Friday 10/ 10/ 2025 

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Abhay Kumar Dubey’s column – Reality cannot be hidden by juggling of figures | अभय कुमार दुबे का कॉलम: आंकड़ों की बाजीगरी से छुप नहीं सकती है वास्तविकता

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6 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

राजनीति में अर्धसत्यों का इस्तेमाल करके कई संकटों का कुशलता से प्रबंधन किया जाता है। एकतरफा आंकड़ों, स्पिन-डॉक्टरी, नैरेटिव के जरिए आज के प्रबंधन-विशेषज्ञ राजनीतिक नुकसान को न्यूनतम कर देने में सक्षम हैं।

लेकिन एक संकट ऐसा है, जिसका प्रभाव इन हथकंडों से कम नहीं होता- वह है आर्थिक संकट। मुद्रास्फीति के आंकड़ों को कितना भी कम दिखाते रहिए, मंहगाई बढ़ी है तो राजनीतिक नाराजगी को बढ़ाकर मानेगी। बढ़ी बेरोजगारी का नतीजा युवाओं और शिक्षितों के असंतोष में निकलेगा ही, भले ही बेरोजगारों की संख्या को कितना भी कम क्यों न दिखा दिया जाए।

जीडीपी के आंकड़ों को आकर्षक बनाया जा सकता है, लेकिन उनके आधार पर निजी क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए राजी नहीं किया जा सकता। मेक इन इंडिया के कितने भी दावे क्यों न किए जाएं, उपभोक्ताओं को बाजार में यह देखने से कोई नहीं रोक सकता कि वहां चीन का माल भरा हुआ है।

सरकार अच्छी तरह से जानती है कि प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से हमारा देश एक कमतर आय वर्ग वाले देशों में आता है। अगर ऊपर के दस-बारह फीसदी लोगों को छोड़ दें तो बाकी लोग किसी न किसी स्तर की गरीबी और विपन्नता का ही सामना कर रहे हैं। इसके बावजूद सरकार दावा करती रहती है कि देश में गरीबी घट रही है, या आर्थिक विषमता में कमी आ रही है। लेकिन जैसे ही इन आंकड़ों की जांच की जाती है, ये दावे अपना मुंह छिपाकर कोने में चले जाते हैं।

2024 के चुनाव से कुछ पहले नीति आयोग ने गरीबी कम करने का दावा किया था। इसका उल्लेख प्रधानमंत्री ने भी अपने भाषण में किया। लेकिन यह पता लगने में देर नहीं लगी कि वह आयोग का न होकर निजी स्तर पर लिखकर आयोग को पेश किए गए एक लेख का दावा था।

जाहिर है कि आयोग ने इस दावे की आधिकारिक पुष्टि कभी नहीं की। इसी महीने विश्व बैंक के हवाले से सरकार की तरफ से एक नया दावा यह किया गया कि भारत दुनिया में सबसे कम विषमता वाला चौथा देश बन गया है। आर्थिक मामलों के जानकारों ने इस दावे की भी कलई खोल दी है।

हम जानते हैं कि विश्व बैंक हो या आईएमएफ, ये संगठन किसी देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े स्वतंत्र रूप से जमा नहीं करते। वे उन्हीं आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाते हैं, जो सरकारें उन्हें मुहैया कराती हैं। इसी महीने में विश्व बैंक के पॉवर्टी एंड इक्विटी ब्रीफ में बताया गया कि भारत का 2011-12 में उपभोग-आधारित गिनी इंडेक्स 28.8 था, जो 2022-23 में घटकर 25.5 रह गया।

बैंक के इस अवलोकन को पकड़कर सरकार ने तुरंत भारत को विषमता घटाने वाली दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था घोषित कर दिया। चालाकी यह दिखाई गई कि विश्व बैंक द्वारा कही गई पूरी बात छिपा ली गई। बैंक ने यह भी कहा था कि संभवत: उसने विषमता का कम अनुमान लगाया है, क्योंकि उसके पास आंकड़े सीमित थे।

इसी के बाद बैंक ने कहा कि विश्व-विषमता डेटाबेस दिखाता है कि आमदनी संबंधी विषमता का गिनी इंडेक्स 2004 के 52 से बढ़कर 2023 में 62 हो गया है। जाहिर है कि सरकार ने बैंक को आमदनी संबंधी आंकड़े नहीं, या बहुत कम दिए। उपभोग संबंधी आंकड़े ही ​दिए थे।

यहां सरकारी नीयत उपभोग संबंधी आंकड़ों का अपने पक्ष में दोहन करने की थी। पहली नजर में ही ये आंकड़े भारत की सच्चाई से परे साबित हो जाते हैं। क्या किसी को यकीन होगा कि भारत के सबसे अमीर 5% लोग सालभर में प्रति व्यक्ति ढाई लाख रुपए के आसपास (20,824 रु. प्रति माह) ही खर्च करते हैं?

असलियत तो यह है कि ये लोग रेस्तरां में खाने-पीने, डेस्टिनेशन वेडिंग करने, विदेशी और भारतीय रिजॉर्ट्स में सैर-सपाटा करने, डिजाइनर कपड़े खरीदने, महंगी घड़ियां और इलेक्ट्रॉनिक सामान आदि खरीदने में इसकी कई गुना रकम खर्च करते हैं। इस तरह के आंकड़ों से जो तुलनात्मक गिनी इंडेक्स बनती है, वह हमारी आर्थिक असलियत की नुमाइंदगी नहीं करती।

आर्थिक विषमता की चर्चा करते समय हमें हमेशा आमदनी और सम्पत्ति संबंधी स्वामित्व के आंकड़ों पर गौर करना चाहिए। हकीकत यह है कि देश के ऊपरी 10% लोगों का आमदनी में हिस्सा 57.7% है। नीचे के 50% लोगों की हिस्सेदारी 14.6% ही है।

सम्पत्ति के लिहाज से ऊपर के 10% लोग 65% सम्पत्तियों के स्वामी हैं और नीचे के 50% लोग महज 6.4% सम्पत्तियां रखते हैं। यानी आमदनी से भी अधिक विषमता सम्पत्तियों के मामले में है। बीच के 30% लोग ही ऐसे हैं, जो रोजी-रोटी चलाने की शर्तों को पूरा कर पाते हैं, लेकिन उनकी आमदनी भी इतनी नहीं होती कि वे मनचाही चीजें खरीदने का साहस कर सकें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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