Derek O’Brien’s column – Why is the government shying away from discussing the Election Commission? | डेरेक ओ ब्रायन का कॉलम: चुनाव आयोग पर चर्चा से कतरा क्यों रही है सरकार?

- Hindi News
- Opinion
- Derek O’Brien’s Column Why Is The Government Shying Away From Discussing The Election Commission?
4 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं
सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है और संसद जनता के प्रति। अगर संसद ठीक से काम न कर पाए तो सरकार किसी के प्रति जवाबदेह नहीं रह जाती। हमें स्कूल की किताबों में बताया जाता था कि राज्य के तीन अंग हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) कार्यपालिका के तहत आता है।
उसके पास कुछ अर्ध-न्यायिक शक्तियां भी हैं। फिर भी हमें बताया जा रहा है कि वह संसद के प्रति जवाबदेह नहीं है। यह गलत है। संसद के पास निर्वाचन आयोग पर चर्चा करने की शक्ति है, फिर भी सरकार इसकी अनुमति क्यों नहीं देती?
संसद के पिछले दो सत्रों में कांग्रेस, टीएमसी, सपा, डीएमके, आप, आरजेडी, शिवसेना (यूबीटी), झामुमो समेत अन्य विपक्षी दलों ने निर्वाचन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने संबंधी चर्चा के लिए करीब सौ नोटिस दिए। बातचीत के नियमों या नोटिस के शब्दों को लेकर भी विपक्ष का कोई आग्रह नहीं था। फिर सरकार चर्चा से बच क्यों रही है? यहां तक कि उसने उस नोटिस पर भी चर्चा नहीं कराई, जिसका शीर्षक ‘चुनावों के 74 वर्ष : स्थायी लोकतांत्रिक भावना का उत्सव’ था।
बजट और मानसून सत्रों में सरकार ने इन संसदीय नियमों को हवाला देते हुए चर्चा से इनकार कर दिया कि संवैधानिक संस्थाओं पर बहस की मंजूरी नहीं दी जा सकती। तो संसद के कार्य संचालन नियम आखिर क्या कहते हैं? नियम 169 जनहित के सामान्य मुद्दों पर ‘चर्चा के लिए स्वीकार्यता की शर्तें’ बताता है। लेकिन इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं, जो चुनाव आयोग समेत किसी भी संवैधानिक संस्था पर चर्चा से रोकता हो।
वास्तव में कई मौकों पर चुनाव आयोग को लेकर सदन में चर्चा हुई भी है। आधा दर्जन से ज्यादा तो मैं ही गिना सकता हूं। मिसाल के तौर पर तीन हैं : 1. मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा चुनाव स्थगित करना। 2. चुनावी कानूनों में संसदीय उपचुनाव पूर्ण कराने की अवधि न बता पाने संबंधी अनियमितताएं। 3. दिल्ली नगर निगम के चुनाव और गढ़वाल संसदीय सीट के उपचुनाव कराने में देरी। तो ऐसे कई प्रावधान हैं, जो संसद को चुनाव आयोग पर चर्चा का अधिकार देते हैं।
संसद के पास ‘पॉवर ऑफ द पर्स’ है। यानी कार्यपालिका का बजट संसद की मंजूरी के अधीन है। कोई भी बजट अनुदान की मांगों पर गहन चर्चा के बाद मंजूर किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के जजों के वेतन जैसे कुछ ही अपवाद हैं, जहां संसद की मंजूरी जरूरी नहीं।
ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए किया गया है। लेकिन चुनाव आयोग का बजट संसद की मंजूरी के अधीन है, जिसे विधि एवं न्याय मंत्रालय के जरिए पेश किया जाता है। इसका मतलब हुआ कि ‘पॉवर ऑफ द पर्स’ होने के नाते संसद के पास निर्वाचन आयोग पर चर्चा का अधिकार भी है। ऐसे में जब सरकार दावा करती है कि आयोग का बजट मंजूर करने वाले सांसदों को ही इस पर चर्चा का अधिकार नहीं, तो यह संसद के अधिकारों का उल्लंघन है।
इसी सरकार ने बहुमत के बल पर मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें एवं कार्यकाल) विधेयक-2023 पारित कराया था। इस कानून के जरिए सरकार ने निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता कमजोर कर दी और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में मनमाना अधिकार हासिल कर लिया। लेकिन यहां मुद्दा ये नहीं है।
अहम यह है कि इस विधेयक को पारित करते वक्त संसद में निर्वाचन आयोग के कामकाज पर गहन चर्चा की गई। ऐसे में सरकार का यह दावा हास्यास्पद है कि चुनाव आयोग पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती, जबकि यह स्पष्ट है कि 2023 में ही लोकसभा और राज्यसभा कुल मिलाकर इस निर्वाचन निकाय पर ही सात घंटे तक चर्चा कर चुकी हैं।
चुनाव लोकतंत्र की बुनियाद हैं। सरकार और संसद का अस्तित्व ही चुनावों से तय होता है। इसलिए, हमारी चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता इस पर निर्भर करती है कि देश के नागरिक और उनके चुने हुए प्रतिनिधि उस निकाय पर चर्चा करने में सक्षम हों, जो चुनाव कराने के लिए एकमात्र जिम्मेदार संस्था है।
आगामी शीतकालीन सत्र में विपक्ष फिर से चुनाव आयोग पर चर्चा की मांग करेगा। ऐसे में सरकार को बेकार के बहाने बनाने के बजाय जनभावनाओं का सम्मान करते हुए एक खुली और पारदर्शी बहस में शामिल होना चाहिए।
पुनश्च : संसद के नियमों के अनुसार किसी नोटिस को तब तक प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि वह स्वीकृत न हो। इस स्तम्भ में जितने भी नोटिसों का जिक्र किया गया है, वो पिछले सत्रों के हैं। और वे अस्वीकृत किए जा चुके हैं। ऐसे में आपके इस स्तम्भकार ने किसी नियम का उल्लंघन नहीं किया है!
हमें बार-बार बताया जा रहा है कि निर्वाचन आयोग संसद के प्रति जवाबदेह नहीं है। यह तथ्यहीन और गलत है। संसद के पास निर्वाचन आयोग पर चर्चा करने की शक्ति है। फिर भी सरकार इसकी अनुमति क्यों नहीं देती? (ये लेखक के अपने विचार हैं)
Source link
