N. Raghuraman’s column – In life, you get back what you give | एन. रघुरामन का कॉलम: जीवन में आप जो देते हैं , वही वापस पाते हैं

44 मिनट पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
वर्ष 1980 के शुरुआती दिनों की बात है। वे बॉम्बे (अब मुंबई) के जुहू में स्थित होटल हॉलिडे-इन में एक पतले और झुके सिर वाले युवक का हाथ थामे हुए दाखिल हुए। उस दौर में यह सेलेब्रिटीज के लिए सबसे मशहूर होटल था। जैसे ही सिक्योरिटी गार्ड ने उनकी कार का दरवाजा खोला, उन्होंने कहा- ‘परमार साहब को बुलाओ।’
आज 86 वर्ष के चंडीगढ़ निवासी बलजीत परमार उस वक्त होटल के चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर थे। परमार दौड़ते आए। पिता ने बेटे का हाथ पकड़े हुए ही कहा, ‘यार बलजीत, यह मेरा बेटा है। इसने लंदन स्कूल ऑफ ड्रामा से पढ़ाई पूरी की है। मैं चाहता हूं कि यह आपके जिम में थोड़े मसल्स बनाए।
जरा मदद करो।’ फिर उन्होंने इशारे से परमार को करीब बुलाया और धीरे से पंजाबी और फिर हिंदी में उनके कान में फुसफुसाए- ‘उसने सोणी कुड़ियां तो बचाओ, लड़कियां तंग करेंगी।’ परमार मुस्कराए और भरोसा दिलाया कि जब भी बेटा होटल के हेल्थ क्लब में होगा, वे खुद उसकी देखभाल करेंगे।
छह महीने बीत गए। लेकिन बेटा पिता की उम्मीद के अनुसार शरीर नहीं बना पाया। ऐसे कितने पिता होंगे, जो घर के प्रवेश द्वार पर ही बने अपने मुख्य ड्रॉइंग रूम को पूरी तरह तोड़कर, उसे छोटे ‘कुश्ती के अखाड़े’ जैसा बना दें?
उन्होंने पंजाब से अपने भरोसेमंद दोस्तों और अन्य लोगों को बुलाया और बेटे की मस्कुलर बॉडी बनाने पर काम शुरू कर दिया। इस पिता ने ड्रॉइंग रूम को पहली मंजिल पर शिफ्ट कर दिया। प्रशिक्षण पर नजर रखी और सुनिश्चित किया कि बेटे का शरीर ताकतवर बन सके। और यहीं से वो “ढाई किलो का हाथ’ बना।
फिर वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने बेटे को बतौर हीरो लेकर 1983 में फिल्म भी बनाई, जबकि वे खुद उस दौर के सुपर हीरो थे। वे बेताबी से उसकी सफलता का इंतजार करने लगे। फिल्म का नाम भी ‘बेताब’ ही था, जिसमें सनी देओल और अमृता सिंह ने डेब्यू किया।
यह फिल्म न केवल व्यावसायिक तौर पर बेहद सफल रही, बल्कि आरडी बर्मन द्वारा कम्पोज्ड इसका म्यूजिक भी बहुत हिट हुआ। और इसी फिल्म ने सनी को रातों-रात सितारा बना दिया। उन्हें फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर के लिए नामित किया गया, हालांकि अवार्ड नहीं मिला। लेकिन जल्द ही, 1990 में ‘घायल’ के लिए उन्होंने वह अवार्ड जीता।
इस उपलब्धि ने पिता का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया, क्योंकि 24 नवंबर 2025 को इस दुनिया को अलविदा कहने तक खुद उन पिता को यह अवार्ड नहीं मिल पाया था। एक पिता के तौर पर धर्मेन्द्र के इस समर्पण से प्रभावित होकर बीते 46 वर्षों से मेरे मित्र रहे बलजीत परमार ने भी अपने पहले बेटे का नाम सनी ही रखा।
वे इंडस्ट्री के सबसे मेहमान नवाज व्यक्ति थे। पंजाब के लोग अकसर उनके घर आते रहते थे। और कोई भी बिना कुछ खाए वापस नहीं लौटता। यह लस्सी, समोसा, दूध, रसगुल्ला- कुछ भी हो सकता था। काेई नहीं जानता कि कैसे उनकी रसोई में हमेशा हर उम्र के लोगों के लिए कुछ न कुछ मौजूद रहता था।
यहां तक कि बच्चों के लिए पॉपकॉर्न तक रहते थे। मुझे पता चला कि इंडस्ट्री में उनके डुप्लीकेट मोहन बग्गड़ भी कई हफ्तों तक उनके घर में रहे ताकि धर्मेन्द्र के हावभाव सीख सकें- जो हमेशा सीना तान के चले पर गर्दन में कभी अकड़ नहीं आने दी और पैर हमेशा जमीन पर टिके रहे।
वे ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने हर मिलने वाले को प्रेम दिया। और आश्चर्य नहीं कि बदले में उन्हें भी ढेर सारा प्यार मिला, ना सिर्फ फैंस से बल्कि साथ काम करने वाले हर सहकर्मी से।
फंडा यह है कि आप दुनिया को जो देते हैं, वही कई गुना होकर लौटता है। धर्मेन्द्र से बेहतर इसका उदाहरण कौन होगा, जिन्होंने जीवन भर प्रेम दिया और वही प्रेम उन्हें 1963 की बिमल रॉय की फिल्म ‘बंदिनी’ से लेकर 2025 में अपनी अंतिम यात्रा तक वापस मिलता रहा।
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