संघ के 100 साल: RSS की नींव का वो पत्थर जो बना विवेकानंद शिला स्मारक का ‘शिल्पी’ – sangh 100 years rss vivekanand rock eknath ranade ntcppl

के आर मलकानी अपनी किताब ‘The RSS Story’ में लिखते हैं कि उन दिनों मजाक में एक कहावत चल पड़ी थी कि अगर कभी भी कुतुबमीनार को हटाकर कहीं और लगाने का फैसला किया तो इस भागीरथ काम को बस एक ही आदमी सफलतापूर्वक आसानी से कर सकता है और वो हैं एकनाथ रानडे. संघ के सरकार्यवाह जैसे पद पर रह चुके एकनाथ रानडे को लेकर ये कहावत ऐसे ही नहीं चल पड़ी थी, संघ स्वयंसेवक होते हुए भी संसद में सभी पार्टियों, सभी धर्मों के 323 सांसदों का हस्ताक्षर लाकर केन्द्र और राज्य में संघ विरोधी सरकारों से ईसाई पादरियों के विरोध के बावजूद स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक की अनुमति लेना आसान काम नहीं था. फिर उसके लिए उतना धन जुटाना, जो 8 साल पहले गुरु गोलवलकर के 51वें जन्मदिन पर जुटाई गई धनराशि का पांच गुना हो, ये तो उपलब्धि की तरह ही था.
ऐसे संकल्पों को पूरा करने के लिए व्यक्ति को दृढ़ संकल्पित होना पड़ता है, यानी जिद्दी होना. ये गुण तो एकनाथ में बचपन से भरा पड़ा था. एक दौर था जब बच्चों को संघ की शाखा में अनुमति नहीं मिलती थी, उस दौर में नागपुर में अपने घर के पास लगने वाली शाखा में एकनाथ दीवार पर घंटे भर तक बैठे रहते थे, उन्हें देखते रहते थे. इस ‘धुन के धनी’ की मेहनत रंग लाई और जब बालकों को शाखा में प्रवेश करवाने का निर्णय लिया गया तो एकनाथ रानडे को पहली टोली में ही मौका दिया गया.
लेकिन एक मौका ऐसा भी आया जब देश आजाद होने के बाद नेहरू सरकार ने शाखा में बच्चों के भाग लेने पर ऐतराज जता दिया, तब एकनाथ रानडे ने ही अपने तर्कों से इस मामले में केन्द्र को आईना दिखाया. दरअसल गांधी हत्या के आरोपों में जब संघ पर प्रतिबंध लगा, गुरु गोलवलकर आदि को गिरफ्तार कर लिया गया तो सरकार ने मध्यस्थों के जरिए संघ के संविधान की बात की. संघ का संविधान लिपिबद्ध करके जब दिया गया तो मध्यस्थ ने फिर कहा कि संघ के संविधान में बच्चों के शाखा जाने पर रोक होनी चाहिए. इस पर एकनाथ रानडे ने अकाट्य तर्क रखे. उन्होंने कहा कांग्रेस पार्टी सेवादल में बच्चो के आने पर प्रतिबंध लगाए तो हम भी लगा देंगे. सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था, इसलिए ये मामला फिर ठंडे बस्ते में ही चला गया.
एकनाथ रानडे का जन्म महाराष्ट्र के जिले अमरावती के टिमटिला गांव में हुआ था, उनके पिता विदर्भ रेलवे में काम करते थे लेकिन उनकी पढ़ाई उनके बड़े भाई बाबूराव के यहां नागपुर में हुई थी. पिता गंभीर बीमार हुए तो पूरा परिवार ही बड़े भाई के यहां नागपुर चला आया. संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अन्नाजी सोहोनी उनके करीबी रिश्तेदार थे. सो उन्हें संघ को जानने समझने का मौका बचपन से ही मिल गया था. संघ शाखा में जाते जाते उन्होंने तय कर लिया था कि वह नौकरी करने के बजाय संघ प्रचारक बनेंगे और जैसे ही मैट्रिक का परीक्षा परिणाम आया, वो फौरन ड़ॉ हेडगेवार के पास जा पहुंचे कि मुझे तो प्रचारक बनाकर कहीं भेज दीजिए. डॉ हेडगेवार ने उन्हें समझाया कि आगे की पढ़ाई जारी रखो, लोग समझेंगे इसे नौकरी नहीं मिली है सो इसने मजबूरी में संघ कार्य अपना लिया है. एकनाथ रानडे फिर भी माने नहीं. 1936 में स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद वो फिर डॉ हेडगेवार के पास जा पहुंचे, अब हेडगेवार के पास भी ना करने की कोई वजह नहीं थी. इस तरह संघ को एक जिद्दी, ओजस्वी प्रचारक मिल गया. शुरुआत में उन्हें नागपुर औऱ आसपास के क्षेत्र की शाखाओं का काम मिला. फिर 2 साल बाद 1938 में उन्हें पूर्णकालिक प्रचारक बनाकर महाकौशल प्रांत (संघ की दृष्टि से प्रांत) की जिम्मेदारी देकर जबलपुर भेज दिया गया.
ऐसे निबटाया कढ़ीचट और रांगड़े का झगड़ा
लोकहित प्रकाशन से वीरेश्वर द्विवेदी की पुस्तक ‘संघ नींव में विसर्जित’ एकनाथ रानडे के ‘मिशन महाकौशल’ को लेकर एक दिलचस्प जानकारी देती है कि कैसे उन दिनों मध्यप्रदेश में हिंदी और मराठी भाषी लोगों का समावेश होने के चलते एक-दूसरे पर कटाक्ष करने की आदत थी. हिंदी भाषी लोग मराठियों को ‘कढ़ीचट’ बोलते थे और मराठी उन्हें ‘रांगड़े’ यानी असभ्य कहकर निशाना साधते थे. संघ के लिए ये क्षेत्र कड़ी चट्टान की तरह था. जबकि इस क्षेत्र में खुद डॉ हेडगेवार भी काम कर चुके थे. एकनाथ खुद मराठी भाषी क्षेत्र से आए थे, ऐसे में हिंदी भाषियों के मन से मराठियों के लिए संदेह दूर करना आसान काम नहीं था.
इसके लिए उन्होंने जो रास्ता निकाला, वो रामबाण साबित हुआ. उन्होंने जबलपुर के कुंजीलाल दुबे (जो बाद में मध्य प्रदेश के वित्त मंत्री बने) और खंडवा के डॉ बद्रीप्रसाद जैसे बेहद सम्मानित महानुभावों को संघ का संघचालक बनने के लिए किसी भी तरह तैयार कर लिया. ऐसे में ‘कढ़ीचट’ और ‘रागड़े’ का झगड़ा ही समाप्त हो गया. लेकिन जब पूरे प्रदेश में संघ शाखाओं का जाल बिछाने का उद्देश्य हो तो बाधाएं तो आनी ही थीं.
ये सब बाधाएं असामाजिक तत्वों से जुड़ी थीं, ऐसे में कई जगह तो शारीरिक संघर्ष भी करना पड़ा. इधर डॉ हेडगेवार की सलाह उनको याद थी, सो सागर यूनीवर्सिटी में उन्होंने एलएलबी में एडमीशन ले लिया और बाद में वहां से एमए (दर्शनशास्त्र) भी किया. इधर जब मध्य भारत से भैयाजी दाणी 1945 में वापस गए तो वो क्षेत्र भी एकनाथ रानडे के हवाले कर दिया गया. उन्हें महाकौशल और मध्य प्रांत (वर्तमान मध्य प्रदेश) का प्रचारक बना दिया गया. भारत विभाजन के समय वो लगातार इस क्षेत्र में शाखाएं मजबूत करने में जुटे रहे. गांव गांव तक संघ का नाम और काम पहुंच गया. आजादी वाले साल यानी 1947 में सागर यूनीवर्सिटी में उनके द्वारा लगाया गया 2500 स्वयंसेवकों का मासिक वर्ग अपनी व्यवस्था के लिए आज भी याद किया जाता है.
आगे का समय संघ के लिए भी मुश्किल था और देश के लिए भी. भारत विभाजन, गांधी हत्या और संघ पर प्रतिबंध. ये जाहिर सी बात है कि चाहे गुरु गोलवलकर की गिरफ्तारी के विरोध में 70 हजार से अधिक स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी का सत्याग्रह हो अथवा संघ से प्रतिबंध हटाने के लिए जेल से बाहर के प्रयास. एकनाथ रानडे भी अहम भूमिकाओं में रहे. 1950 में उन्हें एक औऱ अहम जिम्मेदारी दी गई. संघ को उत्तर-पूर्व के राज्यों की चिंता थी, ये राज्य सीमा पर थे और एक तरफ वहां ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां बढ़ गई थीं, दूसरे पूर्वी पाकिस्तान से लगे सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ भी बढ़ती जा रही थी. एकनाथ रानडे को पूरे पूर्वांचल की जिम्मेदारी दी गई, जिसमें आसाम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा भी शामिल थे.
उनका ये काम आसान नहीं था, भाषा एक बड़ी समस्या थी. बंजर जमीन पर लहलहाती फसलों का सपना देख रहे थे वो, लेकिन काफी हद तक उन्होंने काम को आसान किया. उनके जाते ही पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी. एकनाथ रानडे ने कलकत्ता को अपना केन्द्र बनाया. रानडे ने विस्थापितों की सहायता के लिए ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ बनाई और उसके जरिए हजारों तम्बू, शामियाने लगाकर उनको शऱण दी, महीनों तक उनके भोजन, वस्त्र, दवाइयों आदि का इंतजाम किया. इतना ही नहीं वो कुछ काम कर सकें, इसके लिए उनके लिए एक अस्थाई प्रशिक्षण संस्थान की भी स्थापना की गई. उनके प्रयास रंग लगाए औऱ पूर्वांचल में संघ के कदम मजबूत होने लगे.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
1953 में रानडे को एक नई जिम्मेदारी अतिरिक्त तौर पर दी गई, वो था संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख का पद. जिसके लिए उन्होंने देश भर में कार्यकर्ताओं के कार्य़कमों में जाना शुरू किया. 1954 में वर्धा के निकट सिंदी में जिला प्रचारकों का 15 दिन का एक विशेष शिविर भी आयोजित किया. लेकिन कुछ समय बाद ही गुरु गोलवलकर के दोनों करीबी भैयाजी दाणी और बाला साहब देवरस बीमार रहने लगे. इन्हीं दिनों में बाला साहब कुछ समय के लिए संघ कार्य से दूर भी हो गए थे. सो गुरु गोलवलकर के सामने मुश्किल थी, कि उतना योग्य, अनुभवी व निष्ठावान कोई हो जो उनकी जगह ले, खोज खत्म हुई एकनाथ रानडे पर जाकर., एकनाथ रानडे को प्रतिनिधि सभा ने संघ का सरकार्यवाह चुन लिया.
अगले 6 सालों में संघ की पहुंच, पकड़ और प्रभाव के विस्तार में एकनाथ रानडे ने बड़ी भूमिका निभाई. शाखा विस्तार की मंडल योजना का श्रीगणेश किया. एकनाथ ने समाज के शक्ति केन्द्रों की अवधारणा भी प्रस्तुत की. उनका मानना था कि संघ का समाज के सभी वर्गों के सभी महत्वपूर्ण नेताओं, मुखियाओं व चौधरियों आदि से सम्पर्क होना चाहिए, भले ही वो पढ़े लिखे हों ना हों. माना जाता है कि पूरे देश का व्यापक प्रवास यानी जिला स्तर पर भी करने वाले वो पहले सरकार्यवाह थे.
स्वामी विवेकानंद के मिशन ने बदल दिया जीवन
भैयाजी दाणी 1962 में वापस आए और एकनाथ रानडे को अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी दे दी गई, लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और ही लिखा था. 1963 में स्वामी विवेकानंद जी का शताब्दी वर्ष था, संघ ने भी तैयारियां शुरू कर दीं और एकनाथ रानडे ने ‘राइजिंग कॉल टू हिंदू नेशन’ नाम से स्वामी विवेकानंद के विचारों का संकलन कर प्रकाशित किया. उसका हिंदी संस्करण ‘उत्तिष्ठ जागृत’ नाम से आया.
तमिलनाडु में संघ प्रचारक दत्ताजी डिडोलकर से गुरु गोलवलकर की बातचीत के दौरान विचार बना कि शताब्दी वर्ष में क्यों ना कन्याकुमारी में ‘विवेकानंद शिला’ पर कोई स्मारक बनाया जाए. दरअसल शिकागो सम्मेलन में जाने से पहले इसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानंद ने 3 दिन तक ध्यान लगाया था, सभी सनातनी शिला की पूजा करते थे. लेकिन कुछ समय से ईसाइयों ने इस शिला को ‘सेंट जेवियर रॉक’ घोषित कर दिया गया और इसकी वजह थी उस इलाके में मिशनरी गतिविधियों का बढ़ना.
ऐसे में काम आसान भी नहीं था, सो गुरु गोलवलकर को याद आया एकनाथ रानडे जैसे जुझारू स्वयंसेवक का नाम. हालांकि पहले केरल के नेता मन्मथ पदमनाभन के नेतृत्व में ‘विवेकानंद शिला स्मारक समिति’ का गठन नवम्बर 1962 में ही कर दिया गया था. लेकिन जैसे ही वहां एक समारोह आयोजित करके एक चबूतरा बनाकार, उस पर एक सूचना पट (पत्थर) लगाया गया, कुछ ईसाइयों को पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे तोड़ दिया और वहां एक क्रॉस लगा दिया. इसके अलावा राजनीतिक बाधाएं भी थीं, और आर्थिक थीं. सो असम्भव से काम के लिए एकनाथ रानडे को जिम्मेदारी दी गई.
उनको इस स्मारक समिति का संगठन मंत्री (सचिव) बनाया गया. उनके भी पता था कि ये आसान काम नहीं है. केन्द्र व राज्य दोनों में संघ विरोधी सरकार थी और शिला बिना दोनों सरकारों की सहमति के किसी भी निर्माण के लिए नहीं मिल सकती. ऐसे में उन्हें लगा कि केवल जनता का समर्थन ही सरकारों पर दबाव बना सकता है, सो अगले 13 महीनों में उन्होंने देश का तूफानी प्रवास किया. उन्होंने सूची बनाई कि कौन कौन लोग हैं, जो इस प्रोजेक्ट में टांग अड़ा सकते हैं, फिर उनसे मुलाकात की योजना बनाई.
राजनीतिक दिग्गजों से निपटना आसान कहां था
सबसे पहला नाम था हुमायूं कबीर का, भारत सरकार में ‘साइंटिफिक रिसर्च और कल्चरल अफेयर्स’ विभाग में मंत्री थे. दरअसल एकनाथ रानडे ने मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री के कामराज से अनुमति ले ली थी, लेकिन कामराज को बाद में नेहरूजी ने इस्तीफा दिलवाकर कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुला लिया. नए मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम थे, जो पहले धार्मिक विभागों के मंत्री थे, लेकिन हुमायूं कबीर भी मुस्लिमों से जुड़े ज्यादातर मामलों में दिलचस्पी लेते थे. इस तरह कामराज की हां के बावजूद मामला लटका तो सितम्बर 1963 में एकनाथ सीधे हुमायूं कबीर से मिले. वो स्पष्ट कुछ नहीं बोले, मना करते रहे कि मेरी कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन ये जरूर कहा कि, ‘’वास्तव में मेरी राय है कि शिला पर कोई भी मानव निर्मित ढांचा नहीं होना चाहिए”.
जब कांग्रेस के ही 6 सांसदों ने केन्द्र सरकार से पूछा दिक्कत क्या है?
नवम्बर 1963 में उन्होंने भक्तवत्सलम से मुलाकात की, उनका कहना था कि ऐसा कोई स्मारक बने ही क्यों, जिसकी सुरक्षा भी सरकार को करनी पड़े. उन्होंने ये भी तर्क दिया कि प्रतिमा लगाने से शिला का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो जाएगा. उस वक्त तो नहीं लेकिन बाद में उन्होंने 31 दिसम्बर को पत्र भेजकर अनुमति के लिए इनकार किया और खेद जताया. अब तक रानडे मान चुके थे कि लड़ाई लम्बी है, सो जनता के साथ जनप्रतिनिधियों से भी मिलना शुरू कर दिया, वो हर दल के सांसदों से मिलने लगे. स्वामी विवेकानंद से किसी भी दल को कोई दिक्कत नहीं थी. उनकी लामबंदी का असर ये हुआ कि 23 नवम्बर 1963 को 6 कांग्रेसी सांसदों ने संसद में अपनी ही सरकार से प्रश्न पूछा कि मूर्ति स्थापना में बाधा क्या है? सरकार ने जवाब दिया कि ये राज्य सरकार का मामला है, केन्द्र का कोई लेना देना नहीं. हां हुमायूं कबीर जरूर दवाब में आ गए और बयान दिया कि मेरी ओर से किसी विरोध का सवाल ही नहीं उठता है.
सीपीआई, मुस्लिम लीग, डीएमके और नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसदों ने भी किए हस्ताक्षर
इधर एकनाथ रानडे लगातार सांसदों के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाते रहे और कुल 323 सांसदों ने अभियान के प्रपत्र पर हस्ताक्षर किए. इनमें सीपीआई, मुस्लिम लीग, डीएमके और नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद भी शामिल थे.
आजादी के बाद शायद ही किसी गैर सरकारी प्रयास को इतना समर्थन मिला होगा. महाराष्ट्र के वरिष्ठ सांसद डॉ एमएस अणे ने सांसदों की तरफ से जारी अपील में पीएम नेहरू औऱ सीएम भक्तवत्सलम से जल्द से जल्द इस स्मारक को हरी झंडी दिखाने की अपील की. नेहरूजी का जवाब आया कि ये मामला पूरी तरह मद्रास सरकार को तय करना है, इसलिए इस विषय में मैं मद्रास के मुख्यमंत्री को लिख रहा हूं. मद्रास के मुख्यमंत्री ने फिर भी हार नहीं मानी और पत्र लिखा कि अभी भी मेरा मत ये है कि स्मारक बनाने के लिए शिला ही सर्वोत्तम स्थल नहीं है. हालांकि बाद में उन पर काफी दवाब पड़ा तो भक्तवत्सलम ने शिला स्थल का दौरा किया और बयान दिया कि सरकार सहमत हो जाएगी, अगर प्रतिमा छोटी हो और उसकी सुरक्षा के लिए एक ढांचे से घिरी होनी चाहिए.
हालांकि सरकार ने लिखित अनुमति देते देते पूरे 8 महीने और लगा दिए, सितम्बर 1964 में जाकर ये मिल पाई. उसके बाद एकनाथ रानडे ने शिला स्मारक के लिए बड़े पैमाने पर धन संग्रह की योजना बनाई. लेकिन प्रांत प्रचारकों की बैठक में ये सवाल उठता था कि 10 लाख रुपये कैसे इकट्ठे होंगे, हालांकि एकनाथ रानडे के मन में एक योजना थी. उन्होंने तय किया कि स्वामी विवेकानंद तरुणों और युवाओं के आदर्श हैं, उनकी सहभागिता करवानी होगी. सबसे पहले उन्होने स्वामी के सुंदर चित्र वाले एक रुपये के कार्ड की बिक्री का सरल व सस्ता उपाय शुरू किया.
फिर योजना बनाई कि देश भर के हर स्कूल का एक पत्थर तो विवेकानंद शिला स्मारक होना चाहिए ही, और ग्रेनाइट के ईंट के आकार का पत्थर कम से कम 500 रुपये का होता है, सो हर स्कूल से 500 रुपये इकट्ठा करने की अपील की गई. ये तरीका सबको समझ आया, कोई भी छूटने को तैयार नहीं था. सोचिए गुरु गोलवलकर के 51वें जन्मदिन पर एकनाथ रानडे के प्रयासों से ही संघ ने 1956 में 26 लाख रुपया इकट्ठा किया था, लेकिन 8 साल बाद ही 1 रुपये के कार्डों की बिक्री ने ये आंकड़ा आसानी से पीछे छोड़ दिया. कार्ड्स की बिक्री से ही समिति को 30 लाख रुपये प्राप्त हुआ. कुल धन संग्रह सवा करोड़ का हुआ था, जबकि 10 लाख जमा करने को लेकर लोगों के मन में संशय था.
1970 में ये भव्य शिला स्मारक बनकर तैयार हो गया, तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने इसका अनावरण किया. मद्रास के मुख्यमंत्री करुणानिधि भी कार्यक्रम में उपस्थित थे. बाद में तो खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस स्मारक के दर्शन करने आईं और एकनाथ रानडे की तारीफ की. यूं दोनों का जन्मदिन 19 नवम्बर को ही होता है. शिला स्मारक का ये ऐसा मिशन था, जिसके निर्माण के दौरान एकनाथ रानडे संघ कार्य से मोटे तौर पर दूर ही रहे, उसके बाद भी उन्होंने इसी मिशन को और भी आगे बढ़ाने का संकल्प लिया. 2 वर्ष के बाद 1972 में एकनाथ रानडे के प्रयासों से ‘विवेकानंद केन्द्र’ नाम की संस्था अस्तित्व में आई, एकनाथ रानडे इसके महामंत्री बनाए गए. इस केन्द्र के जरिए उन्होंने देश भर के युवाओं को ये मौका दिया कि वो स्वामी विवेकानंद के विचारों के प्रसार में सहायक बन सकते हैं, अब तक सैकडों युवा यहां से प्रशिक्षित होकर देश दुनियां के अलग अलग क्षेत्रों में गए हैं. 18 अगस्त 1982 को मद्रास में उन्होंने देह त्याग दी.
‘संघ नींव में विसर्जित’ से एक दिलचस्प घटना की जानकारी मिलती है. गुरु गोलवलकर के देहांत के बाद जून 1973 में नए नए बने सरसंघचालक बालासाहब देवरस और एकनाथ रानडे दोनों एक संघ शिक्षा वर्ग में उपस्थित थे. वहां दिए गए एकनाथ रानडे के ‘बौद्धिक’ की बड़ी चर्चा हुई थी. उसके बाद शिक्षकों-प्रचारकों की एक बैठक में वर्ग कार्य़वाह डॉ कन्हैया सिंह ने एकनाथ रानडे से एक सवाल पूछकर सबको चौंका ही दिया था, उस प्रश्न का आशय था कि गुरुजी के बाद आपके हाथ में संघ की बागडोर होती तो बहुत अच्छा होता. एकनाथ जी ने विनोदपूर्ण शुरूआत के साथ जो गंभीर उत्तर दिया, उससे वहां बैठे सभी स्वयंसेवक, प्रचारक निरुत्तर ही रह गए थे. उन्होंने कहा था, “देखो, जहां तक मेरा प्रश्न है, मेरा होल्डाल तो हमेशा बंधा रहता है, उधर से इधर आने में दो मिनट का समय भी नहीं लगेगा, किंतु यदि पूज्य गुरुजी के अलौकिक व्यक्तित्व में तुम्हारा विश्वास है तो यह मानकर चलो कि उनके द्वारा बनाई गई योजना संगठन के लिए पूर्ण लाभकारी सिद्ध होगी”. वैसे भी जब तक विवेकानंद शिला स्मारक रहेगा, तब तक कोई एकनाथ रानडे का नाम भला कैसे भूल सकता है? उन्हें भी तो गुरु गोलवलकर ने ही भेजा था.
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