संघ के 100 साल: विभाजन के बलिदानी स्वयंसेवकों की ये कहानियां आंखों में आंसू ला देंगी – Sangh 100 years 1947 partition pakistan and lahore ntcppl

विभाजन की विभीषिका पर मोदी सरकार ने ऐसे ही एक विशेष दिन समर्पित नहीं किया. धीरे धीरे लोग उन्हें भूलते जा रहे थे, दर्द भूलना जरूरी हो सकता है, लेकिन जिन लोगों ने अपना बलिदान देकर लाखों लोगों को पाकिस्तान से सुरक्षित निकालकर भारत पहुंचाया, उनकी कहानियां तो हर पीढ़ी को बताना जरूरी है. हालांकि हजारों ऐसे थे, जिनके नाम किसी किताब या इतिहास में दर्ज नहीं हुए, लेकिन कई बलिदानियों के नाम और उनके साहसपूर्ण बलिदान की कहानियां माणिक चंद्र बाजपेयी और श्रीधर पराडकर ने अपनी पुस्तक ‘ज्योति जला निज प्राण की’ (सुरुचि प्रकाशन) जैसी कुछ किताबों में समेटी हैं.
अभिनेता प्राण का घर भी फूंक दिया था लाहौर में
जैसे ही भारत विभाजन योजना और पाकिस्तान नाम के नए देश का ऐलान हुआ था, पंजाब के उन शहरों में रह रहे हिंदुओं में बैचेनी फैल गई थी. उनके पड़ोसियों की नजरें उनकी सम्पत्ति पर थीं, और गुंडों की नजर उनकी लड़कियों, महिलाओं पर. आजादी से पहले लाहौर में पंजाबी फिल्मों के तब के सुपरस्टार और बाद में हिंदी फिल्मों के खलनायक प्राण ने ऐसे में माहौल में अपने पत्नी बच्चों को इंदौर में पत्नी की बहन के यहां छोड़ा, वापस गए तो देखा कि उनका घर लूटकर उसमें आग लगा दी गई थी, सब खाक हो चुका था. प्राण ने जिंदगी भर पाकिस्तान वापस ना लौटने की कसम खाई. प्राण तो वापस आ गए लेकिन आम हिंदू के पास इतना पैसा नहीं था और अपना घर छोड़ना आसान नहीं था. मुस्लिम नेता भी भरोसा दे रहे थे कि कुछ नहीं होगा, यहीं रहिए.
हालांकि इन सभी इलाकों में संघ की शाखाएं काफी मजबूत स्थिति में थीं. संघ स्वयंसेवकों को निर्देश थे कि आखिरी दम तक लोगों के जान-माल की सुरक्षा करनी है. लाहौर का शाहआलमी दरवाजा ऐसा इलाका था, जो पुराने शहर में जाने के लिए हिदुओं का सबसे सुरक्षित रास्ता था. आसपास के इलाकों में संघ के कई कार्यकर्ता यहां रहते थे, तंग गलियों और लोहे के फाटकों ने इस क्षेत्र को दुर्ग का रुप दे दिया था. लेकिन मुस्लिम लीग के लोग लगातार पुलिस संरक्षण में हिंदू मोहल्लों पर नजर रखते थे. लाहौर के सरीन मौहल्ले में कत्ल ए आम के बाद अब हिंदुओं का ना पुलिस पर भरोसा था और ना ही स्थानीय मुस्लिम नेताओं पर.
गढ़ आला पण सिंह गेला
1947 में मार्च का महीना था, एक दिन दोपहर में हजारों मुसलमानों की भीड़ शाहआलमी दरवाजे के बाहर जमा होने लगी. उनको पुलिस का भी डर नहीं था क्योंकि कुख्यात मजिस्ट्रेट चीमा खुलकर तब हिंदुओं के विरोध में आ गया था. बारूदखाने के लोग तब बड़े कुख्यात थे, उनके लोग भी जुटने लगे, तो लोगों ने संघ के स्वयंसेवकों को जानकारी दी. सबको लग गया था कि कभी भी इस मोहल्ले पर हमला हो सकता है. सरीन मोहल्ले में जो हुआ था, उसके चलते वो और खौफ में थे. ऐसे में संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक महेन्द्र ने मोर्चा संभाला और परी मोहल्ले की तरफ से नौजवानों की भीड़ लेकर भिड़ गया. वो सारी भीड़ जो हमला करने आई थी, जवाबी हमले के लिए तैयार नहीं थी, निकल भागी. लेकिन चीमा को जब ये खबर लगी तो वो पुलिस की टुकड़ियों को लेकर उनकी सहायता के लिए वहां पहुंच गया. इलाके में 24 घंटे के कर्फ्यू का ऐलान कर दिया गया.
उसी कर्फ्यू में उस हिंदू बाहुल्य इलाके की कई दुकानों में आग लगा दी गई, पुलिस देखती रही. पुलिस ने उस इलाके की बिजली काट दी, फोन काट दिए और सबसे बड़ी बात पानी का कनेक्शन भी काट दिया गया. सोचिए आग लगी हो और पानी ना हो. घी, तेल, राशन की दुकानों में लगी आग ने रौद्र रूप धारण कर लिया. महेन्द्र जैसे कई स्वयंसेवकों ने मोर्चा संभाला और कुएं से पानी निकाल निकाल कर आग बुझाना शुरू कर दिया. तभी किसी ने याद दिलाया कि गांधी स्क्वायर के पास कुएं से पानी खींचने का इंजन है. पुलिस की गोलियों के बीच, कर्फ्यू में भी महेन्द्र कुछ स्वयंसेवकों को लेकर गए और वो इंजन किसी भी तरह खींच कर लाए. पानी की गति तो बढ़ी लेकिन लगा नहीं कि आग बुझेगी, तो तय किया गया कि दुकानें ध्वस्त कर दी जाएं. वही किया गया, दुकानें तो बर्बाद हुईं लेकिन पूरा मोहल्ला जलने से बचा लिया गया. तब लोगों ने सुध ली महेन्द्र की, जो लोगों को घरों से निकाल निकाल कर जलने से बचाते बचाते खुद झुलस गए थे. उनको फौरन हॉस्पिटल पहुंचाया गया, 3 दिन बाद इस होनहार नौजवान ने दम तोड़ दिया.
पत्नी का मुंह भी नहीं देख पाया ये स्वयंसेवक
संघ ने आजादी से काफी पहले ही पंजाब रिलीफ कमेटी नाम से एक संस्था बना दी थी ताकि पश्चिमी पंजाब में विभाजन की वजह से संकट झेल रहे परिवारों की सहायता की जा सके. इस कमेटी का एक बड़ा काम था, जो लोग वहां से निकलकर अमृतसर, दिल्ली या किसी और शहर में जाने के लिए रेलवे स्टेशन आना चाहते थे, उनको घर से सुरक्षित स्टेशन तक पहुंचाना. आज भले ही इस पर हैरानी हो, लेकिन उन दिनों ये काम भी खतरों से भरा होता था, तमाम अच्छे लोग हिंदू मुसलमानों में थे, लेकिन ये भी सच है कि काफी लोग साम्प्रदायिक भी हो चुके थे. वहीं अपराधी तत्व भी काफी हावी थे. जो छोड़कर जा रहा हो, उसका माल लूटना, लड़कियों को उठा ले जाना आम था. आज की तरह टैक्सियां तो होती नहीं थी, मध्यवर्ग या गरीब लोगों के लिए तांगा, बैलगाड़ी ही सहारा थे, तांगा शहरों में बहुत चलता था. उन्ही में से एक डॉ वेदप्रकाश नाम के स्वयंसेवक रिलीफ कमेटी के लिए इसी मिशन में जुटे हुए थे.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
आमतौर पर हिंदू तांगेवाला ढूंढना और एक दो स्वयंसेवकों को उनके साथ भेजने की सामान्य सी प्रक्रिया थी. स्वयंसेवको में उसके लिए भी होड़ सी लगती थी कि तांगे के साथ कौन जाएगा. कई बार तो पर्ची डालनी पड़ती थी कि उसका नाम निकला है, वो जाएगी. ऐसा ही उस दिन हुआ था. एक परिवार को सुरक्षित तांगे में स्टेशन छोड़ना था और 8-10 स्वयंसेवक जिद करने लगे कि मैं जाऊंगा. तब पर्ची निकाली गई और उस स्वयंसेवक का नाम निकला जो विवाह करके उसी दिन वापस आया था. वो सहर्ष उस परिवार के साथ स्टेशन गया भी, लेकिन रास्ते में बम फट गया और वह स्वयंसेवक बिना अपनी पत्नी का मुख देखे ही इस दुनिया से चला गया. ना जाने ऐसे कितने बलिदानी थे, जिनके नाम भी आज लोग भूल गए हैं.
मंटो ने ‘जूता’ से बताया लाहौर का सच
कभी श्रीराम के बेटे लव के नाम पर बसा शहर, जिसका आधुनिक रूप भी सर गंगाराम ने दिया था, उसको लेकर लेखक मंटो की एक लघु कहानी थी ‘जूता’. इसमें लिखा है, “हुजूम ने रुख बदला और सर गंगाराम के बुत पर पिल पड़ा. लाठियां बरसाई गईं, ईंटें और पत्थर फेंके गए. एक ने मुँह पर तारकोल मल दिया. दूसरे ने बहुत से पुराने जूते जमा किए और उनका हार बना कर बुत के गले में डालने के लिए आगे बढ़ा. मगर पुलिस आ गई और गोलियां चलना शुरू हुईं. जूतों का हार पहनाने वाला ज़ख़्मी हो गया. चुनांचे मरहम-पट्टी के लिए उसे सर गंगाराम हस्पताल भेज दिया गया.“
मंटो ने मूर्ति की कहानी लिखी है, लेकिन जो मूर्ति के साथ हो रहा था उससे ज्यादा वहां जिंदा इंसानों के साथ हो रहा था. ऐसे में कई जगह संघ के स्वयंसेवक मुस्लिम बाहुल्य इलाकों से घिरी हिंदू गलियों में सुरक्षा देने जाते थे. तो कई बार स्थिति ज्यादा खराब होने पर उनको वहां से सुरक्षित निकालकर शिविरों में लाने का काम भी जान पर खेलकर करते थे. ऐसे में कई स्वयंसेवक हथियारों को भी लेकर चलने लगे थे. उन्हीं में से एक थे डॉ हरवंश लाल. इनके पास कमांडर जीप थी, दो और जीपें थीं, एक बड़ा ट्रक था, कुछ मोटर साइकिलें भी थीं, कई सारी बंदूकें, रिवॉल्वर भी थीं.
वो चारों भूखे ही बलिदान हो गए
14 अगस्त का दिन था, पाकिस्तान पैदा हुआ था, मुस्लिम लीग के कट्टर लोग उस दिन मानो खुशी के पागल ही हो गए थे. हिंदुओं को खुलेआम धमकी दे रहे थे कि बस आज की रात है. ऐसे में हिंदुओं में डर बैठने लगा था. डॉ हरवंशलाल के पास निर्देश आया कि किला गुजरसिंह को तुरंत खाली कर लोगों को शिविर में ले आएं. सुबह से ऑपरेशन शुरू किया गया और 11 बजे तक वो जितने भी लोग लाए जा सकते थे, शिविर में ले आए.
पूरा दल दोपहर के भोजन की तैयारी कर रहा था कि अचानक से फिर फोन की घंटी बजने लगी. हालांकि वहां ये सब आम था लेकिन दूसरी तरफ से जो कुछ कहा गया वो गंभीर था. कहा गया था कि रावी रोड पर कुछ लोग फंसे हैं, उनको तुरंत नहीं निकाला गया तो उनका जीवन खतरे में पड़ सकता है. इधर कुछ कार्यकर्ता जमीन पर लाइन से बैठकर भोजन का इंतजार ही कर रहे थे, सुबह से लगातार काम कर रहे थे, भूख तेज थी. लेकिन डॉ हरवंश लाल आए और बोले, “तुरंत चलो, वहां लोगों की जान को खतरा है और तुम्हें भोजन की पड़ी है”. ऐसे में कोई खाना खा भी कैसे सकता था, सारे स्वयंसेवक उठ खड़े हुए और ट्रक में सवार हो गए.
उन स्वयंसेवकों में एक थे सरदार प्रद्युम्न सिंह, 24 साल के सरदार रावी रोड शाखा के कार्यवाह थे. हमेशा बगल में तलवार लटकाए रहते थे, इतने शानदार तलवार बाज थे कि गुंडे उनसे भिड़कर गई बार मुंह की खा चुके थे. तिलकराज और महेन्द्र नाम के संघ स्वयंसेवक भी उसी ट्रक में सवार थे, इन दोनों कार्यकर्ताओं ने ना जाने कितने परिवारों की जानें बचाई थीं. तीनों ही काफी साहसी थे. ट्रक भी एक और साहसी स्वयंसेवक तारा सिंह चला रहा था. कि रास्ते में बिलोच (बलूच) आर्मी का ट्रक मिल गया. उसने उन्हें रोक लिया. आज भले ही ये लोग बलूचिस्तान के लिए लड़ रहे हैं, उन दिनों इनका एक कट्टर धड़ा केवल इस्लाम के लिए हिंदुओं से लड़ता था. सभी को बुलाकर पूछताछ की कि कहां जा रहे हो और बातचीत के दौरान ही उन पर संगीनों से हमला बोल दिया और ट्रक से उतर आए सभी स्वयंसेवकों पर फायरिंग शुरू कर दी.
स्वयंसेवकों को अनुमान नहीं था कि ये बातचीत के बहाने गोलियां चलाने लगेंगे, एक एक करके सभी गिरते चले गए. हालांकि उन दिनों संघ से जुड़ी एक महिला चिकित्सक की तुरंत चिकित्सा के चलते कई लोगों के जान तो बचा ली गई थी, लेकिन प्रद्युम्न सिंह, तारा सिंह, तिलक राज और महेन्द्र को नहीं बचाया जा सका. उनके साथ घायल हुए ललित सूद जैसे स्वयंसेवक दशकों तक इन बहादुरों के इस दर्दनाक बलिदान को याद करते रहे और ये भी कहते रहे कि बेचारे उस भूखे ही थे, भोजन भी नहीं कर पाए थे. जो लोग बचे वो भी नहीं बच पाते अगर उसी वक्त गोरखा आर्मी का ट्रक ना आ गया होता. गोरखा आर्मी को देखकर वो लोग भाग गए और सभी घायलों को अस्पताल में भर्ती करवाया.
इन सभी बलिदानियों के माता पिता उन दिनों शिविर में ही थे, उन्हें जब ये खबर मिली कि उनके बेटे अब नहीं रहे, तो कलेजा मुंह को आ गया था. लेकिन बाद में ये जानकर गर्व भी हुआ कि एक अच्छे काम के लिए उन्होंने अपनी जान दी है. इन परिवारों को अगले दिन ही भारत भिजवा दिया गया था.
सबको बचाने वाला खुद को नहीं बचा पाया
लाहौर के सरीन मौहल्ले में भी हिंदु बहुतायत थी, संघ की शाखाएं भी थीं. कई बार ये मोहल्ला मुस्लिम लीग के लोगों और सिटी मजिस्ट्रेट चीमा के निशाने पर आया था लेकिन वीरेन्द्र नाम के संघ स्वयंसेवक की दिलेगी और सूझबूछ के चलते लोग थोड़े चिंतामुक्त हो चले थे. वीरेन्द्र संघ का पूर्णकालिक स्वयंसेवक था. लेकिन सिटी मजिस्ट्रेट चीमा ने अब इस ध्वस्त करना मानो अपना लक्ष्य ही बना लिया था. मई के गर्म महीने में अचानक वहां बलूच आर्मी ने हमला बोल दिया, अब तक मुस्लिम लीग के गुंडे आते थे, जिन्हें वीरेन्द्र स्थानीय नौजवानों की सहायता से आसानी से खदेड़ देते थे, लेकिन आधुनिक हथियारों के साथ आए इन नए दुश्मनों से पार पाना आसान नहीं था. बावजूद इसके वीरेन्द्र ने घंटों मोर्चा लिया. लेकिन वीरेन्द्र को काफी गोलियां लग चुकी थीं. काफी खून बह चुका था, एम्बुलेंस से लाहौर के सर गंगाराम हॉस्पिटल लाया गया.
वीरेन्द्र का सफल ऑपरेशन भी हो गया, सारी गोलियां भी शरीर से निकाल दी गई थीं. उम्मीद होने लगी थी कि अब वीरेन्द्र बच जाएगा. लेकिन भगवान को कुछ और ही मंजूर था. आधे घंटे बाद अचानक से वीरेन्द्र की तबियत और खराब होने लगी. बार बार वो एक ही सवाल पूछता था, “क्या मोहल्ला सुरक्षित है”, उसे बताया गया कि हां मोहल्ला सुरक्षित है, कार्यालय से सहायता आ गई है और सब लोग सुरक्षित हैं. उसके चेहरे पर ये सुनकर मुस्कान आ गई थी. थोड़ी देर बाद इसी संतोष के साथ कि उसका बलिदान काम तो आया, वो चुपचाप इस दनिया से चला गया. ये तो केवल पंजाब के उस हिस्से के कुछ बलिदानियों की कहानियां हैं, जो अब पाकिस्तान चला गया है. बंगाल, पंजाब और देश के बाकी हिस्सों में विभाजन के दौरान हजारों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी.
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