Saturday 11/ 10/ 2025 

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Nanditesh Nilay’s column – Should there not be such a thing as collective responsibility? | नंदितेश निलय का कॉलम: क्या सामूहिक जिम्मेदारी जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए?

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2 घंटे पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक - Dainik Bhaskar

नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

किसी आजाद मुल्क में स्वतंत्रता का मूल्य इस पर भी निर्भर करता है कि व्यक्ति, समाज या संस्थाओं के द्वारा सामूहिक जिम्मेदारी के भाव को कितनी सूझबूझ के साथ व्यवहार में लाया गया है। और जब यह भाव भीड़ की उग्रता या लापरवाही के माहौल में लुप्त हो जाता है तो यह पूछना लाजिमी हो जाता है कि सामूहिक जिम्मेदारी जैसा भी कुछ बचा है क्या? क्या देश में उद्दंडता के बढ़ते दृश्य उन तमाम लोगों के विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालते, जो ऐसे आचरणों का विरोध करते हैं?

भारत भाषा के आधार पर विविधता में एकता वाला देश रहा है। अगर भाषा के नाम पर किसी राज्य में किसी दूसरे राज्य के व्यक्ति से मारपीट की घटनाएं दक्षिण से लेकर पश्चिम भारत में भी बार-बार दोहराई जाएं तो जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए? यह सिर्फ एक व्यक्ति के व्यवहार की घटना तो है नहीं? अगर भाषाई विवाद बढ़ता गया तो भारत की विविधता में एकता की छवि का क्या होगा?

ऐसी घटनाएं दुबारा न हों, इसकी सामूहिक जिम्मेदारी कौन लेगा? और अगर देखते ही देखते एक के बाद एक पुल धराशायी होते जाएं, सड़कों पर गड्ढे एक ठसक के साथ और हठी होते जाएं और बारिश में स्मार्ट सिटी भी तैरते रहे तो जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए?

कलेक्टिव रिस्पॉन्सिबिलिटी नाम की भी कोई नैतिक-कसौटी होती है क्या? या किसी संगठन के बजाय किसी व्यक्ति को दोष देना ज्यादा सुविधाजनक होता है? अगर संसदीय प्रजातंत्र में जनता जिम्मेदारी से अपने नेता को चुनती है तो फिर जिम्मेदारी किसकी तय होनी चाहिए?

सामूहिक जिम्मेदारी में ऊपर से नीचे तक सबकी जवाबदेही बनती है। नागरिक के साथ-साथ हर संस्था के नायक की जिम्मेदारी बनती है, जब किसी राज्य में भाषा के नाम पर पीटने-धमकाने को ग्लोरिफाई किया जाता है, या किसी भगदड़ को कुछ इक्के-दुक्के के सिर मढ़ दिया जाता है या धार्मिक आस्था के नाम पर कोई भी तोड़-फोड़ करना अपना अधिकार समझता है।

अगर तकनीक का एल्गोरिदम इतना स्ट्रक्चर्ड होता है तो संस्थाएं अपनी जवाबदेही क्यों नहीं तय करतीं? हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिम्मेदारी के सवाल हमेशा व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं रुकते; बल्कि संगठनात्मक जिम्मेदारी की भूमिका में लापरवाही को बढ़ावा देने वाले एटिट्यूड पर भी सवाल खड़ा करते हैं। और ऐसी स्वतंत्रता किस काम की, जिसमें सामूहिक जिम्मेदारी का भाव न हो?

यूनानी दार्शनिक प्लूटार्क सामूहिक और व्यक्तिगत जिम्मेदारी को एक किस्से के माध्यम से बताते हैं। एक बार सोफिस्ट प्रोटागोरस और राजनेता पेरिकल्स ने ओलिम्पिक खेलों में एक भाला फेंकने वाले द्वारा मारे गए एक राहगीर की आकस्मिक मृत्यु के कारण पर चर्चा करते हुए पूरा दिन बिताया। उसकी मृत्यु का कारण कौन होना चाहिए?

भाला फेंकने वाला या वे आयोजक, जिनकी खराब व्यवस्था के कारण उसकी मृत्यु हुई? बेंगलुरु में आरसीबी के जीत के जश्न में जो भगदड़ हुई, जो लोग हताहत हुए, जिनकी जानें गईं, उनके लिए किसी की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है या नहीं? प्राथमिक अधिकारियों, क्रिकेट क्लब के बाद क्रिकेटर विराट कोहली को भी दोषी कह दिया गया, लेकिन क्या यह काफी है?

प्लूटार्क कहते हैं हमारा उद्देश्य बंदूक चलाने वाले की भी जिम्मेदारी तय करना है, न कि बंदूक पर ही सवाल उठाना। लेकिन प्रश्न यह भी उठा, बहस यह भी हुई कि उस व्यक्ति का क्या जिसने बंदूक बेची, या उन नीतियों का क्या, जिन्होंने उसे इसे बेचने की अनुमति दी? हाल ही में विमान हादसे की घटना के बाद टाटा ने कलेक्टिव रिस्पॉन्सिबिलिटी की अनुपम मिसाल पेश की।

उनके द्वारा मुंबई में 500 करोड़ के पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट का रजिस्ट्रेशन औपचारिक रूप से पूरा कर लिया गया और यह ट्रस्ट अहमदाबाद हादसे के पीड़ितों को समर्पित है। कंपनी ने कहा इसका नाम एआई-171 मेमोरियल एंड वेलफेयर ट्रस्ट होगा, जो मृतकों के रिश्तेदारों, घायलों और दुर्घटना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित लोगों को सहायता प्रदान करेगा। ऐसी ही मिसालें व्यक्तिगत और सामूहिक जिम्मेदारी को उस स्वतंत्रता का हिस्सा बनाती हैं, जिसके बिना आजादी अधूरी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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