बीयर की बोतलों और सीटियों से बना आरडी बर्मन का संगीत संसार


‘शोले’ की 50वीं सालगिरह का जश्न मनाती हमारी इस स्पेशल सीरीज में इस बार बात होगी आर. डी. बर्मन के कालजयी संगीत की. पश्चिमी संगीत को भारतीय धुनों में पिरोकर, बीयर की बोतलों जैसे अनोखे वाद्य-यंत्र का इस्तेमाल करके उन्होंने ऐसा जादू रचा जो आज भी लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता है.

मशहूर संगीतकार आर. डी. बर्मन की एक विचित्र आदत थी. किसी गाने की धुन बना लेने के बाद, वो जब गायकों की प्रैक्टिस के लिए गाना रिकॉर्ड करते, तो अक्सर उसमें कामचलाऊ लिरिक्स फिट कर दिया करते थे—कभी वो यूं ही बड़बड़ाए हुए शब्द होते, तो कभी चटख गालियां भी. ऐसी अतरंगी हरकतों के बावजूद, पंचम के नाम से पुकारे जाने वाले बर्मन ने हिंदी और बंगाली सिनेमा को कुछ सबसे शानदार गीत दिए हैं.
मगर ‘शोले’ के सामने, उनका खुद का दूसरा कोई काम भी शायद ही टिक सके. नारियल के खपरे और बीयर की बोतल जैसी चीजों को एक म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट के रूप में इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने भारतीय और पश्चिमी संगीत के तत्वों को धुनों में बड़ी सहजता से घोल दिया था. इसका नतीजा सिर्फ एक फिल्म स्कोर नहीं था. ये ऐसा संगीत बन गया था जिसने ‘शोले’ को एक सिनेमाई महागाथा में बदल दिया.

राग-ए-बेतरतीब
‘शोले’ के पहले 25 मिनट, लोहे, घोड़े की टापों, सीटियों और गोलियों की आवाज से बनी एक धुन हैं. स्क्रीन पर जब आपको एक जर्जर स्टेशन में ट्रेन दाखिल होती दिखती है, तो हवा को चीरता उसका सायरन और उसके पहियों की खनखनाहट और रगड़, चित्र के साथ मिलकर दृश्य को पूरा करते हैं. इंजन से छूटती भाप फुफकारती है तो नीले, साफ आसमान में धुआं छल्ले बनाता हुआ उड़ जाता है. बोगी के दरवाजे से एक अकेली आकृति उभरती हुई प्लेटफॉर्म पर उतरती है, जहां सफेद धोती पहले एक आदमी उसका इंतजार कर रहा है.
‘ठाकुर साहब?’, यात्री सवालिया अंदाज में पूछता है.
‘आइए, जेलर साहब,’ धोती में खड़ा व्यक्ति जवाब देता है.
एक चिड़िया चहचहा रही है, घोड़े की टापों की धीमी सी आवाज आ रही है. तभी गिटार पर अचानक बजी एक तेज-तर्रार धुन इस सीन के ठहराव को काटती है. एक फ्रेंच हॉर्न से सुर उठते हैं, गिटार के तारों और इंस्ट्रूमेंट्स की थापों से उठता संगीत बढ़ता चला जाता है. नजारों और सुरों के इस मनोरम संगम को बुनते हुए फिल्म के टाइटल क्रेडिट स्क्रीन पर उतरते हैं. फिल्म के हुनरमंद एडिटर, एम एस शिंदे का नाम स्क्रीन पर चमकते ही, बीहड़ से सीटी में बजती एक धुन सुनाई देती है. ये जैसे एक एडवेंचर शुरू होने की घोषणा है. इस तरह आप रामगढ़ में उतरते हैं—एक ऐसा संसार जहां कानून और अव्यवस्था की टक्कर से प्रतिशोध की लपटें उठ रही हैं.

रामगढ़ का स्वर-संसार
मनोहरी सिंह के गिटार और सीटी में निकलती वो धुन—सिर्फ यूरोप में बनी इटालियन फिल्मों को एक स्टाइल भरा सलाम ही नहीं है. आरडी बर्मन के स्कोर की तरह ये अपने आप में एक किरदार बन जाती है और इसका एक-एक स्ट्रोक स्मृति में दर्ज हो जाता है.
इस तरह का साउंड तैयार करना कोई मामूली बात नहीं थी. डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने फिल्म के लिए स्टीरियोफोनिक साउंड की मांग की थी—जो उस समय एक दुर्लभ चीज थी. वो दर्शकों को छवि और संगीत के संगम से बुने एक अद्भुत अनुभव में फंसा लेना चाहते थे.
‘शोले’ के शानदार एक्शन को मैच करता साउंड क्रिएट करने के लिए उन्होंने 50-60 पीस का एक प्रचंड ऑर्केस्ट्रा जुटाया था. इसमें संतूर पर शिवकुमार शर्मा, गिटार पर भूपिंदर सिंह, सैक्सोफोन और बांसुरी पर मनोहारी सिंह और सिंथेसाइजर पर केरसी लॉर्ड जैसे लेजेंड शामिल थे. इस संगीत में हर इंस्ट्रूमेंट, हर नोट आइकॉनिक बन गया. लैंप बुझाती राधा (जया भादुड़ी) को देखकर जय के हार्मोनिका से निकली उदास धुन—जो भानु गुप्ता ने बजाई थी—भला कौन भूल सकता है? इस धुन के हर नोट में किसी को पाने की एक तड़प थी, जो जय के शब्दों में कभी नहीं उतरी थी.

रेल की पटरी पर दौड़ती एक थ्रिलर
आइकॉनिक जोड़ी, जय और वीरू की बॉन्डिंग ‘शोले’ का दिल थी. और इस दिल को धड़कन मिली थी बर्मन के हुनर से. ये जोड़ी हमें पहली बार उस सीन में दिखती है जब ट्रेन पर डाकुओं ने हमला कर दिया है—वो सीन जो बर्मन के टैलेंट का बेहतरीन उदाहरण है. घोड़े टापें भर रहे हैं, गोलियां हवा में सनसना रही हैं और कोयले पर चलने वाला एक ट्रेन इंजन, बीहड़ में चीते की तरह दौड़ा जा रहा है. उसकी चीख मानो आसमान को चकनाचूर कर देना चाहती है. बैकग्राउंड में ब्रास इंस्ट्रूमेंट, तबले, तारों वाले इंस्ट्रूमेंट तेजी और अफरातफरी का माहौल रच रहे हैं. इस चेज़ और शूटआउट की इंटेंसिटी को ऊपर ले जाने के लिए बर्मन, घोड़ों और ट्रेन की लय को ब्रास, ढफली और गिटारों से मैच करते हैं.

थोड़ा आगे बढ़ने पर, ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ में जय-वीरू की यारी खिलती हुई नजर आती है—उल्लास से भरा, एक ऐसा गीत जिसमें उनकी दोस्ती का अल्हड़पन नजर आता है. इस गाने पर बर्मन की तीन हफ्ते की मेहनत और सिप्पी का बहुत धैर्य खर्च हुआ था. लेखक एना मोरकॉम, अपनी किताब (Hindi Film Songs and the Cinema: 2007) में बहुत विस्तृत विश्लेषण करती हुई बताती हैं कि कैसे तेज गति से बजते वायलिन ने इस गाने को एक अद्भुत ऊंचाई दी थी.

गब्बर का कहर
अगर जय और वीरू ‘शोले’ का दिल थे, तो अमजद खान का गब्बर इसकी आत्मा था. गब्बर की एंट्री का म्यूजिक स्कोर, स्क्रीन पर खौफ और लार्जर दैन लाइफ इमेज गढ़ने के मामले में एक मास्टरक्लास है.
रामगढ़ की पहाड़ियों में जब ये सीन शुरू होता है, तो जंगलों में लाशें नोंचने वाले सियारों की मनहूस आवाज की तरह, निचले सुर से म्यूजिक उठना शुरू होता है. गब्बर की बेल्ट में लगा लोहा, चट्टानों से टकराता है. कंकड़ों पर उसके सावधानीपूर्वक बढ़ते, धीमे कदमों से उठती चरमराहट, टेंशन को और ज्यादा बढ़ाती है.
जब स्क्रीन पर गब्बर का चेहरा प्रकट होता है, तो उसकी आंखों से टपकता खतरा, हवा को अचानक चीरकर, बिजली की तरह कौंधी गिटार की एक धुन में उतर आता है. एक पल के सन्नाटे के बाद, उसका चेहरा फिर छुप जाता है. यहां संगीत की लय जानबूझकर अनियमित रखी गई है, लगभग बेतरतीब. इसमें गब्बर का अस्थिर स्वभाव नजर आता है.

लंदन से आई बीयर की बोतलें
रमेश सिप्पी को शुरू से ही भरोसा था कि बर्मन का म्यूजिक स्कोर बहुत कामयाब होगा. उन्होंने इसके राइट्स 5 लाख रुपये में बेचे थे, जिन्हें खरीदा था पॉलीडोर ने. फिल्म के विनाइल रेकॉर्ड्स ने आग ही लगा दी, इसके डायलॉग्स के रिकॉर्ड तो हर घर में किसी बेशकीमती तोहफे की तरह सहेजे जाने लगे थे. लॉन्च होने के छः साल बाद भी ‘शोले’ का साउंडट्रैक, सबसे ज्यादा बिकने वाला साउंडट्रैक था. अमेरिकन रिकॉर्डिंग इंडस्ट्री, सबसे ज्यादा बिकने वाले म्यूजिक एल्बम को प्लैटिनम डिस्क से सम्मानित करती है. ‘शोले’ का साउंडट्रैक प्लैटिनम डिस्क पाने वाला भारतीय सिनेमा का पहला एल्बम था.
कैबरे डांस नंबर ‘महबूबा महबूबा’ में बर्मन का संगीत अपने शिखर पर पहुंचा, जिसकी बीट्स हेलेन की कमर के साथ झूम रही थीं. ये गाना ग्रीक म्यूजिक आर्टिस्ट डेमिस रूसस के ‘से यू लव मी’ से प्रेरित था, जो सिप्पी की पत्नी ने लंदन में सुना था.
बर्मन चाहते थे कि ये गाना आशा भोंसले गाएं लेकिन आखिरकार उन्होंने इसे अपनी ही आवाज में रिकॉर्ड किया. हेलेन के स्टेप्स को मैच करने के लिए बर्मन ने शर्मा के संतूर के साथ, आधी भरी हुई बीयर की बोतलों की आवाज इस्तेमाल की थी. स्पीकर्स से आती बर्मन की आवाज ने थिएटर्स में एक ट्रांस जैसा माहौल बना दिया था जिसमें डूबे लोग सीटों पर नाच रहे थे, सीटियां बजा रहे थे. ‘महबूबा महबूबा’ के लिए बर्मन पर चोरी के आरोप भी लगे, जिनका बचाव उन्होंने इस तर्क से किया कि ये डायरेक्टर रमेश सिप्पी की जिद थी.
इस साल गोल्डन जुबली मना रही ‘शोले’ का संगीत आज भी किसी शानदार, अडिग स्मारक की तरह मौजूद है. बिजलियां दौड़ाते गिटार से, यादों को कुरेदने वाले हार्मोनिका तक—बर्मन का संगीत सिर्फ इस फिल्म के नैरेटिव को सहारा नहीं देता, बल्कि इसकी परिभाषा है. आज भी लोगों को प्रेरित करते इसके गीत और संगीत याद दिलाते हैं कि सिनेमा के संसार में जब बर्मन के जुनून के साथ, संगीत का नया प्रयोग मिलता है, तो कैसा जादुई संसार जन्म लेता है.
Image (screengrabs) credit : Sholay Media and Entertainment Pvt Ltd and Sippy Films Pvt. Ltd.
दूसरा पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: आरंभ में ही अंत को प्राप्त होकर अमर हो जाने वाली फिल्म
पहला पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: ऐसे रचा गया बॉलीवुड का महानतम खलनायक- गब्बर सिंह
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