Prof. Chetan Singh Solanki’s column: Environmental improvement is possible only through grassroots engagement | प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम: पर्यावरण सुधार जमीनी स्तर पर जुड़ाव से ही सम्भव है

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9 घंटे पहले
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प्रो. चेतन सिंह सोलंकी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर
जलवायु सुधार की तमाम कोशिशें आज जमीनी स्तर पर एक किस्म के “डिसकनेक्ट’ से जूझ रही हैं। दुनिया के नीति-निर्माता, विशेषज्ञ, एनजीओ और थिंक टैंक हर साल बड़े-बड़े सम्मेलनों में भाग लेते है। समझौते और घोषणाएं करते है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन तमाम प्रयासों के बावजूद दुनिया का कार्बन उत्सर्जन हर वर्ष कम होने की बजाय उलटे बढ़ ही रहा है। वर्ष 1995 में जब वैश्विक स्तर का पहला जलवायु परिवर्तन सम्मलेन हुआ था, तब दुनिया में हर साल लगभग 22 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती थी। लेकिन आज, तमाम कवायदों के बावजूद, यह आंकड़ा 40 अरब टन से अधिक हो गया है।
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर का सम्मलेन- जिसमें विश्व की सभी सरकारें भी भाग लेती हैं- यानी सीओपी की 30वीं मीटिंग हाल ही में ब्राजील में सम्पन्न हुई है। लेकिन अगर जलवायु परिवर्तन एक चुनाव होता, तो हमारे ये विशेषज्ञ अब तक 29 बार चुनाव हार चुके होते। फिर भी वे हर बार ज्यादा पॉलिसी, ज्यादा पैसे और ज्यादा टेक्नोलॉजी जैसी रणनीतियों को दोहराते रहते हैं, मानो इस बार इनके नतीजे पहले से अलग होंगे।
असल समस्या यही है कि जो लोग निर्णय लेते हैं, वे जमीन से बहुत दूर हैं। वे कार्बन क्रेडिट, इलेक्ट्रिक व्हीकल का उपयोग, नेट-जीरो और ग्रीन टेक्नोलॉजी को अपनाने की बात करते हैं, लेकिन इन सब का जलवायु सुधार में कितना असर होगा, आम आदमी किस ढंग से इन्हें अपनाएगा या नहीं अपनाएगा, उन्हें ये कम ही समझ आता है। जमीन से दूर रहने वाले लोग आंकड़ों को गिनते हैं, आदतों को नहीं।
पिछले पांच वर्षों से मैं अपना घर और आईआईटी बॉम्बे की नौकरी को छोड़कर- एक बस में रहते हुए-पूरे देश की एक यात्रा कर रहा हूं, जिसका नाम है एनर्जी स्वराज यात्रा। इस यात्रा ने मुझे वो सिखाया है, जो किसी नीति निर्माताओं के दस्तावेजों में नहीं मिलता। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि कौन-सी पहल जमीनी स्तर पर चलती हैं और कौन-सी नहीं। कौन-सी बात लोगों को सच में प्रेरित करती है और किसका उन पर सिर्फ कागजी असर पड़ता है।
हकीकत यह है कि सच्ची जलवायु कार्रवाई न तो तकनीक से शुरू होती है, न ही नीतियों से। यह शुरू होती है मानव व्यवहार को समझने से- लोगों के साथ संवाद से, सहभागिता से और जिम्मेदारी के बोध से। अधिकांश नीतियां जलवायु सुधार को एक बाहरी समस्या मानती हैं, जिसे सरकारें या कंपनियां सुलझाएंगी। लेकिन सच्चाई यह है कि ऊपर से कभी कोई सुधार नहीं होता, यह जमीन से जुड़ाव से ही होता है। नीतियां और तकनीक केवल औजार हैं- समाधान नहीं। जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, ये औजार किसी काम के नहीं हैं।
मेरी यात्रा ने मुझे यह सिखाया है कि जलवायु सुधार की पहली शर्त धरती की सीमितता को स्वीकार करना है। हर व्यक्ति और हर नीति-निर्माता को समझना होगा की एक सीमित धरती पर असीमित उपयोग संभव नहीं है। जब धरती सीमित है, इसके खनिज और मिट्टी भी सीमित हैं, तो हमारी अलमारियों में कपड़ों की संख्या, हमारी सड़कों पर गाड़ियों की संख्या और हमारे शहरों में इमारतों की संख्या भी सीमित ही रखनी पड़ेगी।
जब यह समझ जन-जन के दिल और दिमाग में उतर नहीं जाती है, तब तक नीति और तकनीक का सही उपयोग संभव नहीं होगा। फाइनाइट अर्थ मूवमेंट (एफईएम) धरती की सीमितता के सत्य पर आधारित है। दुर्भाग्य से, ज्यादातर थिंक टैंक, एनजीओ और वैश्विक नेता अब भी इस बुनियादी सच को नजरअंदाज कर रहे हैं। वे पर्यावरणीय संकट को आर्थिक उन्नति से हल करने की कोशिश कर रहे हैं। वे उपभोग की समस्या को बिना उपभोग घटाए सुलझाना चाहते हैं।
जब तक ये नीति-निर्माता और विशेषज्ञ जमीन पर नहीं आएंगे, तब तक बात और बदलाव के बीच की दूरी बढ़ती ही जाएगी। चाहे राजनीति में हो या जलवायु में सुधार, यदि आपको बदलाव चाहिए, तो सबसे पहले जमीन से जुड़ना पड़ेगा।
अधिकांश नीतियां जलवायु सुधार को एक बाहरी समस्या मानती हैं, जिसे सरकारें या कंपनियां सुलझाएंगी। लेकिन सच्चाई यह है कि ऊपर से कभी कोई सुधार नहीं होता, यह जमीन से जुड़ाव से ही होता है। नीतियां और तकनीक केवल औजार हैं- समाधान नहीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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