Sudhir Chaudhary’s column: Justice should not only be the right of the rich, it should also be the trust of the people | सुधीर चौधरी का कॉलम: न्याय अमीरों का अधिकार ही नहीं, लोगों का भरोसा भी बने

- Hindi News
- Opinion
- Sudhir Chaudhary’s Column: Justice Should Not Only Be The Right Of The Rich, It Should Also Be The Trust Of The People
5 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

सुधीर चौधरी वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कहा कि ईज ऑफ लिविंग (जीवनयापन की सुगमता) और ईज ऑफ डुइंग बिजनेस (व्यापार की सुगमता) तभी संभव हैं, जब ईज ऑफ जस्टिस (सुगम न्याय) हो। यह बात सुनने में सीधी लगती है, लेकिन इसका मतलब बहुत गहरा है। क्योंकि आज अदालतों में लम्बित मामलों का पहाड़ लगातार ऊंचा होता जा रहा है।
भारत में कुल लगभग 5.3 करोड़ मामले लम्बित हैं। इनमें से करीब 4 करोड़ से ज्यादा जिला अदालतों में अटके हैं, 60 लाख से ज्यादा हाईकोर्ट्स में और सुप्रीम कोर्ट में भी हजारों केस सालों से सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। यानी अगर आज कोई नया मामला दायर हो, तो उसके फैसले की उम्मीद शायद ही आपके बच्चों को मिले!
नए सीजेआई जस्टिस सूर्यकांत की यह बात गौरतलब है कि जब लोग किसी को कहते हैं मैं तुम्हें कोर्ट में देख लूंगा तो वो न्याय-तंत्र पर अपने भरोसे का इजहार कर रहे होते हैं। इसे बनाए रखना बड़ी चुनौती और जिम्मेदारी है। न्याय में देरी एक अदृश्य सजा है। अंग्रेजी में तो मुहावरा ही है कि न्याय में देरी यानी न्याय से वंचित कर दिया जाना।
कई अदालतों में औसतन एक केस को निपटने में 5 से 15 साल लग जाते हैं। कुछ मामलों में तो मुकदमे चलते-चलते पूरी जिंदगी बीत जाती है। यह हमारे देश में एक आम आदमी की जिंदगी के सबसे कीमती सालों की कीमत है, कभी जमानत के इंतजार में, कभी तारीख पर तारीख में!
महंगा न्याय गरीब के लिए सपना बन गया है। कानूनी लड़ाई लड़ने का मतलब आज करोड़ों भारतीयों के लिए कर्ज, बेचैनी और हताशा है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील एक पेशी के लिए 5 लाख से 50 लाख तक फीस लेते हैं। हाईकोर्ट में ये फीस 50,000 से 25 लाख तक होती है।
जिला अदालतों में भी अनुभवी वकील 10,000 से 50,000 प्रति सुनवाई तक चार्ज करते हैं। यह तो सिर्फ फीस है। इसके अलावा ड्राफ्टिंग, नोटिस, स्टे ऑर्डर, केस फाइलिंग और लगातार तारीखों का खर्च। कई बार किसी गरीब व्यक्ति को पहली सुनवाई तक पहुंचते-पहुंचते ही हार माननी पड़ती है।
कानून सबके लिए बराबर हो सकता है, लेकिन वकील सबके लिए बराबर नहीं हैं। वकीलों की फीस पर नियंत्रण क्यों नहीं है? डॉक्टर, स्कूल, यहां तक कि निजी अस्पतालों तक की फीस पर दिशानिर्देश हैं, फिर वकीलों की फीस पर कोई सीमा क्यों नहीं? बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पास आचार संहिता बनाने का अधिकार है, पर फीस-कैपिंग या पारदर्शिता की कोई व्यवस्था नहीं है। परिणाम यह है कि वकालत सेवा से ज्यादा व्यवसाय बन चुकी है।
प्रधानमंत्री की ईज ऑफ जस्टिस वाली बात का असली मतलब यही होना चाहिए कि न्याय न सिर्फ सुलभ हो, बल्कि सस्ता भी हो। भारत में प्रति दस लाख आबादी पर सिर्फ 15 से 21 जज हैं। अमेरिका और यूरोप में यही आंकड़ा 150 से 200 जज प्रति दस लाख तक पहुंचता है।
इतने कम जजों पर इतना बोझ है तो नतीजा भी यही रहता है कि सालों की देरी और लाखों लम्बित केस। नीति आयोग की एक पुरानी रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि मौजूदा गति से भारत को अपने बैकलॉग खत्म करने में 300 साल लग सकते हैं। यानी 12 पीढ़ियां सिर्फ एक इंसाफ का इंतजार करती रहेंगी!
तो समाधान क्या हैं? देश को कम-से-कम 50 जज प्रति दस लाख आबादी का लक्ष्य हासिल करना चाहिए। वकीलों की फीस पर एक तय रेंज या कैप लगाई जानी चाहिए, ताकि आम नागरिक भी न्याय की लड़ाई लड़ सके। अदालत के आदेश, फैसले और नोटिस आम आदमी की भाषा में हों ताकि लोग समझ सकें कि लिखा क्या गया है।
डिजिटल तकनीक से केस की ट्रैकिंग, वर्चुअल सुनवाई और स्टे ऑर्डर्स पर नियंत्रण जरूरी है। सरकारी मुकदमे घटाना भी जरूरी है। सरकार खुद सबसे बड़ी वादी है। अगर राज्य कम मुकदमे करे, तो आधा बोझ अपने आप घट जाएगा।
न्याय सिर्फ अदालत का विषय नहीं, यह समाज और अर्थव्यवस्था दोनों की बुनियाद है। एक मुकदमा जो बीस साल तक लटका रहे, वह सिर्फ वादी को ही नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी जकड़ लेता है। देश को अब स्वीकारना होगा कि जब तक न्याय सस्ता, तेज और सुलभ नहीं होगा, विकास अधूरा रहेगा, और भरोसा भी।
अदालतें सिर्फ मुकदमों ही नहीं, जनता की उम्मीदों का भी भार उठा रही हैं। वक्त आ गया है कि न्याय सिर्फ अमीरों का अधिकार ही नहीं, हर नागरिक का आत्मविश्वास भी बने। यह तभी होगा, जब महंगी फीस और लंबी तारीखें हटेंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
Source link
