Jayati Ghosh’s column: Global inequality has become a disaster. | जयती घोष का कॉलम: दुनिया में फैली असमानता अब एक आपदा बन चुकी है

5 घंटे पहले
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जयती घोष मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
हाल ही में जोहानिसबर्ग में हुई जी-20 समिट कई ऐतिहासिक पहलों की गवाह बनी। अफ्रीका में यह समूह की पहली समिट थी। पहली बार ही अफ्रीकन यूनियन को पूर्णकालिक सदस्य के रूप में शामिल किया गया। लेकिन यह पहली ऐसी समिट भी थी, जिसका अमेरिका ने न सिर्फ आधारहीन कारणों से बहिष्कार किया बल्कि मेजबान देश को अंतिम घोषणा पत्र जारी करने से रोकने की कोशिश भी की। दक्षिण अफ्रीका का अमेरिकी धमकी को नजरअंदाज करना भी अभूतपूर्व था।
यह भी पहली बार था, जब इस समिट में जी-20 नेताओं ने वैश्विक असमानता के मुद्दे पर औपचारिक चर्चा की। संदर्भ था एक्स्ट्राऑर्डिनरी कमेटी ऑफ इंडिपेंडेंट एक्सपर्ट्स ऑन ग्लोबल इनइक्वैलिटी की ताजा रिपोर्ट। मैं भी इस कमेटी की सदस्य थी। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने व्यापक शोधों और 80 विशेषज्ञों से परामर्श के आधार पर दुनियाभर में आर्थिक असमानताओं की समग्र तस्वीर पेश की।
हालांकि निष्कर्ष बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। भले ही 2000 के दशक की शुरुआत से वैश्विक असमानता घटी हो, लेकिन मोटे तौर पर यह चीन में बढ़ती आय के कारण है। समग्र तौर पर देखें तो दुनिया में असमानता का स्तर ऊंचा ही बना हुआ है और यह फिर से बढ़ने लगी है।
देशों के बीच असमानता घटी तो है, लेकिन सबसे अमीर और सबसे गरीब देश के बीच अंतर आज भी अस्वीकार्य रूप से बहुत ज्यादा है। विश्व बैंक के रूढ़िवादी मानकों पर भी आज दस में से नौ लोग अत्यधिक असमानता वाले देशों में रह रहे हैं।
देशों में भी आय का वितरण बिगड़ा हुआ है। बीते दशकों में अधिकतर अर्थव्यवस्थाओं की राष्ट्रीय आय में मजदूरी का हिस्सा घटा है, जबकि पूंजीगत आय तेजी से चंद हाथों में इकट्ठी हो रही है। कॉर्पोरेट मुनाफे का बड़ा हिस्सा बड़ी कंपनियो को चला जाता है। इनमें भी सबसे बड़ा भाग बहुराष्ट्रीय कंपनियां झटक लेती हैं।
इन घटनाओं से एक व्यापक चलन सामने आता है- आय और सम्पत्ति का शीर्ष स्तर पर केंद्रित होना। सम्पत्ति का बंटवारा अपेक्षाकृत अधिक असमान तरीके से हुआ है। बीते दशकों में सम्पत्ति में हुई जबरदस्त बढ़ोतरी में से अधिकतर हिस्सा उन्हीं लोगों के पास गया, जो पहले से अमीर हैं।
इस सदी की शुरुआत से पैदा हुई कुल सम्पत्ति का 40% से अधिक हिस्सा सर्वाधिक धनवान 1% लोगों के पास गया, जबकि सबसे निचली आधी आबादी को महज 1% हिस्सा ही मिला। सर्वाधिक धनाढ्य 1% लोगों में से भी अधिकांश लाभ अत्यधिक-धनाढ्यों को मिला है।
संभवत: यह मानव इतिहास में सम्पत्ति का सबसे चरम केंद्रीकरण है। नतीजतन एक ऐसा वर्ग बना है, जो अपने अभूतपूर्व संसाधनों के दम पर कानूनों, संस्थानों और नीतियों को तय करने, मीडिया के जरिए जनमत को प्रभावित करने और न्याय तंत्र को अपने हित में मोड़ने में सक्षम है।
इससे लोकतांत्रिक शासन को जो खतरा पैदा हुआ, उसे रोजगार की अनिश्चितता, स्थिर मजदूरी और कमजोर सामाजिक सुरक्षा से जूझते श्रमिकों की हताशा और ज्यादा बढ़ा देती है। ये दबाव पहले ही राजनीतिक ध्रुवीकरण, प्रवासी व अल्पसंख्यक समूहों को दोष देने की प्रवृत्ति और लैंगिक असमानताओं को बढ़ा चुके हैं।
नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों के दावों के विपरीत बढ़ती असमानता आर्थिक वृद्धि को तेज नहीं करती, बल्कि दबाती है। सामूहिक खपत घटती है, तो हम बड़े पैमाने पर उत्पादन के फायदे खो देते हैं। कमाई की तुलना में विरासत को वरीयता मिले तो इनोवेशन घटने लगते हैं। असमानता आज आपदा बन गई है और जलवायु बदलाव की तरह ही इससे निपटने के लिए भी तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
जलवायु संकट की ही तरह असमानता का संकट भी काफी हद तक उपनिवेशवाद और वर्षों से मौजूद सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे से जुड़ा है। लेकिन मुख्य तौर पर यह हमारी चुनी गई उन नीतियों को परिणाम है, जो आम जनता के नुकसान की कीमत पर चंद लोगों को समृद्ध करती हैं।
इसे बहुत-से उदाहरणों से समझा जा सकता है। आर्थिक उदारीकरण और बार-बार सरकारी बेलआउट्स के चलते सम्पत्ति शीर्ष स्तर पर अटकी रही। बौद्धिक-सम्पदा को लेकर सख्त प्रणालियों ने ज्ञान पर एकाधिकार कायम कर दिया। आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के निजीकरण से असमानताएं और गहराईं।
अप्रासंगिक कर प्रणालियों के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियां और धनवान लोग अपनी सही हिस्सेदारी चुकाने से बच गए। ऐसी तमाम नीतियों ने मिलकर सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति के बीच संतुलन को नाटकीय रूप से बदल दिया है। (@प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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