N. Raghuraman’s column: Identify whether a child’s loneliness is due to shyness or social anxiety | एन. रघुरामन का कॉलम: बच्चे का अकेलापन शर्मीला स्वभाव है या सोशल एंग्जायटी, इसकी पहचान करें

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13 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
करीब एक मिनट तक किसी ने दरवाजा नहीं खोला। बाहर इंतजार कर रही मां बेचैन हो रही थीं। कम से कम दो बार डोरबेल बजा चुकी थीं। बच्चों के शोर करने की आवाजें सुनकर बाहर खड़ी महिला को दरवाजा खुलने में हो रही देरी का कारण समझ आ रहा था। लेकिन उनके लिए ये इंतजार चिंता बढ़ाने वाला था, क्योंकि भीतर से आ रहे शोर में वो अपने 13 वर्ष के बेटे की आवाज नहीं सुन पा रही थीं।
उसके मन में बेटे के सहज व्यवहार की तस्वीर उभरने लगी थी- पार्टी में होते हुए भी अकेलापन। पिछले कुछ दिनों से वह इसे पहचानने और अंतर समझने की कोशिश कर रही थी कि बेटे का अकेलापन सामान्य शर्मीलापन है या सोशल एंग्जायटी। और इसी ने उन्हें बिना बुलाए यहां आने को मजबूर कर दिया।
सौभाग्य से कुछ खरीदारी के बाद घर का मालिक वापस लौटा, जिसके पास मेन गेट की चाबी थी। उसने दरवाजा खोला और महिला ने देखा कि अंदर पार्टी चल रही थी, जहां उनका बेटा अलग-थलग किसी और चीज को देख रहा था। एक पल के लिए मां को लगा जैसे वह बाहर ठंड में खड़ी हैं। उनका हाथ खिड़की के शीशे पर है और बेटा अंदर अकेला बैठा है- इतना करीब कि वे उसका दर्द देख सकती हैं, लेकिन उसे कम करने में असहाय है। यह दुख, सुरक्षा और मजबूरी का मिला-जुला एहसास था।
इस सप्ताह भोपाल के एक शैक्षणिक संस्थान में मेंटर्स से मेरी चर्चा में छात्रों में बढ़ती अकेलेपन की समस्या एक गंभीर विषय के तौर पर सामने आई। इसने मुझे कुछ बाल मनोवैज्ञानिकों से बात करने पर मजबूर किया, ताकि गंभीरता को समझा जा सके। उसके कुछ प्रमुख अंश यहां पेश हैं।
आज के बच्चे पहले से कहीं अधिक अकेले हैं। 37 देशों के दस लाख किशोरों पर किए एक अध्ययन में यही सामने आया। 2012 की तुलना में 2018 में अकेलापन दोगुना हो गया है। कोविड से यह अलगाव और गहराया। 2021 में कनाडा जैसे कुछ विकसित देशों ने अकेलेपन को नेशनल क्वालिटी लाइफ फ्रेमवर्क में एक संकेतक के तौर पर शामिल कर लिया।
अध्ययन में सामने आया कि 15-24 वर्ष आयु वर्ग के युवाओं में अकेलापन महसूस करने की दर अधिक है। हर 4 में से 1 युवा ने कहा, वे ‘हमेशा’ या ‘अक्सर’ अकेलापन महसूस करते हैं। बचपन की दोस्ती का बदलता स्वरूप, अनियोजित खेल-कूद में कमी, सतत डिजिटल जुड़ाव- इन सबने सामाजिक अलगाव बढ़ाया है।
तलाकशुदा माता-पिता के बीच पिसते बच्चों में तो ये और नजर आता है, क्योंकि वे स्थायी दोस्त नहीं बना पाते। जिन घरों में जरूरत से अधिक अनुशासन होता है और बच्चों के पास मन से खेलने के लिए समय नहीं होता। रिपोर्ट के मुताबिक तकनीक को लेकर कड़ी बाध्यताएं (भले ही नेक इरादे से हो) भी कुछ बच्चों को अलग-थलग कर सकती हैं। क्योंकि जिनके पास गेमिंग सिस्टम नहीं होते या जिनका टेक्नोलॉजी टाइम बहुत सख्त होता है, वे साझा अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। इसलिए माता-पिता के लिए यह तालमेल बैठा पाना चुनौतीपूर्ण है। यहां कुछ उपाय हैं-
1. सोशल टाइम को प्राथमिकता : परिवार के तय समय में से अनौपचारिक रिलेशनशिप बिल्डिंग अनुभवों के लिए जगह बनाएं। क्रिकेट मैच या किसी कॉन्सर्ट में जाएं तो बच्चे के दोस्त के लिए अतिरिक्त टिकट खरीदें। यह बिना दबाव वाला समय हो, जो दोस्ती पनपने में मददगार बने। 2. लोकप्रियता नहीं, समावेशिता को बढ़ावा दें : सामुदायिक संबंध बनाना, अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ मेलजोल से भले लोकप्रियता कम हो सकती है, लेकिन चंद सच्चे दोस्त बड़े और दिखावटी सोशल सर्कल से अधिक मूल्यवान होते हैं। 3. सोशल एंग्जायटी को पहचानें : कुछ बच्चे अपेक्षाकृत छोटे समूह पसंद करते हैं और स्वभाव से शांत होते हैं और यही उनका मिजाज होता है। लेकिन सोशल एंग्जायटी तब होती है, जब बच्चा जुड़ना तो चाहता है, लेकिन रिजेक्शन का डर उसे रोक देता है। इससे शर्मिंदगी पैदा होती है।
फंडा यह है कि शर्मीलेपन और सोशल एंग्जायटी में फर्क जानना पैरेंट्स के लिए सही ढंग से प्रतिक्रिया देने में मददगार होगा। जरूरत पड़ने पर वे बच्चे को प्रोफेशनल गाइडेंस और वास्तविक सहारा दे पाएंगे।
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