संघ के 100 साल: जब स्वयंसेवकों की मदद से ब्रिगेडियर प्रीतम सिंह ने रातोरात एयरस्ट्रिप बना पुंछ को बचाया था – sangh 100 years rss news 1947 india partition volunteers war bhuj air strip ntcppl

आपने 2021 में रिलीज हुई अजय देवगन की फिल्म ‘भुज’ देखी होगी, जिसमें 1971 के युद्ध में 300 महिलाओं की मदद से एयरफोर्स स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्णिक ने भुज में रातोरात बर्बाद एयरस्ट्रिप को दोबारा बनाकर युद्ध का पासा पलट दिया था. आम लोगों की मेहनत की इस कहानी के नायक बने एयरफोर्स के ऑफिसर, वो भी तब जब किसी ने उन पर फिल्म बनाई. भारत के इतिहास में ऐसी तमाम कहानियां हैं, जिनका श्रेय हमेशा नायक को ही मिला, लेकिन उनकी सहायता करने वाले लोगों की चर्चा नहीं होती. इसी तरह ना कभी श्रीनगर एयरपोर्ट से सेना के डकोटा प्लेन उतारने के लिए बर्फ हटाने वाले, सेना संग एयरपोर्ट की सुरक्षा करने वाले स्वयंसेवकों को श्रेय मिला और ना ही पुंछ में ब्रिगेडियर प्रीतम सिंह के साथ मिलकर रातोरात गांव की पतली पगडंडी को एयरस्ट्रिप में बदल देने वाले स्वयंसेवकों को ही.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों में ये हमेशा चर्चा होती रही है कि बंटवारे के दौरान या युद्धों के दौरान संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका कभी उभर कर नहीं आई. उन्हीं में से थी पुंछ के स्वयंसेवकों की भूमिका. पुंछ जिला सीमावर्ती जिला है और उस दौर में भी यहां पांच लाख की जनसंख्या में से 90 हजार हिंदू थे. 1942 में यहां पहली बार संघ के स्वयंसेवकों सूर्यप्रकाश खड़वाल, और मीरपुर के कार्यवाह विश्वनाथ बख्शी के प्रयासों से शाखा शुरू हुई. शुरुआती स्वयंसेवकों में बद्रीनाथ कपाही सुरेन्द्र नाथ फूल, श्रीनिवास शर्मा, ओमप्रकाश गुप्त आदि इस शाखा की नींव के पत्थर बने. बाद में रूपलाल अधिवक्ता को नगर कार्यवाह और ओमप्रकाश गुप्त को मुख्य शिक्षक बनाया गया. लेकिन अमृत सागर नाम के नौजवान ने इन सबसे ज्यादा असर छोड़ा. इतनी तेजी से पुंछ और उसकी तहसीलों में संघ का कार्य़ विस्तार हुआ कि लोग हैरान रह गए.
पाकिस्तान बनने से पहले पुंछ और मीरपुर रावलपिंडी विभाग के तहत आते थे, लेकिन बाद में यह क्षेत्र जम्मू विभाग से जोड़ दिया गया. इधर अमृत सागर को सायं शाखाओं का प्रभारी बना दिया गया. अमृत सागर को ये भी काम सौंपा गया कि जिला केन्द्र से दूर रहने वाले हिंदुओं को सावधान किया जाए, क्योंकि ना पाकिस्तानी सेना की नीयत साफ थी और ना कबाइलियों की. पाकिस्तान की सीमा से छुटपुट हमले शुरू हो चुके थे. पुंछ के कई मुस्लिम भी पाकिस्तान परस्त थे, सो उनके बारे में भी लगातार सूचनाएं आ रही थीं कि अगर पाकिस्तान की तरफ से कोई भी हमला होता है, तो ये लोग खुलकर सहायता कर सकते हैं.
40 हजार शरणार्थी आ चुके थे पुंछ शहर में
पाकिस्तान ने उरी पर कब्जा करने के बाद एक टुकड़ी पुंछ की तरफ भेज दी. पुंछ के पास जम्मू कश्मीर रियासत की सेना की एक टुकड़ी थी, जिसने स्थानीय स्वयंसेवकों और स्थानीय जनता की तरफ से कड़ी मोर्चाबंदी कर ली थी. इसलिए पाक टुकड़ी सफल नहीं हो पा रही थी. हालत ये थी कि धीरे धीरे ग्रामीण इलाकों के हिंदू पड़ोसी बहुसंख्यक मुस्लिमों के रवैये, हमलों व पाक सेना के खौफ से पुंछ जिला मुख्यालय पर आ पहुंचे थे, इस तरह करीब 40 हजार लोग शरणार्थियों की सूरत में शहर में जमा हो चुके थे. दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना बाकी टुकड़ियों के इंतजार में पुंछ शहर से गुजरने वाले रास्तों के ऊपर पहाड़ियों पर कब्जा करने लगी थी.
जापान की कैद से भागे प्रीतम सिंह ने बचाया था पुंछ
इस कहानी के नायक प्रीतम सिंह की कहानी भी काफी दिलचस्प है. प्रीतम फिरोजपुर (पंजाब) के दीना में पैदा हुए थे. उनको 1938 में सिकंदराबाद में 4/19 हैदराबाद रेजीमेंट में कमीशन मिला था. इस रेजीमेंट को आज 4 कुमायूं रेजीमेंट के नाम से जाना जाता है. अगले ही साल दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया और अंग्रेजी सेना कमांडरों ने प्रीतम सिंह को 12, इंडियन इन्फ्रेंट्री ब्रिगेड के साथ सिंगापुर भेज दिया. 8 दिसंबर 1941 को जब वो सिंगापुर में ही 3/16 पंजाब रेजीमेंट में कैप्टन थे, जापानियों से लोहा लेने के लिए उत्तरी मलाया भेज दिए गए. जापानी पूरी तैयारी के साथ आए थे, ऐसे में इनकी यूनिट को बुरी हार का सामना करना पड़ा, ज्यादातर या तो शहीद हो गए या फिर युद्ध बंदी बना लिए गए.
प्रीतम सिंह भी युद्ध बंदी थे, लेकिन तेनगा के जापानी कैम्प से अपने दो साथी अधिकारियों के साथ वो किसी भी तरह वहां से भाग निकले, थाइलैंड के रास्ते बर्मा पहुंचे. वहां से उन दोनों ने दूसरा रास्ता लिया और अकेले प्रीतम ने अलग रास्ता चुना. प्रीतम जंगलों के रास्ते 2000 मील दूर मणिपुर के किसी इलाके में पहुंचे. वहां से दीमापुर और फिर ट्रेन से कलकत्ता. वहां उन्हें आर्मी ह़ॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया. जब मिलिट्री इंटेलीजेंस ने उनकी जांच कर ली, तब उन्हें इस अदम्य साहस के लिए मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया और मेजर बना दिया गया. उसके बाद प्रीतम ने लम्बी छुट्टी ली, शादी भी कर ली.
देश की आजादी के बाद जब 26 अक्टूबर 1947 को राजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, तब भारत ने अपनी सेनाएं भेजीं और 27 की सुबह पालम एयरपोर्ट से पहली यूनिट के तौर पर 1 सिख रेजीमेंट के दीवान रंजीत राय को भेजा गया, दो डकोटा प्लेन के साथ, जिनमें से एक को बीजू पटनायक उड़ा रहे थे. प्रीतम सिंह के दल को भी उन्हीं प्लेन्स में भेजा गया, उसी दिन लेफ्टिनेंट कर्नल का पद और 1 पैरा (कुमायूं) का कमांडिंग ऑफिसर बनाकर. उनको इतना भी मौका नहीं दिया गया कि वो अपनी पत्नी को भी उसके माता-पिता के घर छोड़कर आ सकें.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
बारामूला की रक्षा में दीवान रंजीत राय और श्रीनगर की रक्षा में मेजर सोमनाथ शर्मा जैसे नायकों के शहीद होने के बाद श्रीनगर पर तो कब्जा हो गया था, लेकिन बारामूला अभी बाकी था. 14 नवम्बर तक बारामूला पर फिर से नियंत्रण स्थापित हो चुका था और बीच रास्ते में प्रीतम सिंह की अगुवाई में फोर्स ने 600 कबाइलियों, पाक सैनिकों की लाशें बिछा दी थीं. 18 नवम्बर तक उरी भी वापस कब्जे में आ चुका था. वो मुजफ्फराबाद की ओर बढ़ने की सोच रहे थे कि 20 नवम्बर को उन्हें आदेश मिलता है कि पुंछ पहुंचो. उसे चारों तरफ से दुश्मनों ने घेरा हुआ है और कभी भी वो शहर में अंदर प्रवेश कर सकते हैं.
अब तक रियासती सेना और संघ स्वयंसेवकों की सहायता के लिए 1 पैरा, 2 डोगरा और कैवलरीज के कुछ हथियार बंद दस्ते पहुंच चुके थे, लेकिन राशन और हथियारों के वाहन कुल 24 ही थे. इधर हाजीपीर होते हुए उरी से पुंछ आने का रास्ता उन दिनों आसान नहीं था, उस पर रास्ते में कबाइली मिले, नतीजा ये हुआ कि उनके 16 सैनिक शहीद हो गए और 14 घायल हो गए. ऐसे में वापस लौटने की चर्चा भी हुई, लेकिन घायल सैनिकों को वापस उरी भेजने के लिए कहकर प्रीतम सिंह ने कहा- 1 पैरा तो मिशन पुंछ जाएगी ही.
लकड़ी के पुल में लगी आग तो जुट पड़े स्वयंसेवक
अपनी किताब Poonch, India’s Invincible Citadel (लांसर्स पब्लिशर्स) में ब्रिगेडियर जे एस ग्रेवाल लिखते हैं कि इधर कबाइलियों ने जब देखा कि ये लोग नहीं रुकेंगे तो रास्ते में पड़ने वाले लकड़ी के पुल में भी आग लगा दी. प्रीतम फिर भी नहीं रुके. एक वैकल्पिक रास्ते की तलाश की गई औऱ 419 जवानों और रसद के कुछ वाहनों को लेकर 21 नवम्बर की आधी रात को पुंछ पहुंचने में कामयाब हो ही गए. उस वक्त पुंछ को पूरी तरह भारत से काट दिया गया था. सो जब उन्होंने श्रीनगर मुख्यालय में खबर की तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ. लेकिन माणिक चंद्र बाजपेयी और श्रीधर पराडकर की किताब ‘ज्योति जला निज प्राण की’ में बताया गया है कि पुंछ से 13 किमी दूर छाजन नाम के नाले पर डोगरा सरकार का बनवाया हुआ लकड़ी का पुल था. जिसकी सुरक्षा सेवानिवृत्त सैनिकों के साथ सूबेदार ब्रजलाल कर रहे थे.
किसी को ये पता नहीं था कि भारतीय सेना की कोई टुकड़ी रात में ही इधर इस रास्ते से आ रही है, मिशन एकदम गुप्त रखा गया था. उस पर प्रीतम की सेना ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाकर छुपे हुए कबीलाइयों या पाक सैनिकों को बाहर निकालने की तरकीब आजमा रही थी. उनको ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे के साथ रात में इधर बढ़ता देख ब्रज लाल ने पुंछ के सिविल अधिकारियों को वायरलेस पर पूछा कि क्या किया जाए? जवाब मिला, जो उचित लगे वो करो. ब्रजलाल ने मिट्टी का तेल छिड़ककर उसमें आग लगा दी. औऱ अपनी टुकड़ी को पीछे हटा लिया.
ये किताब ये भी दावा करती है कि सेना के साथ चीफ इंजीनियर दौलतराम शर्मा ने 400 मजदूर डायवर्जन पर लगा दिए थे. लेकिन आसान काम नहीं था. बाद में दौलतराम ने पुंछ में संघ के प्रमुख चेहरे अमृत सागर से सहायता मांगी और सुबह ही 60 स्वयंसेवक कुदाली, बेलचे व अन्य सामान लेकर वहां पहुंचे और 3 घंटे में ही वो काम पूरा कर लिया. ये हो सकता है कि प्रीतम सिंह रात में ही आ गए हों और फिर बाद में बाकी गाड़ियां आई हों.
इधर पुंछ में मोर्चा साधे बैठे कमांडर्स हिम्मत हार चुके थे और वहां से छोड़कर निकल जाने का विचार बना रहे थे क्योंकि राशन भी खत्म हो रहा था. प्रीतम ने उन्हें हिम्मत बंधाई और कहा कि आखिरी गोली रहने तक लड़ेंगे. प्रीतम ने संघ के स्थानीय स्वयंसेवकों व शरणार्थियों से भी मुलाकात की और रियासत की फौज के कमांडर किशन सिंह के साथ मिलकर आसपास की पहाड़ियों पर कुछ हमले भी किए. लेकिन जल्द ही उनकी समझ ये आ गया था कि पहाड़ी पर बैठा दुश्मन सुरक्षित जगह पर है और बाहर से बिना सहायता (रसद औऱ हथियार) आए, इन पर पार पाना आसान नहीं है.
हवाई पट्टी ही था एकमात्र रास्ता
उसके बाद प्रीतम सिंह ने किशन सिंह से चर्चा कर अब तक शरणार्थियों की सेवा व पुंछ की सुरक्षा में लगे स्थानीय लोगों को बुलाया, जिनमें जाहिर तौर पर संघ के प्रमुख चेहरे अमृत सागर भी थे. उन्हीं के साथ सबसे ज्यादा ऐसे लोग थे, जो पुंछ को बचाने के लिए कुछ भी कर सकते थे. प्रीतम सिंह की परेशानी ‘भुज’ फिल्म वाले वाकए से थोड़ी ज्यादा गम्भीर थी, वहां पहले से कोई हवाई पट्टी नहीं थी, यानी नई ही बनानी थी, सो समय ज्यादा ही लगना था, दुश्मन की चाल का पता करना असम्भव था और राशन तेजी से खत्म हो रहा था, गोला बारूद भी.
बावजूद इसके संघ के स्वयंसेवक जुट गए, एक पगडंडी को चौड़ा कर हवाई पट्टी में तब्दील करने और पास में लगे हजूरीबाग बागीचा को समतल करने के लिए अभियान तेजी से शुरू हुआ. बड़े बड़े पेड़ काट डाले गए, कुछ मकान भी गिराए गए. माणिक चंद्र बाजपेयी की किताब में बाकायदा इस काम में जुटने वाले स्वयंसेवकों व अन्य लोगों के नाम दिए गए हैं, उनमें मास्टर मूलराज शर्मा, सरदार कुबेर सिंह, मास्टर बेलीराम, ज्ञानी जीवन सिंह, ज्ञानी ठाकुर सिंह, बाबू बिहारी लाल, सरदार गोपीचंद ठेकेदार, मुंशीलाल आदि शामिल हैं.
‘शेर बच्चा’ बन गए प्रीतम सिंह
10 दिन के अंदर दिसम्बर के पहले हफ्ते में तो एयरस्ट्रिप बनकर तैयार हो चुकी थी. 6 दिसम्बर को प्रीतम सिंह ब्रिगेडियर प्रीतम सिंह बन गए. वहां पहला विमान ग्रुप कैप्टन बाबा मेहर सिंह और एयर मार्शल सुब्रतो मुखर्जी लेकर उतरे. विमान चालकों और ब्रिगेडियर प्रीतम सिंह को लोगों ने फूलमालाओं से लाद दिया. मौत के मुंह में जाने से बाल बाल बचे लोगों के लिए देवदूत थे वो लोग. उसी शाम एक डकोटा विमान भी हथियारों, रसद के साथ उतरा. फिर तो मानो एक के बाद एक प्लेन वहां उतरने लगे. स्थानीय लोग प्रीतम सिंह से इतने खुश थे कि उनका नाम ही रख दिया ‘शेर बच्चा’. बाद में प्रीतम सिंह ने पुंछ के युवाओं की दो यूनिट बनाईं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पुंछ के काफी नौजवान पहले भी सेना में भर्ती हुए थे.
हालांकि पहाड़ियों से पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों को हटाते हटाते एक साल लग गया, 1 जनवरी 1949 को जब युद्ध विराम हुआ, तभी पुंछ के लोग राहत की सांस ले पाए, लेकिन आखिरी समझौते में पुंछ का कुछ हिस्सा पाकिस्तान में ही रह गया, लाइन ऑफ कंट्रोल के उस पार. ऐसे में वो 40000 लोगों के परिवार आज भी सरदार प्रीतम सिंह और संघ के अमृत सागर जैसे लोगों को मानते हैं. ये अलग बात है कि उस दौरान पुंछ के राजा द्वारा दर्ज कराए गए एक मामले के आधार पर, जिसमें ब्रिगेडियर प्रीतम पर उनके घर, जिसे फोर्स मुख्यालय में बदल दिया था, से बहुमूल्य विरासती वस्तुओं की चोरी का आरोप लगाया गया. उनका कोर्ट मार्शल कर दिया गया. हालांकि सेना के दिग्गज आज भी ये मानते हैं कि राजा खुद अपनी प्रजा को छोड़कर भाग गया था, और प्रीतम सिंह के इस ऐतिहासिक योगदान को देखते हुए उन्हें राष्ट्रपति की तरफ से माफी मिल जानी चाहिए थी.
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