Brahma Chellaney’s column – History tells us that trusting China is dangerous | ब्रह्मा चेलानी का कॉलम: इतिहास बताता है कि चीन पर भरोसा करना खतरनाक

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5 घंटे पहले
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ब्रह्मा चेलानी पॉलिसी फॉर सेंटर रिसर्च के प्रोफेसर एमेरिटस
भारतीय सीमा पर 2020 में चीन की घुसपैठ के चलते दोनों देशों के बीच हुए लंबे संघर्ष ने लगभग युद्ध जैसा रूप ले लिया था। पांच साल बाद, जब सीमा संकट अब भी अनसुलझा है और भारत ट्रम्प के भारी टैरिफ का सामना कर रहा है- प्रधानमंत्री दोनों देशों के बीच तनाव को कम करने के लिए चीन की यात्रा से लौटे हैं। लेकिन इतिहास हमें चेतावनी देता है कि चीन पर भरोसा करना खतरनाक है।
यकीनन, चीन से कूटनीतिक रिश्तों में सुधार की मोदी की पहल को समझा जा सकता है। एक समय में मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अमेरिकी रणनीति की बुनियाद रहे भारत-अमेरिका संबंध आज सदी के निम्नतम स्तर पर हैं। ट्रम्प के कदम जितने बेतुके हैं, उतने ही विडम्बना से भरे भी हैं।
अमेरिका लंबे समय से भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ महत्वपूर्ण संतुलनकारी ताकत के रूप में देखता रहा है। फिर भी, भारत टैरिफ झेल रहा है और चीन राहत के मजे लूट रहा है। ट्रम्प भारत को रूस से तेल खरीद के लिए दंडित कर रहे हैं, जबकि भारत तो चीन या यूरोप की तुलना में रूस से कम ही ऊर्जा खरीदता है। ट्रम्प का उद्देश्य भारत को ट्रेड डील के लिए मजबूर करना है।
हालांकि ट्रम्प द्वारा चीन की ओर धकेले जाने के प्रति मोदी को सावधान रहना चाहिए। पिछले अनुभव बताते हैं कि एक भरोसेमंद साझेदार बनने के बजाय चीन द्वारा भारत की कमजोरियों का फायदा उठाने की आशंका अधिक है। 1951 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, तब से ही भारत-चीन संबंधों में प्रतिद्वंद्विता और अविश्वास भर गया था।
2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो इन रिश्तों में बदलाव को उन्होंने अपना मिशन बनाया। संबंधों में बेहतरी की उनकी आशा गलत नहीं थी। लेकिन उनकी सदाशयता का फायदा उठाकर जब चीन ने क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाना जारी रखा, और तब भी उन्होंने रवैया नहीं बदला- तो यह गलत था।
चीन ने अपने मनसूबे छिपाने के अधिक प्रयास नहीं किए हैं। मोदी जब पहली बार शी जिनपिंग की अगवानी कर रहे थे तो चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमाक्षेत्र में अतिक्रमण कर लिया। भले ही 2014 की उस समिट को सफल बताया गया हो, लेकिन चीनी सेनाएं तब तक भारत की जमीन पर डटी रहीं, जब तक कि हमने वहां उनकी रक्षात्मक किलेबंदी को ध्वस्त नहीं कर दिया।
इसके अगले साल ही मोदी ने चीनी निवेश आकर्षित करने के लिए चीन को कंट्री ऑफ कन्सर्न की सूची से निकाल दिया था। बदले में भारत को क्या मिला? सस्ते चीनी आयात की बाढ़। भारत के साथ चीन का व्यापार सरप्लस इतना बढ़ गया कि यह अब भारत के पूरे रक्षा बजट- जो दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा है- से भी अधिक है। ऐसे में एक तरह से देखा जाए तो भारत परोक्ष तौर पर चीनी सेना की मजबूती और सीमाओं में बदलाव के उसके मनसूबों में मदद ही कर रहा है।
2014 से 2019 के बीच जब चीन ने पाकिस्तान के साथ रणनीतिक रिश्ते मजबूत किए, भारतीय सीमा पर सैन्यीकृत बॉर्डर विलेज बनाए और ऊंचाई वाले स्थानों पर सैन्य ढांचे में विस्तार किया, तब भी मोदी ने जिनपिंग से 18 बार मुलाकात की थी।
मोदी रिश्ते सुधारने के प्रति इतने समर्पित थे कि उन्होंने 2017 में डोकलाम में चीनी कब्जे के बाद भी कूटनीति जारी रखी। अप्रैल 2020 में जब चीनी सैनिक सीमा पर कई जगहों से भीतर घुस आए तब जाकर मोदी ने चीन के प्रति अपनी नीति को स्थगित किया।
पांच साल बाद हम फिर उसी जाल में फंसने का जोखिम उठा रहे हैं। मोदी तिआनजिन में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेकर लौटे हैं। लेकिन एससीओ मोटे तौर पर चीन की पहल है और भारत ने अब तक इसे प्राथमिकता नहीं दी थी।
पिछले साल खुद मोदी कजाखस्तान में इसके शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं हुए थे। 2023 में जब भारत के पास इसकी अध्यक्षता थी तो शिखर सम्मेलन को वर्चुअल प्रारूप में बदल दिया गया था। अब मोदी का इस साल वहां जाने का निर्णय एससीओ के बजाय संभवत: चीन के साथ सुलह के संकेत देने से जुड़ा है।
जबकि चीन ने भारत को ऐसा कोई कारण नहीं दिया कि हालात पहले से अलग होंगे। इसके विपरीत, मई में जब भारत पहलगाम आतंकी हमले के जबाव में पाकिस्तानी आतंकवादी ठिकानों पर हमले कर रहा था तो चीन ने रीयल टाइम रडार और सैटेलाइट डेटा देकर पाकिस्तान की मदद की थी। चीन ने हाल ही में भारतीय सीमा के निकट दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना का भी खुलासा किया, जो पारिस्थितिकी और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर गंभीर प्रभाव डालेगा।
चीन को भारतीय बाजारों से लाभ कमाने की अनुमति देकर- भले ही इससे हमारी राष्ट्रीय स्वायत्तता और सुरक्षा कमजोर होती हो- क्या हम एक अच्छा संदेश देंगे? इतिहास हमें चेतावनी देता है कि चीन पर भरोसा करना खतरनाक है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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