Meghna Pant’s column – We have to strive for our freedom even at home | मेघना पंत का कॉलम: हमें घरों में भी अपनी स्वतंत्रताओं के लिए प्रयास करने होंगे

2 घंटे पहले
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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता
इस महीने की शुरुआत में लखनऊ की सड़कों पर सैकड़ों महिलाएं बेलन, झंडे और तलवारें लहराते हुए निकलीं। वे सांसद डिम्पल यादव के पहनावे पर एक मौलवी की टिप्पणी का विरोध कर रही थीं। मौलवी ने डिम्पल के मस्जिद में साड़ी पहनने को अशोभनीय बताते हुए उस पर आपत्ति जताई थी। महिलाओं ने अपने विरोध को “शक्ति का शंखनाद’ नाम दिया। संदेश साफ था कि हमें मत बताओ कि क्या पहनना है, कैसे जीना है।
यकीनन, यह एक प्रभावी विरोध-प्रदर्शन था। लेकिन यह एक स्याह सच्चाई को भी उजागर करता है, जिस बारे में हम अभी भी अधिक बातें नहीं करते। यह कि भले ही भारत की महिलाएं सार्वजनिक स्थलों पर अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ाई लड़ रही हों, लेकिन हममें से कई अब भी अपने घरों में ही आजाद नहीं हैं।
“शादी के बाद सब कुछ बदल जाता है’- ये महज फिल्मों का घिसा-पिटा डायलॉग नहीं है। यह लाखों भारतीय महिलाओं की एक जीवंत सच्चाई है। हनीमून का खुमार उतरते-उतरते महिलाओं की शारीरिक, आर्थिक, लैंगिक और भावनात्मक स्वतंत्रताएं धीरे-धीरे कम होने लगती हैं। कई महिलाओं के लिए शादी का मतलब घरेलू बंदीगृह में होने जैसा हो जाता है : खाना बनाना, देखभाल करना और समझौते करना। अपने वजन से लेकर कोख तक, हर चीज के लिए उन्हें जज किया जाता है।
शादी के वक्त बहुतेरी औरतों को लगता है कि अब उन्हें पहले से ज्यादा आजादी मिलेगी, लेकिन उसका जीवन अदृश्य जंजीरों में जकड़कर रह जाता है- किससे मिलना है, कितना कमाना है, कब बोलना है और कब चुप हो जाना है- ये तमाम बंदिशें लगाई जाने लगती हैं। जब तक महिलाएं इसे समझ पाती हैं, उनका आत्मसम्मान एक “अच्छी पत्नी’ होने की किसी और की परिभाषा में फिट होने के लिए सिकुड़ चुका होता है।
कई महिलाओं के लिए यही “शादी के बाद आजादी’ का सच है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों के लिए नौकरी छोड़ दें। इस अंदेशे से आप कुछ प्रकार के कपड़े नहीं पहन सकते कि लोग क्या कहेंगे। ससुराल वाले जब आपका अपमान करें तो आपसे कहा जाता है कि “एडजस्ट कर लो’। और ईश्वर ना करे अगर आपने संबंध तोड़ लिए तो आप पर स्वार्थी, नए जमाने की और अनैतिक होने तक का ठप्पा लगा दिया जाता है।
तो जहां महिलाएं डिम्पल यादव के मनचाहे कपड़े पहनने के पूरी तरह से जायज हक के लिए प्रदर्शन कर रही होती हैं, वहीं हमें यह भी पूछना चाहिए कि क्या हम घरों में भी खुद को यह अधिकार देती हैं? क्या हम शादियों में रोजाना होने वाले लैंगिक भेदभाव पर सवाल उठाती हैं? क्या हम मानती हैं कि चारदीवारी के भीतर भी हमारी कोई आजादी होनी चाहिए?
यह सिर्फ शादी का ही मसला नहीं है। शादी के इतर भी पूरे देश में पहनावे को लेकर महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां होती हैं। कुछ मंदिरों पर पोस्टर लगा कर महिलाओं को चेतावनी दी गई कि वे जींस, स्कर्ट या वेस्टर्न कपड़े पहनकर यहां ना आएं और आएं तो बाहर से ही दर्शन करें। इससे पहनावे के निजी चयन को लेकर आक्रोश पैदा हो गया।
कॉर्पोरेट जगत की एक कंपनी ने भी लैंगिक भेदभाव वाले ड्रेस कोड के तहत महिलाओं से पिन्ड शॉल और चूड़ीदार पहनने और बालों को बांधकर आने के लिए कहा। इस पर भी लोगों ने प्रतिक्रियाएं देते हुए इसे आउटडेटेड और बचकाना बताया।
ये घटनाएं एक पैटर्न को उजागर करती हैं। महिलाओं को आज भी निजी तौर पर और समाज में सम्मान, शालीनता और बराबरी का दर्जा पाने के लिए एडजस्ट करना पड़ता है। चाहे वह मौलवी हो, नौकरी देने वाला हो, मंदिर हो या ससुराल, संदेश यही है कि आपको हमारी माननी ही पड़ेगी।
आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर हम कहें कि “बीवियों को आजादी दो’। यह सवाल उठाने के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित करें कि उनका आकलन अब भी कपड़ों या उनके व्यवहार से ही क्यों किया जाना चाहिए? क्योंकि यदि हम अपने ही घरों में अपनी स्वतंत्रताओं के लिए नहीं लड़े तो दुनिया के सामने विरोध-प्रदर्शनों के कोई मायने नहीं रह जाएंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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