Navneet Gurjar’s column – ‘SIR’, please forgive us now! | नवनीत गुर्जर का कॉलम: ‘SIR’, अब कहीं तो हमें माफ कर दीजिए!

3 घंटे पहले
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नवनीत गुर्जर
ज्ञानेश बाबा ऊपर, सबसे ऊपर बैठकर ज्ञान बांटते फिरते हैं। न किसी की समझ में आता। न कोई समझना चाहता। पूछा कुछ और जाता है। जवाब कुछ और मिलता है। बीएलओ बेचारे आजकल घर-घर चक्कर काट रहे हैं। उनमें से ज्यादातर को कुछ पता ही नहीं है।
एक फॉर्म देकर जाते हैं। लोग उसे भरकर सारे कागजात देते हैं। लेकिन वे कोई कागजात नहीं लेते। कहते हैं गलत हुआ तो ये फॉर्म कैंसल हो जाएगा। दूसरी बार नोटिस मिलेगा तब कागजात दीजिए। समझ में नहीं आता इस चुनाव आयोग को उल्टे हाथ से कान पकड़ने में क्या मजा आता है। एक बार में ही सारे कागजात लेकर मामला खत्म क्यों नहीं करते?
बीएलओ का पैसा बढ़ाना है या सरकार के पैसे ज्यादा खर्च करने हैं? आखिर चाहते क्या हो? कहना क्या चाहते हो? करना क्या चाहते हो? होना तो यह चाहिए कि जो वर्षों से वोटर हैं, जिनका वर्षों से पैन कार्ड है, जो वर्षों से बैंकों में लेन-देन कर रहे हैं या जिनका दस-बीस बरस से पासपोर्ट बना हुआ है और विदेशों में ट्रैवलिंग भी कर रहे हैं, उन्हें तो सबसे पहले इस विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर की प्रक्रिया से बाहर कर देना चाहिए।
बल्कि सम्मान के साथ उन्हें नया मतदाता पत्र देना चाहिए। चाहें तो इस वोटर कार्ड का उनसे पैसा भी ले लीजिए, लेकिन दोबारा पूरी प्रक्रिया से तो उन्हें मुक्त कर दीजिए! आखिर उन लोगों- जो वर्षों से इनकम टैक्स भर रहे हैं, पासपोर्ट लिए हुए हैं- का कसूर क्या है?
पासपोर्ट से बड़ा तो कोई नागरिकता प्रमाण हो नहीं सकता! फिर यह सब फिजूल की मशक्कत क्यों? ऐसे लोगों से बार-बार, तरह-तरह के सबूत मांगकर उन्हें बेइज्जत क्यों किया जा रहा है? इसे इस तरह देखिए! जब हम अपनी कार या बाइक में लाइसेंस, गाड़ी के तमाम कागजात लिए हुए होते हैं, तब भी कोई पुलिस वाला बीच रास्ते हमें रोककर जब कागजात मांगता है तो सब कुछ होते हुए भी हमें इरिटेशन तो होता ही है!
तो फिर जब कोई चुनाव आयोग या कोई बीएलओ नामक उसका कारिंदा आपके जन्म पर, आपके निवास पर, आपके होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है तो आपको कोफ्त होगी या नहीं? जरूर होगी। लेकिन चुनाव आयोग को, इतनी छोटी-सी बात समझ में नहीं आती। या ये कहें कि वो कुछ समझना ही नहीं चाहता।
बिहार में भाजपा की प्रचण्ड जीत को अगर चुनाव आयोग एसआईआर की सफलता मान रहा हो, जो कि वह परोक्ष रूप से मान ही रहा है तो फिर इस बारे में किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती! सीधी-सी बात है, आपके पास सारे लोगों का सारा रिकॉर्ड है।
जो लोग वाकई भारत का नागरिक होने की औपचारिकता पहले से ही पूर्ण कर रहे हैं, उनके घर बीएलओ को तीन बार भेजकर आप क्यों सरकारी पैसे की बर्बादी करना चाहते हैं? ठीक है, आधार कार्ड कोई भी बनवा सकता है और अपने हिसाब से उसे कोई बदला भी सकता है लेकिन पासपोर्ट के मामले को तो गंभीरता से ले लीजिए।
…और अगर चुनाव आयोग नाम की संस्था किसी के पासपोर्ट को भी मान्यता नहीं दे पाती तो फिर तो पूरी भारतीय प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाना चाहिए! कुल मिलाकर चुनाव आयोग लकीर का फकीर बना हुआ है। उसका काम भेड़िया धसान है। भेड़िया धसान मतलब एक भेड़ कुए में गिरी तो नीचा मुंह करके उसके पीछे चल रही तमाम भेड़ें उसी कुए में पड़ जाती हैं।
हमारे बीएलओ भी सब यही कर रहे हैं या कह सकते हैं कि वे बेचारे ऐसा करने पर मजबूर हैं। क्योंकि चुनाव आयोग के किसी भी कथन की नाफरमानी करना यानी नौकरी से हाथ धोना। अब बंधी-बंधाई सरकारी नौकरी से यूं ही कोई हाथ धोना क्यों चाहेगा भला? वो भी बेचारे सरकारी शिक्षक।
कभी जनगणना, कभी चुनाव और कभी ऐसे ही किसी और काम में जोत दिए जाते हैं। कहने को लोग उलाहना देते फिरते हैं कि शिक्षकों के मजे हैं। सालभर छुट्टियां ही छुट्टियां! लेकिन गहराई में उतरिए तो ये छुट्टियां ही उनके लिए सबसे बड़ी आफत हैं। वे जुटे हुए हैं। वे खप रहे हैं। वे मर भी रहे हैं। अब चुनाव आयोग तो यह सब देखने-परखने से रहा! क्योंकि ऐसा करने के लिए कम से कम दो आंखें तो चाहिए! वो कहां हैं?
समझ में नहीं आता इस चुनाव आयोग को उल्टे हाथ से कान पकड़ने में क्या मजा आता है। एक बार में ही सारे कागजात लेकर मामला खत्म क्यों नहीं करते? आखिर चाहते क्या हो? कहना क्या चाहते हो? करना क्या चाहते हो?
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