Abhay Kumar Dubey’s column: The SIR process could unite opposition parties. | अभय कुमार दुबे का कॉलम: विपक्षी दलों को एकजुट कर सकती है एसआईआर प्रक्रिया

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7 घंटे पहले
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अभय कुमार दुबे लेखक सीएसडीएस और अम्बेडकर विवि दिल्ली में प्रोफेसर रह चुके हैं
चुनाव आयोग के अनुसार एसआईआर का लक्ष्य मौजूदा मतदाता सूची के स्थान पर एक पूरी तरह से शुद्ध सूची बनाना है। लेकिन हाल ही में चले इसके “पायलट प्रोजेक्ट’ के नतीजों की वजह से इस प्रक्रिया में खास तरह के राजनीतिक मंतव्यों का समावेश हो गया है।
सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों के लिए अब एसआईआर राजनीति में टिकने या न टिक पाने का पर्याय बन चुका है। इसके इर्द-गिर्द जो तीखी बहस चल रही है, वह 4 दिसम्बर को इस प्रक्रिया के खत्म हो जाने के बाद ठंडी होने वाली नहीं है। वह तो हर उस प्रदेश में विधानसभा के चुनाव के पहले और बाद में जारी रहेगी, जहां-जहां इस समय एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है।
जाहिर है कि एकदम नई मतदाता सूची बनाने का मतलब ही है बड़े पैमाने पर वोटरों को निकालना और जोड़ना। यानी एसआईआर से चुनाव परिणाम लाजिमी तौर पर प्रभावित होते हैं। किसके वोट निकाले जा रहे हैं और किसके जोड़े जा रहे हैं- इस पर लोकतंत्र का राजनीतिक भविष्य निर्भर हो सकता है।
दरअसल, इन अंदेशों के पीछे दो मुख्य व्यावहारिक कारण हैं। पहला, एसआईआर की प्रक्रिया कुछ इस तरह से डिजाइन की गई है कि सूची में नाम सुनिश्चित कराने का जिम्मा वोटर का हो गया है, जबकि इससे पहले यह दायित्व आयोग का होता था। दूसरा, ईवीएम से मतदान के पिछले दशकों में वोट डालने की प्रक्रिया की गोपनीयता पहले जैसी नहीं रह गई है।
जब मतगणना के दौरान ईवीएम बूथवार खुलती है तो पता चल जाता है कि किस बूथ पर मतदाता सूची में दर्ज मतदाताओं ने किस पार्टी को वोट दिया। किसी बूथ से बार-बार एक ही परिणाम आने से काफी हद तक अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां के कौन से मतदाता किस पार्टी के समर्थक या विरोधी हो चुके हैं। यानी अगर इन पार्टी निष्ठाओं का ध्यान रखकर बूथवार योजना बनाई जाए तो वोटरों को निकालने और जोड़ने के कुछ फायदे या नुकसान हो सकते हैं।
विपक्ष अपने इस दावे को खुलकर कह रहा है कि एसआईआर का मकसद गैर-भाजपा दलों को चुनाव में हराने का पक्का और स्थायी बंदोबस्त करना है। इसके उलट सत्ता पक्ष एसआईआर को अपनी जीत के उपकरण की तरह पेश करने के विपक्षी आग्रह को चुनावी हार से पैदा हुई खिसियाहट का नतीजा बताने में लगा है।
वह पूरी कोशिश कर रहा है कि एसआईआर कराने को एक निर्दोष संवैधानिक प्रक्रिया की तरह पेश किया जाए। पर उसके आलोचक यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि पुरानी मतदाता सूची को खारिज करके एकदम नई मतदाता सूची बनाने का बीड़ा उठाने से पहले चुनाव आयोग को इस प्रक्रिया के सभी स्टेकहोल्डरों के साथ कम से कम चर्चा तो करनी ही चाहिए थी।
देश की सभी राजनीतिक पार्टियां और राज्य सरकारें इससे प्रभावित होने वाली हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। बस एक दिन अचानक इसकी घोषणा कर दी गई। पहले बिहार में यह प्रक्रिया ताबड़तोड़ चलाई गई और अब 12 अन्य राज्यों में किसी भी आपत्ति से बेपरवाह होकर जल्दबाजी में इसे किया जा रहा है।
अगर विपक्ष की रणनीति के संदर्भ में देखें तो उसके नेता किसी न किसी रूप में मान रहे हैं कि एसआईआर की काट अगर उनकी तरफ से न की गई तो चुनावी प्रतियोगिता में उनका भविष्य अंधकारमय है। इसलिए उनके दायरे में इसके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर की रणनीतिक सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर जाहिर है कि यह पहलकदमी कांग्रेस और राहुल गांधी ने की है। उसने एसआईआर के खिलाफ एक राष्ट्रीय मुहिम का खाका बना लिया है। इसकी शुरुआत रामलीला मैदान में एक रैली करने और गुजरात से एक पदयात्रा निकालकर की जाएगी।
कांग्रेस को उम्मीद है कि उसकी इस मुहिम में न केवल वे क्षेत्रीय शक्तियां जुड़ेंगी, जिनसे उसके अच्छे संबंध हैं (जैसे यूपी की सपा, बिहार का राजद और तमिलनाडु की द्रमुक), बल्कि वे पार्टियां भी साथ आएंगी, जो कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से परहेज करती हैं (जैसे बंगाल की टीएमसी और केरल की माकपा)। कांग्रेस की इस उम्मीद में कुछ तो दम है। कारण यह है कि एसआईआर से सभी क्षेत्रीय शक्तियों के कान खड़े हो गए हैं!
कांग्रेस से मतभेदों के बावजूद विपक्षी दलों को उसके साथ एसआईआर के खिलाफ सड़क पर उतरना पड़ सकता है। इससे पहले लोकसभा चुनाव में ही ऐसी एकता हो पाती थी, पर इसके अब विधानसभाओं के स्तर पर भी होने की संभावना पैदा हो गई है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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