Shashi Tharoor’s column – Remember that we cannot take democracy for granted | शशि थरूर का कॉलम: याद रखें कि हम लोकतंत्र को हलके में नहीं ले सकते

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6 दिन पहले
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शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद
25 जून 1975 को देश का एक नई सच्चाई से सामना हुआ था। रेडियो पर रोजमर्रा की सरकारी घोषणाएं नहीं, बल्कि एक डराने वाला ऐलान था- आपातकाल! 21 महीनों तक देश में मौलिक अधिकार निलंबित रहे, प्रेस को चुप करा दिया गया और राजनीतिक असहमति को कुचल दिया गया।
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सांसें थामे देखता रहा और हमारे संविधान के मूल्यों को कसौटी पर परखा जाता रहा। उस बात को 50 साल गुजर चुके हैं, लेकिन वो दौर भारतीयों की सामूहिक स्मृति में आज भी अंकित है।
जब आपातकाल लागू हुआ तब मैं भारत में ही था। हालांकि जल्द ही मैं स्नातक की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया और उसके बाद हुई घटनाओं पर नजर बनाए रहा। मैं एक गहरी बेचैनी से भरा था। भारत का कोलाहल भरा सार्वजनिक जीवन- जो जोरदार बहस और निर्बाध अभिव्यक्ति का अभ्यस्त था- एक अपशगुनी सन्नाटे में बदल गया था।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जोर देकर कहा कि यह कठोर कदम जरूरी था, क्योंकि सिर्फ आपातकाल ही आंतरिक अव्यवस्था और बाहरी खतरों से निपट सकता था, एक अराजक देश में अनुशासन और कार्यक्षमता ला सकता था।
न्यायपालिका भी दवाब तले झुक गई। सुप्रीम कोर्ट ने हैबियस कॉर्पस (अवैध हिरासत से बचाने की याचिका) और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के निलंबन को बरकरार रखा। पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। व्यापक पैमाने पर संविधान के उल्लंघन से मानवाधिकार हनन की शृंखला शुरू हुई।
जो लोग शासन को चुनौती देने की हिमाकत कर रहे थे, उनके लिए हिरासत में यातना एक स्याह हकीकत बन गई थी। अनुशासन का आग्रह तब क्रूरतापूर्ण हो गया, जब संजय गांधी ने गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में जबरन नसबंदी अभियान चलाया। दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में झुग्गियों को ढहाकर हजारों लोगों को बेघर कर दिया गया।
इन तमाम कृत्यों को बाद में दुर्भाग्यपूर्ण अतिरेक कहकर कमतर आंकने की कोशिश की गई। कुछ लोग कह सकते हैं कि आपातकाल के बाद कुछ समय के लिए महसूस हुआ कि व्यवस्था कायम हुई है और लोकतांत्रिक राजनीति में व्याप्त अराजकता से क्षणिक राहत मिली है। लेकिन आपातकाल में हुई हिंसा एक निरंकुश तंत्र के आततायी हो जाने का प्रत्यक्ष परिणाम थी।
और उसने जो भी व्यवस्था कायम की, वो हमारे गणतंत्र की भारी कीमत चुकाकर हुई थी। मौलिक अधिकारों के हनन तथा संवैधानिक मानदंडों की अवमानना ने भारतीय राजनीति पर गहरे निशान छोड़े। भले ही न्यायपालिका ने अंतत: यह दिखाया कि उसकी रीढ़ की हड्डी अभी कायम है, पर उसकी शुरुआती दुर्बलताओं को जल्दी नहीं भुलाया जा सकेगा। आपातकाल से प्रभावित लोगों में जो गुस्सा पैदा हुआ, उसी का नतीजा 1977 के चुनाव में दिखा। जनता ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया।
आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ एक ऐसे समय में आई है, जब दुनिया के कई देश गहरे ध्रुवीकरण का सामना कर रहे हैं और लोकतांत्रिक मानदंडों के समक्ष चुनौतियां हैं। ऐसे में यह हमारे लिए आत्मचिंतन का समय है। आपातकाल ने बताया है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं कितनी क्षणभंगुर हो सकती हैं, एक ऐसे देश में भी जहां वे पुख्ता नजर आती रही हों।
यह हमें याद दिलाता है कि सरकारें जनता के प्रति अपने नैतिक दृष्टिकोण और जिम्मेदारी के आभास को गंवा सकती हैं। और स्वतंत्रताओं का हनन खामोशी से शुरू होकर बाद में विकराल रूप धारण कर सकता है। तब परिवार-नियोजन जबरन नसबंदी और नगरीय-नियोजन घरों के मनमाने विध्वंस का रूप अपना लेता है।
आपातकाल के अनुभव से हमें बहुआयामी और स्थायी सबक मिले हैं। पहला, स्वतंत्र प्रेस सर्वोपरि हैं। जब चौथे स्तंभ का पतन होता है तो जनता उन सूचनाओं से वंचित रह जाती है, जिनकी उसे राजनेताओं को जवाबदेह ठहराने के लिए जरूरत है।
दूसरा, लोकतंत्र एक स्वतंत्र न्यायपालिका पर निर्भर करता है, जो कार्यपालिका के अतिक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करने में सक्षम और इच्छुक हो। और तीसरा, बहुमत से पोषित एक अहंमन्य कार्यपालिका लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है, खासकर तब जब वह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए जरूरी नियंत्रणों और संतुलनों के प्रति अधीर हो। आपातकाल इसीलिए तो संभव हुआ था, क्योंकि तत्कालीन सत्ता अभूतपूर्व रूप से केंद्रीकृत थी और असहमति को देशद्रोह के बराबर माना जाने लगा था!
आज हम 1975 की तुलना में ज्यादा आत्मविश्वासी व समृद्ध हैं। फिर भी आपातकाल के सबक प्रासंगिक हैं। केंद्रीकृत सत्ता, असहमति का दमन और संवैधानिक मानकों को ताक पर रखने की प्रवृत्ति कई रूपों में उभर सकती है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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