संघ के 100 साल: RSS के पहले गृहस्थ प्रचारक की कहानी, जो बने दो दो बार सरकार्यवाह – sangh 100 years story bhaiya ji dani dr hedgewar rss ntcppl

जनसंघ की स्थापना हुई, तो हिंदू महासभा के कई लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाराज हो गए. वो चाहते थे कि संघ राजनीति में प्रवेश करके हिंदू महासभा से जुड़ जाए. ऐसे में उत्तर प्रदेश के एक हिंदू महासभा नेता विशन चंद्र सेठ लगातार गुरु गोलवलकर को पत्र लिख रहे थे. उनको जबाव में बस इतना ही मिला कि ये पत्र में करने की चर्चा नहीं, जब कभी आमने-सामने बैठेंगे तो बात करेंगे. गुरु गोलवलकर को क्या पता था कि इतनी जल्दी सामना हो जाएगा. वह एक बार यूपी के प्रवास पर थे. ट्रेन के उसी डिब्बे में अचानक विशन चंद्र सेठ मिल गए. गुरु गोलवलकर ने उनको साथ बैठे भैयाजी दाणी की तरफ इशारा करके बस इतना कहा, “ये हमारे सरकार्य़वाह हैं, यही प्रमुख हैं, सब करना धरना इन्हीं के जिम्मे है. मैं तो केवल गाइड (मार्गदर्शक) हूं. आप इन्हीं से बात कर लें’’. बाकी उन्हें भैयाजी दाणी ने अपने तरीके से समझा दिया
गुरु गोलवलकर ने जो कहा वो सच भी था. संघ में सरसंघचालक मार्गदर्शक की भूमिका में ही रहता है औऱ सरकार्य़वाह एक तरह से सीईओ यानी मुख्य कार्याधिकारी की भूमिका में रहता है. इतने प्रांत, इतने संगठन, इतने प्रचारक, साल भर के सैकड़ों कार्यक्रम, सैकड़ों कार्यालय व अन्य प्रकल्प और तमाम बैठकें, किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के सीईओ से कई गुना जिम्मेदारियां संघ के सरकार्य़वाह पर होती हैं. ऐसे में भैयाजी दाणी की कहानी ज्यादा दिलचस्प है क्योंकि एक तो वो पहले प्रचारक थे जो विवाहित थे औऱ दूसरे ऐसे भी शायद पहले ही सरकार्यवाह हैं, जो बीच में ब्रेक लेकर चले गए औऱ फिर वापस आकर सरकार्य़वाह के पद पर आ गए. इससे पहले डॉ हेडगेवार ने ही ऐसा किया था कि जंगल सत्याग्रह में जाने से पहले डॉ परांजपे को अपनी जगह सरसंघचालक बनाकर गए थे और वहीं से उन्हें जेल जाना पड़ गया. लौट कर आए तो फिर से उन्हें सरसंघचालक बना दिया गया था.
हेडगेवार ने दी भैयाजी को अहम जिम्मेदारी
दरअसल भैयाजी दाणी वैभव सम्पन्न ‘श्रीमंत’ परिवार से थे, नागपुर की उमरेड तहसील में बापूजी दाणी के यहां उनका जन्म हुआ था, ‘भैयाजी’ तो उनका उपनाम था, उनका वास्तविक नाम प्रभाकर बलवंत दाणी था. उनके पिता लोकमान्य तिलक के भक्त थे, तिलक जब उमरेड आए तो उनके यहां ही ठहरे थे. जिस विश्वनाथ केलकर के यहां नागपुर में भैयाजी को मैट्रिक की परीक्षा के दौरान यहां रखा गया था, वो खुद एक राष्ट्रवादी नेता थे औऱ उसे मिलने डॉ हेडगेवार, मुंजे और परांजपे भी आते थे, वीर सावरकर के भाई बाबा सावरकर भी यहीं ठहरा करते थे.
डॉ हेडगेवार से भैयाजी का मिलना जुलना यहीं से शुरू हुआ, डॉ हेडगवार उन दिनों कांग्रेस से अलग होकर अपना संगठन खड़ा करने की योजना में जुटे थे, युवाओं को जोड़ रहे थे. भैयाजी भी संघ के शुरूआती दौर में ही उनके साथ जुड़ गए. यहां तक कि जिस बैठक में संघ के नाम को अंतिम रूप दिया गया था, उसमें भैयाजी भी थे और ‘महाराष्ट्र स्वंयसेवक संघ’ नाम का सुझाव भी उन्होंने ही दिया था.
भैयाजी दाणी के बिना संघ की इतिहास यात्रा पूरी होना मुश्किल है. नागपुर के बाहर संघ की शाखा को ले जाने का श्रेय भी उन्हीं के हिस्से जाता है. दरअसल वो नागपुर में भी पढ़ सकते थे, लेकिन डॉ हेडगेवार ने उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में पढ़ने के लिए कहा और वो वहां चले आए. बनारस में शाखा खुलने की कहानी थोड़ी दिलचस्प है. दरअसल बाबा राव सावरकर जेल से छूटने के बाद काफी बीमार हो गए थे. मदन मोहन मालवीय ने उन्हें उपचार के लिए काशी आने का निमंत्रण दिया, जहां के वैद्यराज त्रियम्बक शास्त्री बहुत प्रसिद्ध चिकित्सक थे. मालवीय ने उनका रहने का इंतजाम पहले अपने आवास पर ही किया था, लेकिन वहां से ज्यादा दूरी थी. बाद में वैद्यजी के ही पास एक ‘जमखंडी भवन’ में ये व्यवस्था की गई. ये महाराष्ट्र की जमखंडी रियासत का था. इस भवन के व्यवस्थापक व्यंकटेश नारायण (भाऊराव) वामले का परिचय वीर सावरकर से पहले से था, सो इनकी मित्रता भी ठीक हो गई.
नागपुर से बाहर पहली शाखा और ‘गुरुजी की खोज’ है भैयाजी दाणी के नाम
बाबा सावरकर को काशी का सांस्कृतिक वातावरण अच्छा लगा, उन्हें लगा कि यहां संघ की शाखा होनी चाहिए, मालवीय भी इस विचार से खुश थे. ये 1931 की बात है, डॉ हेडगेवार को काशी आने का न्यौता भेजा गया. वो आए भी औऱ जमखंडी भवन में ही रुके. करीब 15 दिन तक काशी में रुके. डॉ हेडगेवार ने जमखंडी भवन में ही भाऊराव दामले औऱ कुछ तरुणों को लेकर ये शाखा शुरू करवा दी. यही शाखा धनधान्येश्वर मंदिर में लगने लगी. बीएचयू की शाखा 3 महीने बाद शुरू हुई.
लेकिन बीएचयू की शाखा का प्रभाव क्षेत्र काफी बड़ा था, सो उसी की चर्चा होती आई है. जब अलग-अलग प्रांतों से आए छात्रों से भैयाजी दाणी का परिचय बढ़ने लगा तो उन्होंने वहां एक शाखा शुरू कर दी. बाद में संघ के लिए परिसर के अंदर कार्यालय लेने में मालवीय का सहयोग औऱ भैयाजी दाणी के प्रयास रंग लाए. भैयाजी को तब कहां पता था कि संघ के अगले सरसंघचालक को खोजने का श्रेय भी इतिहास में उन्हीं के हिस्से जाने वाला है. दरअसल गुरु गोलवलकर उन दिनों बीएचयू में प्राध्यापक थे और इतने प्रखर विद्वान थे कि हर कोई उनकी प्रशंसा करता था. भैयाजी दाणी भी उनके प्रशंसक हो गए थे. भैयाजी उन्हें शाखा लेकर आने लगे, और एक दिन उन्हें शाखा का अभिभावक बना दिया. इस शाखा के लिए घोष के वाद्य यंत्रों की व्यवस्था भी गुरु गोलवलकर ने ही करवाई थी.
जब डॉ हेडगेवार काशी आए तो भैयाजी ने उनकी मुलाकात गुरु गोलवलकर से करवाई. ये भेंट भी जमखंडी भवन में ही हुई थी. पहली ही भेंट में डॉ हेडगेवार गोलवलकर की विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित हो गए थे. जब भी भैयाजी उमरेड या नागपुर आते, डॉ हेडगेवार से मिलकर उन्हें शाखा कार्य की जानकारी तो देते ही, गुरु गोलवलकर के बारे में भी बताते और आग्रह करते कि उनको संघ कार्य़ में जोड़ा जाए.
काशी से स्नातक करने के बाद भैयाजी दाणी नागपुर लौट आए और संयोग देखिए, गुरु गोलवलकर भी बीएचयू में अध्यापन कार्य छोड़कर नागपुर वापस आ गए औऱ कुछ दिन बाद दोनों ही एक साथ वकालत की पढ़ाई कर रहे थे. वकालत की पढ़ाई के बाद भैयाजी ने नागपुर की गिरिपेठ बस्ती में एक घर किराए पर ले लिया और वहीं संघ का कार्यालय भी बन गया, अक्सर गुरु गोलवलकर भी वहां आते और चर्चाएं होतीं. लेकिन भैयाजी वहां भी नहीं टिक पाते, परिवार लगातार उन्हें उमरेड में उलझाए रखता था. परिवार की जिद से विवाह बंधन में भी बंध गए. लेकिन दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं था. ऐसे में उनका परिवार चाहता था कि कम से कम पारिवारिक कामों में जहां जरूरत है, उनमें तो उपस्थित रहा करें. गुरु गोलवलकर ने इस काम में परिवार की सहायता की. तब तक वो संघ के काम में जुट गए थे.
गुरु गोलवलकर के आव्हान पर छोड़ दी गृहस्थी
इधर गुरु गोलवलकर सरसंघचालक बने, उधर भैयाजी भी फिर से संघ में ज्यादा सक्रिय होने लगे थे. 1942 में गुरु गोलवलकर ने सभी स्वयंसेवकों से आव्हान किया कि सभी को परिवार छोड़कर संघ कार्य़ में जुटना होगा, प्रचारक बनकर निकलना होगा. भैयाजी दाणी को लगा कि उनको निकलना चाहिए, इस तरह वो पहले गृहस्थ प्रचारक बने. आज तो तमाम लोग बीच में नौकरियां छोड़कर, या सेवानिवृत्ति के बाद परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर संघ के प्रचारक बन जाते हैं, लेकिन तब ये आसान नहीं था. हालांकि भैयाजी दाणी के परिवार के पास धन, सम्पत्ति की कमी नहीं थी, फिर भी ये सब छोड़ना आसान कहां होता है.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
गुरु गोलवलकर ने उन्हें मध्य भारत की जिम्मेदारी दी. इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर आदि में भैयाजी दाणी ने जमकर मेहनत की. इतनी कि तीन साल में ही उनकी तबीयत खराब होने लगी. लेकिन इतने समय में मध्य भारत संघ का गढ़ बन गया. 1945 में गुरु गोलवलकर ने उन्हें वापस नागपुर बुला लिया. काफी समय से तमाम स्वयंसेवक और कई अधिकारी भी गुरु गोलवलकर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए भैयाजी से ही बात करते थे, और कभी-कभी गुरु गोलवलकर भी उन्हीं के जरिए बाकी लोगों के बारे में समझते थे या संदेश भेजते थे. भैयाजी दाणी हेडगेवार और गोलवलकर को जितना बेहतर समझते थे, उससे भी बेहतर संघ को समझते थे, क्योंकि वो उसके जन्म से पहले से जुड़े हुए थे. ऐसे में धन वैभव सबको त्यागकर प्रचारक बनने से उनको बेहद गंभीर लिया जाने लगा. उसी साल उनको संघ का सरकार्यवाह चुन लिया गया.
सबसे मुश्किल दौर में 11 साल रहे सरकार्यवाह
उनके कार्यकाल के शुरू के 6 वर्ष संघ के और देश के इतिहास में काफी विकट स्थिति वाले रहे. पहले आजादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में पहुंची, उसके बाद विभाजन की विभीषिका का लाखों लोगों को सामना करना पड़ा. ना जाने कितने लोगों के लिए पुनर्वास का इंतजाम संघ ने किया, सारी व्यवस्थाओं की कमान भैयाजी दाणी, बाला साहब देवरस जैसे गिनती के प्रमुख लोगों के पास थी. उसके फौरन बाद गांधी हत्या के चलते संघ पर प्रतिबंध लगाकर गुरु गोलवलकर को जेल भेज दिया गया. बाहर रहकर ना केवल स्वयंसेवकों का हौसला बढ़ाना था, बल्कि लोगों के गुस्से को झेलकर स्वयंसेवकों को नियंत्रित रहना भी सिखाना था. ऐसे में सबसे पहले खुद पर नियंत्रण रखना था, सोचिए उमरेड में हजारों लोगों ने उनके घर पर हमला बोल दिया. लाखों की सम्पत्ति नष्ट कर दी, लेकिन वो उमरेड नहीं गए. बल्कि गुरु गोलवलकर के रहने तक उनकी सुरक्षा में, उनके जेल जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में पूरे संघ को नागपुर से संभालते रहे.
फिर सभी स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर का संदेश तार से भिजवाया, “कुछ भी हानि हो, पर प्रतिवाद के लिए हिंसा मत करना”. अगली लड़ाई थी गुरुजी को जेल से छुड़ाने की और संघ से प्रतिबंध हटाने की, इसके लिए मध्यस्थों को जुटाना हो या फिर संघ का संविधान बनाना, बाला साहब देवरस जैसे वरिष्ठ अधिकारियों संग वो संघ की कमान संभाले रहे. इसी दौरान विद्यार्थी परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन भी अस्तित्व में आए. उनको भी दिशा देनी थी, सहयोग करना था. संघ से प्रतिबंध हटा तो फिर से स्वयंसेवकों का हौसला बढ़ाना था. इन सबमें भैयाजी दाणी की बड़ी भूमिका स्वाभाविक थी.
किसको भैयाजी ने कहा, ‘आपके लिए संघ छोड़ना ही श्रेयस्कर’
भैयाजी दाणी के सरकार्यवाह रहते ही जनसंघ की स्थापना भी हुई. संघ को गांधी हत्या में फंसाने के चलते संघ ने जो नफरत देखी, उसके लिए राजनीति में उनके लिए कोई तो बोलने वाला चाहिए ही था. ऐसे में तमाम जिम्मेदारियां भैयाजी के हिस्से में आईं. चुनावों में कई ऐसे भी स्वयंसेवक थे, जो चुनाव भी लड़े औऱ उनमें से ज्यादातर हार गए, तो निराशा फैल गई. भैयाजी ने ऐसे सभी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई, बस इतना कहा कि क्या हम भूल गए कि संघ की स्थापना क्यों की गई थी? और हम संघ कार्य क्यों करते हैं? क्या हमने निराश्रितों की सेवा इसलिए की थी कि हमें चुनाव में विजय प्राप्त हो और हम सत्तारूढ़ हो जाएं”? उसके बाद उन्होंने ये कहकर सबको शांत कर दिया कि, “संघ ने निरपेक्ष भाव से सेवा करना सिखाया है, जिन्हें सत्ता की लालसा है और संघ की ओर भी इसी दृष्टि से देखते हैं, उन्हें संघ छोड़ देना ही श्रेयस्कर होगा”. उसके बाद उनके नेतृत्व में ही 1952 में गोहत्या के खिलाफ बड़ा हस्ताक्षर अभियान भी चलाया गया.
1956 में गुरु गोलवलकर के 51वें जन्मदिन पर धन इकट्ठा करने का बड़ा अभियान चलाया गया. उसी साल भैयाजी के पिता का देहांत हो गया, ऐसे में उनको घर का कारोबार संभालना जरूरी हो गया. उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था, सो उनको कुछ समय के लिए सरकार्यवाह पद से मुक्त कर दिया गया, वो उमरेड चले गए. इधर उनका दायित्व एकनाथ रानडे को दे दिया गया. 6 साल बाद गुरु गोलवलकर ने एकनाथ रानडे को कन्याकुमारी में ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ की जिम्मेदारी सौंप दी और फिर से भैयाजी दाणी से वापस आने का आग्रह किया, वो आए भी. लेकिन अगले ही साल वो हृदय रोग का शिकार हो गए. डॉक्टरों ने उनके आराम करने की सलाह दी, उनके प्रवासों पर रोक लगा दी गई. लेकिन फिर भी कभी कभी वो चले जाते थे. उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता देखकर प्रतिनिधि सभा ने 1965 में बाला साहब देवरस को सरकार्य़वाह चुन लिया.
1965 में ही जब मध्यभारत के शिक्षावर्ग के लिए इंदौर आए तो उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गई और उनका निधन हो गया. उनके जाने के बाद उनके संपर्क में आए लोग और स्वयंसेवक जितना उनकी संगठन क्षमता की प्रशंसा करते थे, उससे ज्यादा उनकी विनोदप्रिय छवि को लेकर चर्चा होती थी कि कैसे वो वाकपटुता और हास्य विनोद में ही गंभीर से गंभीर मसले को भी हल कर देते थे.
पिछली कहानी: हेडगेवार का स्मृति मंदिर, हाकिम भाई का रोल और गुरु गोलवलकर का अंतिम पत्र
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