Monday 01/ 12/ 2025 

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Pawan K. Verma’s column – A strong national opposition party is essential in a democracy | पवन के. वर्मा का कॉलम: एक मजबूत राष्ट्रीय विपक्षी दल लोकतंत्र में जरूरी है

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6 घंटे पहले

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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक - Dainik Bhaskar

पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक

हाल के बिहार चुनाव परिणामों में नए सियासी स्टार्टअप जन सुराज समेत समूचा विपक्ष धराशायी हो गया। एनडीए को एकतरफा जीत मिली। लेकिन इस चुनाव की सबसे अहम बात थी देश की इकलौती राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी कांग्रेस का पतन। बिहार में कांग्रेस 8.7% वोटों के साथ 6 सीटें ही जीत पाई।

एक वक्त था, जब कांग्रेस महज एक राजनी​तिक दल ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन थी। वह आदर्शों और नेतृत्व की ऐसी खान थी, जिसने एक नवगठित राष्ट्र की नियति रची थी। लेकिन आज कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है, मानो वह अतीत के अपने ही वैभव में कैद होकर रह गई हो।

हर चुनावी हार के साथ सवाल उठता है- क्या कांग्रेस खत्म हो चुकी है? कांग्रेस का विचार तो आज भी प्रासंगिक है, लेकिन उसे लागू करने का माद्दा रखने वाली पार्टी त्रासद रूप से बिखर चुकी है। 1984 में आखिरी बार कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था।

तब से हुए कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन कमजोर होता चला गया। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के उदय के बाद से तो यह गिरावट और तेज हो गई। यदि 2014, 2019 और 2024 के तीन आम चुनावों में जीती कुल सीटें भी जोड़ लें तो कांग्रेस के खाते में कुल 195 सीटें ही आई हैं। ये भी बहुमत से 78 सीटें कम हैं!

इसके बावजूद पार्टी में जवाबदेही का पूर्ण अभाव सबसे चौंकाने वाली बात है। इतने बुरे हालात में जिस शिद्दत से आत्मावलोकन की जरूरत है, पार्टी लगातार उससे मुकरती रही है। लोकतांत्रिक जगत में कुछ ही ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो बिना किसी अंदरूनी बदलाव के लगातार मिल रही हारों को झेलने में सक्षम हों। लगता है कांग्रेस कड़वी सच्चाई के प्रति आंखें मूंदे बैठी है।

नेतृत्व केन्द्रीकृत बना हुआ है, निर्णय प्रक्रिया अपारदर्शी है और असहमति को आक्रामकता व उपेक्षा से दबा दिया जाता है। कांग्रेस पार्टी आंतरिक सुधारों को लेकर इतनी अक्षम क्यों है? इसका जवाब शायद दशकों तक पार्टी में हुए संरचनात्मक उतार-चढ़ावों में छिपा है।

औपनिवेशिक शासन से लड़ने वाली कांग्रेस एक समय क्षेत्रीय नेताओं, वैचारिक विविधताओं और जमीन पर अपनी मौजूदगी से बनी मिली-जुली ताकत थी। लेकिन आज वही कांग्रेस एक वंशवादी जागीर बन चुकी है, जिसके पास संगठनात्मक ताकत नहीं और जहां योग्यता से ज्यादा वफादारी को नवाजा जाता है।

क्या पुरानी कांग्रेस की राख से नई कांग्रेस उत्पन्न हो सकती है? ऐतिहासिक रूप में, भारत में राजनीतिक पुनर्जीवन के लिए विभाजन जरूरी होता है। खुद कांग्रेस ऐसे कई विभाजनों की गवाह रही है, जिसने नए दलों को जन्म दिया है।

आजादी से पहले भी पार्टी में विभाजन हुए थे। फिर 1969 में कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) बनीं। इसने पार्टी की विचारधारा को फिर से परिभाषित किया। आज जड़ता की शिकार हो चुकी इस पार्टी के लिए पुनर्गठन का कोई निर्णायक क्षण निश्चित ही जीवनदायी होगा। पार्टी के लिए वंशवाद से मुक्त नया नेतृत्व, विचारधारा की ताजगी और नीचे से ऊपर तक संगठनात्मक पुनर्निर्माण अनिवार्य है।

देश को एक बुनियादी हकीकत से लड़ना होगा। भारतीय लोकतंत्र एक भरोसेमंद विपक्ष के बिना फल-फूल नहीं सकता। सत्ताधारी दल चाहे जितना ताकतवर या योग्य हो, संतुलन बनाए रखने के लिए उसके सामने एक मजबूत विपक्ष होना ही चाहिए। लोकतंत्र सिर्फ चुनावी गणित नहीं। इसका अर्थ विकल्पों का लगातार बने रहना भी है।

अगर एक धुरी जरूरत से अधिक ताकतवर हो जाए तो दूसरी ढह जाती है और लोकतंत्र की जीवंतता बनाए रखने वाला संतुलन खत्म हो जाता है। मजबूत विपक्ष की मौजूदगी ही सरकार को आत्ममंथन के लिए मजबूर करती है। उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करती है।

क्षेत्रीय दल भले अपनी जगह मजबूत हों, लेकिन वे राष्ट्रीय नैरेटिव पेश नहीं करते। वे स्थानीय आकांक्षाओं से बंधे रहते हैं। वे अपनी जगह भले अनिवार्य हों, किन्तु भारत की बहुलतावादी कल्पनाशीलता का बोझ उठाने में अक्षम हैं।

एक वक्त था जब कांग्रेस ऐसी आवाज थी, जो क्षेत्रों, धर्मों, भाषाओं और वर्गों को आपस में जोड़ती थी। लेकिन जब वह अपनी इस भूमिका से पीछे हटी तो उसने वैचारिक बहुलता के लिए गुंजाइश बहुत संकरी कर दी।

अगर कांग्रेस अपने में बदलाव नहीं कर पाती है, तो एक नई कांग्रेस या नए विकल्प को पैदा होने से कोई नहीं रोक सकता। इतिहास शायद ही ऐसी संस्थाओं को पुरस्कृत करता है, जो बदलाव से इनकार करती हों। लेकिन वह उन नए राजनीतिक स्वरों की अगवानी जरूर करता है, जो पीछे छूटे निर्वात को भरने के लिए आगे आते हैं। कांग्रेस को कुछ करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।

क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय नैरेटिव पेश नहीं करते। वे स्थानीय आकांक्षाओं से बंधे रहते हैं और भारत की बहुलतावादी कल्पनाशीलता का बोझ उठाने में अक्षम हैं। एक समय कांग्रेस एक राष्ट्रीय आवाज थी, लेकिन आज नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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