का मौका मिले और सम्मान के साथ ही मौत मिले. लेकिन संस्था बन जाने या पंजीयन हो जाने भर से तो उद्देश्य पूरा नहीं होना वाला था, खुद सदाशिव के हाथ पैरों की उंगलियां गलने लगी थीं. उनको लोग किसी भी सवारी में अपने साथ बैठाते हिचकते, बस में उन्हें बैठाने से ही रोकने लगे थे.

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तब सदाशिव कात्रे ने एक रास्ता खोज निकाला और 55 साल की उम्र में साइकिल चलाना सीखा. सोचिए कभी राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापक लक्ष्मीबाई केलकर ने भी कई बच्चों की मां बनने के बाद संघ कार्य के लिए साइकिल चलाना सीखा था. वह साइकिल के सहारे ही चम्पा व आसपास के इलाकों में घूमने लगे और लोगों से कुष्ठ रोगियों के लिए मदद मांगने लगे. शुरू में लोग काफी मजाक बनाते थे, कि वाह अब साइकिल से भी कुष्ठ रोगी भीख मांगने लगे आदि. लेकिन जनता के बीच कुछ अच्छे लोग भी आपका उद्देश्य और निर्मल हृदय देखकर सहायता के लिए आगे आते हैं. ऐसे पहले व्यक्ति सामने आए लखूरी गांव के साधराम साव केशरवानी. उन्होंने इस नेक कार्य के लिए अपना एक घर ही दे दिया. इसके लिए भी एक जनसंघ नेता जीवनलाल साह ने ही साधराम को कहा था.
 
बिरला और राष्ट्रपति से भी मिला सहयोग

ये घर एक धर्मशाला की तरह प्रयोग में लाया जा रहा था. उसमें एक पानी का कुंआ भी था. इस तरह उस घर से भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की शुरुआत 3 कुष्ठ मरीजों के साथ हुई. लेकिन उनके साथ गुरु गोलवलकर का हाथ था, संघ के कार्यकर्ताओं को उनके लिखित निर्देश कात्रे जी की सहायता के लिए मिल चुके थे. जब तक गुरु गोलवलकर रहे, वो इस संघ को बढ़ाने के लिए किसी ना किसी तरीके सहायता करते रहे. ऐसा ही एक वाकया 1965 का है, जब गुरु गोलवलकर ने नेपाल के राजा महेन्द्र को संघ के मकर संक्रांति उत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया था, लेकिन भारत सरकार ने उनको वीजा की अनुमति नहीं दी और उनका आना रद्द हो गया था.

जांजगीर चापा में बना ये कुष्ठ आश्रम 100 एकड़ में फैला है, यहां 60 एकड़ में तो खेती ही होती है. (Photo: AI generated)

नेपाल राजा के आने की सूचना जुगल किशोऱ बिरला को मिली, तो उन्होंने अखिल भारतीय आर्य हिंदू धर्म सेवा संघ के नाम से 1000 रुपये उस कार्यक्रम के लिए भेज दिए. नेपाल के राजा का कार्य़क्रम रद्द हुआ तो गुरुजी को लगा कि मौका अच्छा है ये धन कुष्ठ रोगियों की सहायता के लिए भेजा जा सकता है. उन्होंने एक पत्र जुगल किशोर बिरला को लिखकर जानकारी दी कि नेपाल के राजा का कार्यक्रम तो रद्द हो गया है लेकिन बिलासपुर जनपद में कुष्ठ रोगियों के लिए बनाए गए भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की सहायता इस पैसे के जरिए अच्छी हो सकती है. आपकी अनुमति और आर्य हिंदू धर्म सेवा संघ की सहमति से कुष्ठ रोगियों की सहायता की जा सकती है”.
 
ये पत्र जिस तरह कुष्ठ रोगियों की परेशानियों का जिक्र करते हुए गुरु गोलवलकर ने लिखा था, उससे बिरला मना नहीं कर पाए और तब ये रकम उनके लिए काफी मददगार साबित हुई. कुष्ठ रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है, अब दूर दूर के परिवार कुष्ठ रोगियों को उनके आश्रम में छोड़ने आने लगे थे, लेकिन जरूरी दवाइयों के लिए धन की व्यवस्था एक समस्या बनी हुई थी. गुरु गोलवलकर के आग्रह पर कई लोगों ने उस कुष्ठ निवारक संघ के लिए धन की व्यवस्था की. आज भी संघ के सभी बड़े अधिकारी ऐसे कई संगठनों की मदद धनवान स्वयंसेवकों या संघ हितैषियों के जरिए करते रहते हैं. 1963 में सदाशिव कात्रे ने भारत के राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन को पत्र लिखा और उन्हें अपने इस आश्रम के बारे में बताया. राष्ट्रपति ने भी उन्हें 1000 रुपये भेजे. कई गांव वाले भी उनके आग्रह पर 1 रुपये महीने की मदद देने लगे और मुट्ठी भर चावल भी, जिसे लेने खुद कात्रे घर घर जाते थे.  

आज इस आश्रम का परिसर करीब 100 एकड़ में है. जिनमें से 60 एकड़ पर तो खेती होती है. करीबी 1 हजार क्विंतल धान उगाया जा रहा है. 3 एकड़ जमीन पर सब्जियों के अलावा हल्दी, अदरक जैसी स्वास्थ्य वर्धक फसलें होती हैं. इस जमीन में अमरूद, आम, जामुन, संतरे, केला, पपीता आदि की भी उपज की जाती है औऱ ये सब आश्रम के मरीजों के लिए ही होता है. अब परिसर में एक अस्पताल भी है और रोगियों के इलाज, रहने, खाने, पीने और वस्त्र आदि का इंतजाम ये आश्रम ही करता है. आजकल वहां रहकर इलाज करवाने वाले कुष्ठ रोगियों की संख्या 150 से 200 के बीच रहती है. ज्यादातर रोगी 60 साल से ऊपर के हैं.
 
उत्तराधिकारी बापट उनसे भी आगे निकल गए

कात्रे एक सामान्य स्वयंसेवक थे, लेकिन इस मिशन को जिस तरह से उन्होंने अपनी जिंदगी का ध्येय बनाया, उससे लोग हैरान थे. धीरे धीरे जो लोग उनका मजाक उड़ाते थे, अब सम्मान से उन्हें बाबा कहने लगे थे. 10 साल आश्रम चलाने के बाद उनको संघ से एक और बड़ी सहायता मिली, एक साथी दामोदर गणेश बापट, जो बनवासी कल्याण आश्रम जसपुर से संघ ने भेजे थे. उनको ये बीमारी नहीं थी, उनके आने का और जोश से काम करने का पहला प्रभाव ये हुआ कि लोगों ने उन्हें देखकर ये मानना शुरू किया कि कुष्ठ की बीमारी ऐसे नहीं फैलती, उनके कुष्ठ रोगियों की सेवा करते देख, लोगों के मन से गलतफहमियां दूर होने लगीं. बहुत जल्द ही वहां काम करने वालों को बसों में सीट मिलने लगी और क्वात्रे नगर का पानी बाकी लोग भी पीने में फिर झिझकते नहीं थे.

बापट जी का करिश्माई काम देखकर सदाशिव क्वात्रे जी ने भी 2 साल के अंदर ही आश्रम की सारी जिम्मेदारी उन्हें ही सौंप दी. 1977 में उनका निधन हो गया. बापट के आने से काम में बड़ी तेजी आई, एक तो बड़ा जागरूकता अभियान कुष्ठ रोग को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करने के लिए चलाया गया, ताकि लोग कुष्ठ रोगियों के साथ गलत बर्ताब ना करें. आश्रम के रोगियों में भी उनके आने से आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हुई, साथ ही बापट ने आश्रम के विस्तार के लिए धन की व्यवस्था पर जोर दिया, ऐसे समाजसेवी लोगों तक उस काम को पहुंचाया, जो इसके लिए धन की सहायता कर सकते थे. दायरा बढ़ता चला गया.

बापट ने गरीब और असहाय बच्चों के लिए आश्रम में एक छात्रावास भी शुरू किया. ना जाने कितने लोग जो अपने बच्चे पाल नहीं पाते, आश्रम में छोड़ जाते, कई तो चुपके से आश्रम के बाहर छोड़ जाते, उनमें से कई बच्चे पढ़-लिखकर देश के अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उनके लिए कुष्ठ निवारक संघ ही घर है, और यहां रहने वाले सगे सम्बंधी. छुटटियां हो या रिटायरमेंट, उनका ठिकाना यही आश्रम होता है. बापट ने अंतिम सांस यानी अगस्त 2019 तक इस आश्रम को अपना सर्वस्व दिया, 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पदमश्री से सम्मानित भी किया था. आज कल भारतीय कुष्ठ निवारक संघ का काम उसके सचिव सुधीर देव संभाल रहे हैं.

पिछली कहानी: RSS की नींव का वो पत्थर जो बना विवेकानंद शिला स्मारक का ‘शिल्पी’

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