Saturday 11/ 10/ 2025 

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Makarand Paranjape’s column – It is in India’s interest to maintain coordination with America | मकरंद परांजपे का कॉलम: अमेरिका के साथ तालमेल रखना भारत के हित में है

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5 घंटे पहले

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मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक - Dainik Bhaskar

मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक

यह सच है कि भारत के सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स अब परिपक्व हो चुके हैं। उन्हें अब शायद मुख्यधारा के मीडिया पेशेवरों से भी अधिक व्यू मिलने लगे हैं और वे लाखों दर्शकों को प्रभावित करते हैं। लेकिन इसमें एक खतरा है।

अव्वल तो उनके हेडलाइंस बहुधा भ्रामक होते हैं। क्लिकबेट के लिए। उनके शीर्षकों या थम्बनेल में अमूमन किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्ती का किसी अन्य दिग्गज का नाम शामिल होता है। वे हर हफ्ते, वीडियो-दर-वीडियो यह दावा करते हैं कि किसी ‘बड़े एक्शन’ की योजना बनाई जा रही है। और अगर ‘फिनफ्लुएंसर्स’ की बात करें तो वे अकसर बाजार में किसी बड़े ‘क्रैश’ का पूर्वानुमान लगाते हैं। जबकि उनकी भविष्यवाणियां शायद ही कभी सच होती हों।

हालांकि, सरकार समर्थित चैनलों में एक शगल आम है कि वे अपने प्रिय नेताओं को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू है। बड़े मानदंडों को लेकर नरमी से बोलने के बजाय हम छोटे मानकों पर कोलाहल का शिल्प रचने लगते हैं।

भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। क्योंकि आत्म-प्रवंचना हमें निश्चित ही उस गड्ढे में डाल देगी, जिसे हमने ही अपने लिए खोदा है। मैं यह कहकर अपने लिए आफत को न्योता दे रहा हूं, लेकिन संभवत: अमेरिका को हमारी जितनी जरूरत है, उससे ज्यादा आवश्यकता हमें अमेरिका की है।

वैश्विक भू-राजनीति में रणनीतिक तालमेल तो समझ आता है, पर रणनीतिक स्वायत्तता नहीं। और आर्थिक, सैन्य, तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक हितों में अमेरिका के साथ तालमेल रखना भारत के हित में है। मैं फिर दोहराता हूं कि अराजकता, विघटन, सर्वसत्तावाद के खिलाफ आज लोकतंत्र ही सर्वाधिक उपयुक्त उपकरण है।

इसलिए दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों के नाते अमेरिका और भारत में स्वाभाविक साझेदारी निर्मित होती है। ऐसे में मसलन नोबेल पुरस्कार के लिए ट्रम्प के प्रयासों का मखौल उड़ाने के बजाय हम इसका समर्थन कर सकते थे। हमें इससे क्या नुकसान होता? सच कहें तो हम इस खेल में पाकिस्तान से कहीं आगे निकल जाते। बेशक, व्यापार और तकनीकी लाभों के बदले ऐसा किया जा सकता था।

भारत को अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिए व्यावहारिक गठबंधनों की जरूरत है, ऐसे में राष्ट्रवादी उत्साह के आवरण में प्रकट होने वाला हमारा अमेरिका-विरोध हमें अपने एक प्रमुख साझेदार से दूर कर सकता है।

इंफ्लुएंसर्स का सनसनी फैलाने का जुनून गलत है, चाहे वह डॉलर की कीमत घटने को लेकर हो या फिर भारत की कथित भू-राजनीतिक जीत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने को लेकर। ऐसी अतिशयोक्तियों से एक विकृत वैश्विक दृष्टिकोण निर्मित होता है।

अमेरिका-विरोधी प्रोपगंडा का अधिकांश हिस्सा न केवल भ्रामक, बल्कि खतरनाक भी है। अमेरिका 30 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ विश्व में शीर्ष पर है। इसकी तुलना में हमारी जीडीपी 3.5 ट्रिलियन पर है, जिसके 2025 में 4 ट्रिलियन के पार पहुंचने का अनुमान है।

अमेरिकी रक्षा खर्च के आगे भारत का रक्षा खर्च बौना है। और एआई से लेकर सेमीकंडक्टरों तक उसकी तकनीकी बढ़त से पार पाना तो हमारे लिए बेहद ही मुश्किल है। अमेरिका के बेस दुनियाभर में हैं। जमीन, समुद्र या अंतरिक्ष में उसकी क्षमताएं अतुलनीय हैं। यह दिखावा करना कि भारत अमेरिका के बिना भी चल सकता है, सच्चाई को नजरअंदाज करने जैसा है।

इंफ्लुएंसर्स के बीच डी-डॉलराइजेशन की कहानी खूब पसंद की जाती है। जबकि 2024 के स्विफ्ट डेटा के अनुसार डॉलर अभी भी वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में 60% हिस्सेदारी रखता है और 88% अंतरराष्ट्रीय लेन-देनों में काम आता है।

इससे भी बढ़कर, अमेरिका-विरोध की दिखावटी बयानबाजी भारत-अमेरिका साझेदारी के स्पष्ट लाभों को भी अकसर अनदेखा कर देती है। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी वाला ‘क्वाड’ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का जवाब देने के लिए भारतीय रणनीति का प्रमुख आधार है।

अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और हमारा द्विपक्षीय व्यापार 190 अरब डॉलर से अधिक है। ऐपल और टेस्ला जैसी कंपनियां भारत में निवेश कर रही हैं, जिससे नौकरियां पैदा हो रही हैं और मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिल रहा है। अमेरिका या उसके नेताओं का मजाक उड़ाना इस साझेदारी को खतरे में डालता है, जो भारत की सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। हमारा द्विपक्षीय व्यापार 190 अरब डॉलर का है। ऐपल और टेस्ला जैसी कंपनियां भारत में निवेश कर रही हैं, जिससे नौकरियां पैदा हो रही हैं और मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिल रहा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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