Sunday 05/ 10/ 2025 

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Nanditesh Nilay’s column – Why try to find your identity in brand value? | नंदितेश निलय का कॉलम: अपनी पहचान को ब्रांड वैल्यू में ढूंढने की कोशिशें क्यों करें?

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3 घंटे पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक - Dainik Bhaskar

नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

एपल, एलेक्सा और कृत्रिम चेतना के युग में लाखों रुपये के नए एपल फोन का लॉन्च होना बड़ी बात नहीं लगती। हां, गरीबी, फ्रीबीज़ और राशन से जूझते देश में उस फोन को खरीदने के लिए लगने वाली भीड़ और लंबी कतार, उसके प्रथम खरीददार होने का वैभव सामाजिक संवेदना को कमतर जरूर करता है।

विकसित और विकासशील के बीच संघर्षरत देश में थोड़ी चिंता उन सभी के लिए भी बनती है; जो साल के बारह महीने बीत जाने के बाद भी लाख रुपए नहीं कमा पाते। ऐसे युग में जहां मनुष्य एक उत्पाद बनता जा रहा है और उत्पाद एक व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा है, उस भीड़ से यह सवाल पूछने का अवसर है कि क्या आज हम ह्यूमन वैल्यू से ज्यादा महत्व ब्रांड वैल्यू को दे रहे हैं? क्या क्रयशक्ति नई सामाजिक मान्यता बनती जा रही है? फिर उस व्यक्ति का क्या होगा; जो ह्यूमन वैल्यू के लेंस से ही दुनिया को उस फ्रेम में समेटना चाहता है, जहां मानव होने का भाव कम नहीं होता।

लॉकडाउन के समय गरीब जनता की लंबी कतार देखने के बाद 2023 में मुंबई और दिल्ली में एपल स्टोर के उद्घाटन पर विशाल अनुशासित कतार को देखना भी किसी के लिए आश्चर्य रहा था तो किसी के लिए गौरव। बारिश में डूबे शहरों में उमस भरी गर्मी भी उनको नहीं समझा पाई कि यह एक फोन ही तो है, इसके लिए रातभर क्यों लाइन में खड़े रहना! लेकिन जब हम नागरिक कम और उपभोक्ता ज्यादा बनते चले जाते हैं तो एपल स्टोर पर पहुंचने का भाव किसी तीर्थ-यात्रा से कम नहीं लगता।

पिछले कुछ दशकों से ब्रांड, तकनीक और उपभोक्तावाद ने मीडिया और मानवीय अनुभूति के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। अब भारत केवल एक बाजार ही नहीं, बल्कि एपल उत्पादों का निर्माण-स्थल भी बन चुका है। लेकिन ऐसे देश में जहां स्मार्टफोन की कीमत दस हजार से लेकर एक लाख के बीच है, क्या समाज ब्रांड वैल्यू से निर्धारित होगा? उसके लिए लंबी कतारें एक आम आदमी को हतोत्साहित और भ्रमित कर सकती हैं।

ऊंची लागत, क्रय शक्ति, जरूरत, इच्छा और एक साधन-सम्पन्न वर्ग बनने का सपना, जैसे कारक थोड़ी देर के लिए प्रभाव में तो ले सकते हैं लेकिन खुद की पहचान और आइडेंटिटी के संकट का समाधान उस ब्रांड वैल्यू में ढूंढना कैसी जद्दोजहद है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ब्रांड वैल्यू के प्रति बढ़ती आसक्ति उस वर्ग के लिए एक नए तरह का सशक्तीकरण (“स्वैग’) है, जो सिर्फ दूसरों से खुद को श्रेष्ठ दिखाने में विश्वास रखता है?

इसलिए मध्यम वर्ग की ऊंची उड़ान भरकर आसमान छूने की चाहत ने उस ऊपरी गतिशीलता को बढ़ावा दिया और इस तरह आम आदमी को मासिक किश्तों और हतोत्साहन के चंगुल में भी फंसा दिया है। दिवाली की दहलीज पर घटे जीएसटी की लिस्ट लिए एक आम आदमी एपल फोन की कतार में तो नहीं खड़ा दिखता लेकिन बाजार उसे बुलाता है।

वह ब्रांड वैल्यू भी बुलाती है, जो उसे अलग पहचान देना चाहती है। सभी सामानों पर दाम घटे दिखते हैं और मूल दाम भी लिखा होता है। बाजार बताना चाहता है कि भले ही वह उपभोक्ता एपल की कतार में नहीं खड़ा है, लेकिन अमेजन, फ्लिपकार्ट सभी उसको ब्रांडेड सामान देंगे और वह भी घटे दामों में।

वह भावुक उपभोक्ता भी तो ब्रांड को एक शक्तिशाली पहचान के रूप में देख रहा है, क्योंकि उसे यह बात समझ में आ गई है कि व्यक्ति की पहचान और कीमत राशन के दुकान की कतार में खड़े रहने या कुछ किलो चावल से तो नहीं बनती। बाजार उस हर आम आदमी को आश्वस्त करता है कि दुनिया पेट भरने से नहीं बल्कि सही कतार में खड़े रहकर नई पहचान बनाने से चलती है। और आगे चलकर वही ब्रांड शहरी परिवेश में एक नए तरह के समुदाय का निर्माण कर रहा होता है, जिस पर मानवीय संवेदनाएं कोई खासा प्रभाव नहीं छोड़तीं।

भारत जैसे देश में स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन एक लाख रुपए का फोन खरीदने से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य ने तकनीक का आविष्कार आसानी और दक्षता के लिए किया था, पर किसने सोचा था कि एक दिन एक महंगा फोन एक विकासशील देश में ह्यूमन आइडेंटिटी का हिस्सा बन चुका होगा? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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