Friday 04/ 07/ 2025 

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वीर सावरकर से क्यों खौफ खाते थे अंग्रेज? जानें, उन्हें किसलिए मिली थी कालापानी की सजा

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विनायक दामोदर सावरकर उर्फ वीर सावरकर।

Veer Savarkar Birth Anniversary: वीर सावरकर, जिनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर क्रांतिकारियों में से एक थे। उन्होंने अपने साहस, बौद्धिक शक्ति और दृढ़ संकल्प से अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी। सावरकर अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी इसलिए बने, क्योंकि उन्होंने न केवल सशस्त्र क्रांति की अलख जगाई, बल्कि अपने लेखन और हिंदुत्व की विचारधारा के माध्यम से भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता की चेतना को प्रज्वलित किया। उनकी निर्भीकता और वैचारिक दृढ़ता से अंग्रेज खौफ खाते थे। सावरकर ने अंग्रेजों को यह एहसास कराया कि वह केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक ऐसी विचारधारा के प्रतीक हैं, जो उनके साम्राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा थी।

अंग्रेजों के लिए सावरकर क्यों थे खतरा?

28 मई, 1883 को नासिक, महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर ने युवावस्था से ही अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उनकी किताब ‘The Indian War of Independence 1857’ ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को एक संगठित क्रांति के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे अंग्रेजों ने ‘सिपाही विद्रोह’ कहकर कमतर करने की कोशिश की थी। इस पुस्तक को अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि यह भारतीयों में स्वतंत्रता की भावना को उभार रही थी। सावरकर ने लंदन में ‘अभिनव भारत’ और ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ जैसे संगठनों की स्थापना की, जिनके माध्यम से उन्होंने भारतीय युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया। उनकी इन गतिविधियों ने अंग्रेजों को इतना डरा दिया कि वे उनकी हर गतिविधि पर नजर रखने लगे।

सावरकर का डर अंग्रेजों के मन में इसलिए भी था, क्योंकि वे केवल एक क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि एक प्रखर विचारक भी थे। उनकी हिंदुत्व की अवधारणा ने भारतीय समाज को एकजुट करने का कार्य किया, जिसे अंग्रेज अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से कमजोर करना चाहते थे। उनके लेखन और भाषणों में देशभक्ति और स्वाभिमान की ऐसी आग थी कि अंग्रेजों को डर था कि यह आग उनके साम्राज्य को भस्म कर देगी।

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वीर सावरकर की गिनती देश के महानतम क्रांतिकारियों में होती है।

सावरकर को कालापानी क्यों भेजा गया?

सावरकर की क्रांतिकारी गतिविधियों ने अंग्रेजी शासन को सीधी चुनौती दी, जिसके चलते उन्हें 1910 में लंदन में गिरफ्तार किया गया। उनकी गिरफ्तारी का प्रमुख कारण नासिक षड्यंत्र कांड था, जिसमें उनके अनुज गणेश सावरकर भी शामिल थे। इस कांड में नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या की साजिश रची गई थी, जिसे अंग्रेजों ने सावरकर से जोड़ा। इसके अलावा, सावरकर ने लंदन में रहते हुए भारतीय छात्रों को हथियारों का प्रशिक्षण देने और क्रांतिकारी साहित्य वितरित करने का कार्य किया, जो अंग्रेजों के लिए असहनीय था। उनकी पुस्तक ‘The Indian War of Independence 1857’ को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक खतरनाक दस्तावेज माना गया।

सावरकर की इन सभी गतिविधियों ने अंग्रेज इतने भयभीत हो गए कि उन्होंने सावरकर को भारत लाने के लिए फ्रांस के तट से उनकी गिरफ्तारी की और 1911 में उन्हें 2 आजीवन कारावास की सजा सुनाकर अंडमान की सेलुलर जेल, यानी कालापानी, भेज दिया। अंग्रेजों का मानना था कि कालापानी की अमानवीय यातनाएं सावरकर के क्रांतिकारी विचारों को कुचल देंगी, लेकिन सावरकर ने वहां भी हार नहीं मानी।

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जेल के कपड़ों में वीर सावरकर।

स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर का योगदान

सावरकर का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान बहुआयामी था। उन्होंने लंदन में मैडम भिकाजी कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर वैश्विक मंच पर भारत के संघर्ष को आवाज दी। उनकी पुस्तक ‘The Indian War of Independence 1857’ ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई। ‘अभिनव भारत’ के माध्यम से उन्होंने सशस्त्र क्रांति की नींव रखी, जिसने कई युवाओं को प्रेरित किया। नासिक षड्यंत्र कांड इसका एक उदाहरण है, जिसने अंग्रेजी शासन को हिलाकर रख दिया। कालापानी की सजा के दौरान, सेलुलर जेल की अमानवीय यातनाओं के बावजूद, सावरकर ने अपने विचारों को जीवित रखा।

सावरकर ने जेल की दीवारों पर कविताएं लिखीं, जो बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा बनीं। उनकी कालजयी रचना ‘हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू?’ ने भारतीय संस्कृति और पहचान को एक नया आयाम दिया। सावरकर ने हिंदू महासभा के माध्यम से सामाजिक सुधारों को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। उन्होंने अछूतोद्धार, महिलाओं के अधिकार और सामाजिक समरसता जैसे मुद्दों पर काम किया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को एक व्यापक आधार प्रदान किया।

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वीर सावरकर अपने परिवार के साथ।

सावरकर की आलोचनाओं का खोखलापन

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी और विचारक सावरकर आज भी कुछ लोगों द्वारा आलोचना के केंद्र में रहते हैं। उनकी आलोचना मुख्य रूप से कुछ विशिष्ट कारणों से होती है, जैसे कि उनकी कथित माफी याचिकाएं, हिंदुत्व की विचारधारा, और अंग्रेजों के साथ कथित सहयोग। हालांकि, इन आलोचनाओं को ऐतिहासिक तथ्यों और संदर्भों के आधार पर गलत या अतिशयोक्तिपूर्ण माना जा सकता है। सावरकर का योगदान और उनकी परिस्थितियों को समझे बिना की गई आलोचना न केवल अनुचित है, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के उनके अतुलनीय योगदान को कमतर करने की कोशिश भी है।

माफी याचिकाएं (Mercy Petitions): कुछ लोग सावरकर पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने अंडमान की सेलुलर जेल में कालापानी की सजा के दौरान अंग्रेजों को माफी याचिकाएँ लिखीं और अपनी रिहाई के लिए समझौता किया। आलोचकों का दावा है कि यह उनकी कमजोरी और देशभक्ति की कमी को दर्शाता है।

खंडन: यह आलोचना ऐतिहासिक संदर्भ को नजरअंदाज करती है। सावरकर को 1911 में 2 आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, जो उस समय किसी भी स्वतंत्रता सेनानी के लिए सबसे कठोर सजा थी। सेलुलर जेल में अमानवीय यातनाएं, जैसे कोल्हू में बैल की तरह जुतना, भोजन की कमी, और एकांत कारावास, कैदियों को तोड़ने के लिए डिजाइन की गई थीं। सावरकर ने माफी याचिकाएं लिखीं, लेकिन ये याचिकाएं रणनीतिक थीं, क्योंकि उस समय कई क्रांतिकारियों और राजनेताओं ने जेल से रिहा होने के लिए ऐसी याचिकाएं दी थीं। यह उनकी रिहाई के लिए एक सामान्य प्रक्रिया थी, न कि देशभक्ति की कमी का प्रतीक। रिहाई के बाद भी सावरकर ने हिंदू महासभा के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया। उनकी याचिकाओं को कमजोरी के रूप में देखना उनके संघर्ष और बलिदान को कमतर करना है।

हिंदुत्व की विचारधारा: सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा को कुछ लोग सांप्रदायिक और विभाजनकारी मानते हैं। उनकी पुस्तक हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू? को आधार बनाकर आलोचक कहते हैं कि यह विचारधारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ थी और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती थी।

खंडन: सावरकर का हिंदुत्व सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक था, न कि धार्मिक कट्टरता का। उन्होंने हिंदुत्व को एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में परिभाषित किया, जिसमें भारत की सभ्यता, इतिहास और संस्कृति को महत्व दिया गया। उनका हिंदुत्व समावेशी था, जो भारत में जन्मे सभी लोगों को एकजुट करने की बात करता था, चाहे उनका धर्म कोई भी हो। सावरकर ने अछूतोद्धार और सामाजिक समरसता जैसे मुद्दों पर काम किया, जो उनकी समावेशी सोच को दर्शाता है। उनकी विचारधारा का उद्देश्य अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का मुकाबला करना था। इसे सांप्रदायिक करार देना ऐतिहासिक तथ्यों की गलत व्याख्या है।

अंग्रेजों के साथ कथित सहयोग: कुछ आलोचक दावा करते हैं कि सावरकर ने रिहाई के बाद अंग्रेजों के साथ सहयोग किया और स्वतंत्रता संग्राम से दूरी बना ली।

खंडन: यह आरोप पूरी तरह आधारहीन है। सावरकर को 1924 में रिहाई मिली, लेकिन उन्हें रत्नागिरी में नजरबंद रखा गया, जहां उनकी गतिविधियों पर कड़ी निगरानी थी। इसके बावजूद, उन्होंने हिंदू महासभा के माध्यम से सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर काम जारी रखा। उन्होंने अछूतोद्धार, महिलाओं के अधिकार, और हिंदू समाज के संगठन पर जोर दिया, जो स्वतंत्रता संग्राम को सामाजिक आधार प्रदान करता था। उनकी रणनीति बदल गई थी, लेकिन उनका लक्ष्य वही रहा, भारत की स्वतंत्रता और सशक्तिकरण। यह कहना गलत है कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम से दूरी बनाई।

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वीर सावरकर पर 1970 में डाक टिकट जारी किया गया।

सावरकर की आलोचना क्यों नासमझी है?

सावरकर की आलोचना अक्सर ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर या संदर्भ से हटकर की जाती है। उनकी आलोचना नासमझी कही जा सकती है क्योंकि:

ऐतिहासिक संदर्भ की अनदेखी: सावरकर की माफी याचिकाओं को उनकी परिस्थितियों और उस समय की रणनीति के बिना समझना गलत है। कालापानी की सजा इतनी क्रूर थी कि जीवित रहना ही अपने आप में एक संघर्ष था। उनकी याचिकाएं रिहाई के लिए एक रणनीति थीं, न कि देशभक्ति की कमी का सबूत।

वैचारिक पूर्वाग्रह: सावरकर की हिंदुत्व की विचारधारा को सांप्रदायिक करार देना एक वैचारिक पूर्वाग्रह है। उनकी विचारधारा का उद्देश्य भारतीय समाज को एकजुट करना था, जो अंग्रेजों के लिए खतरा था। इसे गलत समझना उनकी राष्ट्रीय एकता की सोच को कमतर करता है।

योगदान को नजरअंदाज करना: सावरकर ने न केवल सशस्त्र क्रांति को प्रेरित किया, बल्कि अपनी पुस्तकों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को बौद्धिक और वैचारिक आधार दिया। कालापानी में 11 वर्षों तक अमानवीय यातनाएं सहना और फिर भी विचारों को जीवित रखना उनके साहस और समर्पण का प्रमाण है।

राजनीतिक स्वार्थ: सावरकर की आलोचना कभी-कभी राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होती है। उनकी हिंदुत्व की विचारधारा को गलत ढंग से प्रस्तुत करके कुछ लोग अपने वैचारिक एजेंडे को बढ़ावा देते हैं, जो ऐतिहासिक सत्य के साथ अन्याय है।

सावरकर ने कभी हार मानना नहीं सीखा था

वीर सावरकर एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनके साहस, बौद्धिकता और विचारधारा ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों, विशेष रूप से नासिक षड्यंत्र कांड और The Indian War of Independence 1857 जैसी रचनाओं ने उन्हें अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बना दिया, जिसके चलते उन्हें कालापानी की सजा दी गई। फिर भी, उन्होंने हार नहीं मानी और अपने विचारों से स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। सावरकर का योगदान केवल सशस्त्र क्रांति तक सीमित नहीं था, बल्कि उनकी वैचारिक और सामाजिक पहल ने भारतीय समाज को एकजुट और सशक्त किया। इसलिए, उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के सबसे महान सेनानियों में शुमार किया जाना चाहिए, क्योंकि उनका जीवन और विचार आज भी हमें प्रेरित करते हैं।

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