Virag Gupta’s column: Four small steps to ensure speedy justice | विराग गुप्ता का कॉलम: जल्द न्याय दिलाने के लिए चार छोटे कदम उठाए जाएं

7 घंटे पहले
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विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील और ‘डिजिटल कानूनों से समृद्ध भारत’ के लेखक
अगर कोई आम व्यक्ति यह बात कहता कि विकसित भारत के रास्ते में न्यायिक प्रणाली यानी अदालतें सबसे बड़ा रोड़ा है, तो उसे संविधान विरोधी बताने के साथ उसके खिलाफ एफआईआर और अवमानना का मामला दर्ज हो सकता था। लेकिन यह तीखा तंज प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने सुप्रीम कोर्ट के जजों की उपस्थिति में किया है।
उनसे सहमत होने के बावजूद यह बताना जरूरी है कि इस दुर्व्यवस्था, पराभव और पतन के लिए सरकार भी बराबर से जिम्मेदार है। नवरात्रि में इन चार सूत्रों पर अमल से अन्याय की आसुरी शक्तियों के खात्मे के साथ विकसित भारत का सपना भी सफल हो सकता है-
1. डाटा और ऐप : कैट जैसे अनेक न्यायाधिकरण, आयकर, जीएसटी विभागों और स्थानीय निकायों में चल रहे लाखों विवाद और मुकदमों का सही हिसाब नहीं है। लोक अदालतों में 2024 में 10.45 करोड़, 2023 में 8.53 करोड़ और 2022 में 4.19 करोड़ मुकदमों का निपटारा हुआ। पिछले तीन सालों में 23 करोड़ मुकदमों के निपटारे के बावजूद जिला अदालतों, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में 5.3 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। क्या हम विवाद और मुकदमा प्रधान देश बन गए हैं? इलाज के लिए मर्ज का सही आंकलन जरूरी है। इसके लिए न्यायिक अदालतों के साथ न्यायाधिकरण, स्थानीय निकाय, राजस्व महकमे और अन्य सरकारी सरकारी विभागों में लंबित सभी तरह के विवाद और मुकदमों की अद्यतन जानकारी के लिए राष्ट्रीय ऐप बनाया जाय।
2. सर्कुलर इकोनामी : अपराध रोकने और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए अदालतों का गठन हुआ है। लेकिन फर्जी मुकदमों और न्याय में विलंब की वजह से देश में अन्याय, अपराध और अराजकता बढ़ रही है। सिविल मामलों में सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। जिला अदालतों में तीन चौथाई से ज्यादा मुकदमे आपराधिक हैं, जिनमें सरकार या पुलिस पक्षकार है। जेलों में बंद 70 फीसदी कैदी अंडरट्रायल हैं। आम आदमी को मुकदमेबाजी में गाढ़ी कमाई खर्च करनी पड़ती है। जबकि सरकारी वकील, पुलिस, जज और जेल सरकारी खर्च पर चलते हैं। अपराध और अन्याय को बढ़ाने वाले इस आर्थिक तंत्र की रीढ़ को तोड़े बगैर मुकदमेबाजी के जंजाल से मुक्ति मिलना मुश्किल है।
3. जजों की संख्या : विधि आयोग की रिपोर्ट के आधार पर जजों की संख्या बढ़ाकर समस्या के जादुई समाधान का फार्मूला दिया जाता है। लेकिन नए पद बनाने से पहले वर्तमान खाली पदों पर नियुक्ति पर कोई बात नही करता। हाईकोर्ट में 33 फीसदी और जिला अदालत में 21 फीसदी जजों के पद और दूसरे स्टाफ के 27 फीसदी पद रिक्त हैं। न्यायिक व्यवस्था पर राज्य सरकारें बजट का सिर्फ .59 फीसदी खर्च कर रही हैं। चार सालों में ई-कोर्ट और इन्फ्रा विकास के लिए 7210 करोड़ और 9000 करोड़ आवंटित किए गए हैं। दिल्ली में सीवेज प्लान के लिए 57000 करोड़ का मास्टर प्लान तैयार हो रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर प्रति व्यक्ति खर्च 15000 रुपए जबकि न्यायपालिका पर सिर्फ 182 रुपए है। विधिक सहायता के राष्ट्रीय अभियान के लिए सिर्फ 200 करोड़ का बजट है, जो अधिकांशतः मीटिंग और कांफ्रेंस में खर्च हो जाता है। जबकि मुकदमों से जुड़े 3108 करोड़ दस्तावेजों के डिजिटलीकरण के लिए 2038 रु. आवंटित किए गए हैं। संख्या बढ़ाने से ज्यादा जरूरी है कि वर्तमान जजों को बेहतर आवास, कार्यस्थल, स्टाफ, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि सुविधाएं दें।
4. समाधान : नेपाल से सबक लेकर गवर्नेंस सुधारना अब पूरे देश की जरूरत है। गलत एफआईआर दर्ज करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो। जेलों में बंद गरीब बेगुनाह कैदियों की रिहाई के लिए राष्ट्रीय अभियान शुरू हो। छोटे अपराधों का सामुदायिक सेवा के दंड के माध्यम से तुरंत निपटारा हो। सरकारी अपीलों में राष्ट्रीय मुकदमा नीति का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो। पीआईएल के नाम पर पब्लिसिटी और सियासी मुकदमेबाजी पर रोक लगे। गलत या बेवजह का मुकदमा दायर करने वालों के खिलाफ कठोर जुर्माना लगे।
न्यायिक व्यवस्था में वंशवाद, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता की वजह से मेरिट की अवहेलना होती है। कानूनों में सनसेट प्रावधान, पुलिस सुधार, जजों और लोक अभियोजकों की नियुक्ति में सरकारी हस्तक्षेप रोकने की अपेक्षा करना दूर की कौड़ी है। संविधान के अनुसार आम जनता को जल्द न्याय दिलाने की जवाबदेही पूरी करने के लिए ये छोटे कदम भी उठाए जाएं तो मुकदमेबाजी की संस्कृति कमजोर होने के साथ मुकदमों के बोझ से राहत मिल सकती है।
संविधान के अनुसार आम जनता को जल्द न्याय दिलाने की जवाबदेही पूरी करने के लिए चार छोटे कदम भी अगर उठाए जाएं तो मुकदमेबाजी की संस्कृति कमजोर होने के साथ मुकदमों के बोझ से राहत मिल सकती है। नहीं तो हम मुकदमा प्रधान देश बनकर रह जाएंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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