Neerja Chowdhary’s column: Without a convener, the India alliance appears directionless. | नीरजा चौधरी का कॉलम: संयोजक के बिना दिशाहीन लग रहा है इंडिया गठबंधन

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6 घंटे पहले
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नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार
लोकसभा चुनावों के बाद विभिन्न राज्यों में हुए प्रमुख विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों को जिस तरह से करारी हार मिली है, उसने इंडिया गठबंधन के भविष्य और प्रासंगिकता को लेकर गहरी चिंता में डाल दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी और उसकी अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन को टक्कर देने के लिए जुलाई 2023 में बनाया गया इंडिया गठजोड़ आज दिशाहीन और संरचनात्मक तौर पर खोखला नजर आ रहा है।
भाजपा एक के बाद एक राज्यों को जीतकर जिस प्रकार से अपनी देशव्यापी मौजूदगी बढ़ा रही है, उससे बहुत-से विपक्षी नेताओं को लगता है कि वह जल्द ही लगभग पूरे देश में अपना प्रभुत्व कायम कर लेगी। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में उसका मात्र 240 सीटों पर सीमित होकर बहुमत से चूक जाना तो अभी से ही बीते दिनों की भूली-बिसरी बात जैसा लगने लग गया है।
खुद इंडिया गठबंधन के भीतर की दिशाहीनता ने इन चिंताओं को और बढ़ाया है। गठन के दो साल बाद भी इस गठबंधन का कोई कन्वीनर (संयोजक) ही नहीं है, जो किसी भी गठबंधन की संगठनात्मक जरूरत होती है। ऐसे में धारणा यही बन गई है कि राहुल गांधी ही इस गठबंधन के अघोषित मुखिया हैं।
इसी असमंजस के चलते विपक्षी खेमे में स्पष्ट नेतृत्व की मांग को भी बल मिलता है। मसलन, हाल ही में एक सुझाव आया कि संयोजक की भूमिका का दायित्व अखिलेश यादव को सौंपा जाए। राजनीतिक रूप से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख नेता होने के नाते अखिलेश का कद भी बड़ा है।
आखिर यह उत्तर प्रदेश ही है, जिसने राष्ट्रीय परिदृश्य पर नेहरू-गांधी परिवार से लेकर नरेंद्र मोदी से तक कई नेताओं की किस्मत तय की है। 2014 में उत्तर प्रदेश में जीती गई 71 सीटों ने ही नरेंद्र मोदी को बहुमत से आगे पहुंचा दिया था। लेकिन 2024 में इसी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ ने 45 सीटें झटक लीं तो भाजपा 2019 की 62 सीटों के मुकाबले 33 पर सिमट गई। नतीजा, राष्ट्रीय स्तर पर उसकी सीटें बहुमत से भी कम रह गईं।
ऐसे में यह एक ठोस तर्क है कि कन्वीनर के तौर पर अखिलेश को आगे करने से उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन को मजबूती मिल सकती है, जहां 2029 के आम चुनावों से पहले एक विधानसभा चुनाव के रूप में ‘सियासी सेमीफाइनल’ खेला जाएगा।
2024 में अति पिछड़ा वर्ग को साथ लाने और जातीय उग्रता पर अंकुश लगाने वाली अखिलेश की पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) रणनीति चुनावी रूप से बेहद कारगर साबित हुई थी। राहुल गांधी के साथ नजर आ रहे उनके तालमेल ने भी गठबंधन को रफ्तार दी थी।
वास्तव में, इंडिया गठबंधन को अपनी बुनावट के अनुसार ही क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपने राज्यों में खुद की रणनीति बनाने की आजादी देनी चाहिए। साथ ही गठबंधन को हिंदी पट्टी में सेंध लगाने की केंद्रीय रणनीतिक चुनौती का भी सामना करना पड़ेगा।
क्योंकि इसके बिना वह किसी भी राष्ट्रीय मुकाबले में भारतीय जनता पार्टी से कमजोर ही रहेगी। कई लोग मानते हैं कि यदि 2023 में नीतीश कुमार को इंडिया का संयोजक बना दिया गया होता, तो आम चुनाव में बिहार से विपक्ष को कहीं बेहतर परिणाम मिल सकते थे।
अखिलेश यादव का यह कहना बिलकुल दुरुस्त है कि इंडिया गठबंधन को आगे बढ़ाने के लिए इसके नेताओं को पहले अपने गढ़ मजबूत करने होंगे। ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल और एमके स्टालिन को तमिलनाडु बचाना ही होगा।
कांग्रेस और वामदलों को 2026 में केरल की जंग लड़नी होगी। और फिर 2027 में उत्तरप्रदेश, गुजरात और पंजाब के चुनावों में जान लगानी होगी, जो भारतीय राजनीति का भविष्य तय करने में निर्णायक भूमिका निभाएंगे।
कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि कन्वीनर भले अखिलेश हों या काेई और, इंडिया गठबंधन को जल्द से जल्द अपनी नींद से जागना होगा। अगर गठबंधन सच में ही भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोकना चाहता है तो उसे एक ऐसे कन्वीनर की जरूरत है, जो रणनीतियों में तालमेल बिठा सके, एकजुटता रख सके और एक साझा नैरेटिव गढ़ सके।
इंडिया गठबंधन को नींद से जागना होगा। अगर वो सच में ही भाजपा के विजय रथ को रोकना चाहता है तो उसे एक ऐसे कन्वीनर की जरूरत है, जो रणनीतियों में तालमेल बिठा सके, एकजुटता रख सके और एक साझा नैरेटिव गढ़ सके। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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